03-Jan-2019 06:00 AM
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मप्र में भाजपा की हार को आलाकमान पचा नहीं पा रहा है। पार्टी को कतई उम्मीद नहीं थी कि प्रदेश में हार होगी। एक रहस्य तो ये भी है कि जिन सीटों पर 30-30 साल भाजपा जीत रही थी, वहां इस बार क्यों हार गई। जबकि प्रदेश में उसकी मात्र 6 सीट कम आई हैं। मतलब कोई न कोई तो मंथरा है जो राजतिलक को रोककर किसी और का समीकरण बनाने में जुटी थी। तब और अब का मतलब साफ है तस्वीर भले बदल गई हो मजमून एक ही है। तब भी सत्ता के राजतिलक के पहले मंथराएं सक्रिय थीं अब राजतिलक से पहले मंथराएं सक्रिय हो रही हैं। अब इन मंथराओं की हसरत खुद ही गद्दी पर बैठ जाना है। तो समीक्षा तो होनी चाहिए। लेकिन समीक्षा करने का जोखिम कौन उठाए?
समीक्षाएं होती रहनी चाहिए। हार की, और जीत की भी। तुम्हारी हार की और उनकी जीत के मूल कारणों का खुलासा भी होना चाहिए। युद्ध चाहे कोई भी हो- सेना का, प्रेम का या फिर चुनाव का। सभी में समर्पण की आवश्यकता होती है। लेकिन जब कोई ज्यादा समर्पित दिखने की कोशिश करे तो इस बात की समीक्षा करें कि कोई मन्थरा, विभीषण या शकुनि तो हमारे बीच नहीं है। अब भारतीय जनता पार्टी के आत्म अवलोकन का समय है! सवाल ये भी बड़ा है कि क्या कड़वी दवाई पीने को तैयार है मध्यप्रदेश की भाजपा। किन वजहों से शिवराज सिंह चौहान के 13 मंत्री हारे, चार दर्जन से ज्यादा विधायक हारे उनकी हार के सबब पर अमल होगा या नहीं। क्या समय रहते उन मंत्रियों और विधायकों की टिकट नहीं कटना चाहिए थी, जिनके पक्ष में न तो जनता थी और न ही बीजेपी के कार्यकर्ता।
मध्यप्रदेश में बीजेपी की हार की पूरी जिम्मेदारी पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बिना देरी किए ले ली। उन्होंने साफ कहा कि ये चुनाव मेरे नेतृत्व में लड़ा गया था, लिहाजा हार की जिम्मेदारी भी मेरी ही है। शिवराज सिंह चौहान की जिम्मेदारी लेने के बाद से लेकर अब तक बीजेपी के कार्यकर्ताओं के मन में यही सवाल उठ रहा है कि क्या हार की पूरी जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान की ही थी, या फिर मध्यप्रदेश में संगठन के मुखिया और जबलपुर के सांसद राकेश सिंह भी कोई जोखिम उठायेंगे। कार्यकर्ताओं के इस सवाल का उत्तर राकेश सिंह ने इस्तीफे की पेशकश करके दे दिया। राकेश सिंह के इस्तीफे की पेशकश हो भी नहीं पाई थी कि कार्यकर्ताओं को एक और हैरान करने वाली खबर मिली- कि आलाकमान ने उनकी पेशकश को ठुकरा दिया है। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ पार्टी का एक बड़ा खेमा लामबंद है, लेकिन पार्टी के अनुशासन के चलते विरोध के स्वर मुखर नहीं हो पा रहे हैं। मध्यप्रदेश में भले ही कांग्रेस का संगठन बीजेपी के मुताबिक कमजोर माना जाता है, लेकिन एकाएक तीन राज्यों में बनी सरकारों से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में जोश उबाल मार रहा है, वहीं तीनों राज्यों में सरकार जाने से बीजेपी के कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर विधानसभा में सही प्रत्याशियों को टिकट दिया गया होता तो पार्टी आज भी सत्ता में होती और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बनते। अब बीजेपी के कार्यकर्ताओं के मन में सवाल उठ रहे हैं कि कहीं लोकसभा चुनाव में भी बोझिल हो चुके चेहरों को जनता के बीच लाया गया तो मध्यप्रदेश से बीजेपी कई सीटों पर हार जाएगी। मौजूदा आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्य प्रदेश की 29 में से 27 लोकसभा सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। कई सांसद ऐसे हैं जो तीन बार लगातार चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन उन सांसदों का रिपोर्ट कार्ड जनता भी जानती है और कार्यकर्ता भी, ऐसे में अगर टिकट वितरण में अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो बीजेपी के उपजाऊ प्रदेश से उन्हें लंबी निराशा हाथ लगेगी।
मध्यप्रदेश की अमूमन 18 सीटों का यही हाल है। जबलपुर और इंदौर जो बीजेपी का गढ़ कहे जाते हैं लेकिन इस बार बीजेपी के इन्हीं किलों में कांग्रेस ने सेंध लगा दी। इसकी समीक्षा तो जरूर होनी चाहिए और ये भी होना चाहिए कि कुछ नेता लोकसभा चुनाव में अपनी सीटों को अति सुरक्षित मान बैठे हैं, इन नेताओं की अतिसुरक्षित सीटों की समीक्षा अभी से होना चाहिए, क्योंकि जनता का मूड बदला है, बीजेपी का कार्यकर्ता निराश और हताश है, क्योंकि आलाकमान की गलती से बनी बनाई सरकार हाथ से निकल गई। बीजेपी ऐसे अति आत्मविश्वासी नेताओं को जोर का झटका धीरे से देने की जरूरत है।
भितरघात और ओवर
कॉन्फिडेंस पड़ा भारी
मप्र में भाजपा के उम्मीदवारों को भितरघात और ओवर कॉन्फिडेंस ले डूबा। कांग्रेस ने एकजुट होकर काम किया है। ऐसा कभी देखने को नहीं मिला। इस चुनाव में एक बात तो साफ हो गई है, विपक्ष अब बहुत मजबूत रहेगा। पिछले 15 सालों से कमजोर विपक्ष की समस्या प्रदेश भोग रहा था। यह कमी अब अगले पांच साल तक नहीं खलेगी। सरकार किसी भी स्तर पर अपनी मनमानी नहीं कर सकेगी। जनता ने यह भी साफ कर दिया कि मनमानी से सरकार चलाने, मकान तोडऩे, किसानों को ठगने, फसलों के उचित दाम नहीं देने का क्या नतीजा हो सकता है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत हैं। जितना मजबूत विपक्ष होगा, उतना अच्छा शासन होता है। जनता की बात सरकार तक पहुंचने का मजबूत जरिया भी होता है। निवृत्तमान सरकार की कार्यप्रणाली से न केवल जनता नाखुश थी, बल्कि उसी की पार्टी के कार्यकर्ता भी परेशान थे। विपक्ष को अब पूरे पांच साल जनता के मुद्दों को दमदारी से उठाना होगा, ताकि सरकार समय पर जनता के हक में सही फैसले ले सके और काम कर सके।
- अक्स ब्यूरो