03-Aug-2013 05:34 AM
1234829
राजस्थान की रेगिस्तानी जलवायु में भारतीय जनता पार्टीं के अंदर कुछ लोगों में सामंती खून खौलने लगता है और वे जब तब नई सल्तनत बनाने पर उतारू हो जाते हैं। कभी वसुंधरा राजे इस्तीफा देती है तो उनसे वफादारी दिखाने वाले छप्पन विधायक इस्तीफे की पेशकश कर देते हैं। कभी गुलाब चन्द कटारिया की लोक जागरण यात्रा को लेकर किरण महेश्वरी के आंसू बहते हैं, कभी विद्रोही नेता घनश्याम तिवाड़ी की देव दर्शन यात्रा पर बवाल मचता है तो कभी वसुंधरा की कार्यशैली को लेकर संघ की नाराजगी खुल कर सामने आ जाती है।
इस बार भी माहौल कुछ अलग सा है भाजपा के पूर्व कोषाध्याक्ष सुनील भार्गव ने राजनाथ सिंह को वसुंधरा राजे के खिलाफ एक शिकायती पत्र लिखा है जिसका सार यह है कि वसुंधरा राजे राजस्थान में पार्टीं की विचारधारा और सिद्धांतों के खिलाफ काम कर रहीं हैं। जिसके कारण संगठन में जड़ता आ गई है। सत्ता और धन के पुजारियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। अंहकार ग्रस्त नेताओं की अधिनायकवादी कार्यशैली संस्कारवान कार्यकर्ताओं को षड्यंत्र पूर्वक किनारा कर रही है। आज भाजपा पर ऐसे लोगों का कब्जा है जो कभी उसकी विचारधारा को कोसा करते थे और आज भी उनका विचारधारा से रतीभर जुड़ाव नहीं है। पार्टीं में समूहिक नेतृत्व, परस्पर सहमति और वैचारिक प्रतिबद्धता समाप्त सी हो गई है। संविधान का सरेआम उल्लंघन हो रहा है और वसुंधरा राजे अपनी पसन्द के लोगों को छोड़कर बाकी सब को हटा रही हैं।
भार्गव के इस पत्र ने भारतीय जनता पार्टीं की अंतरिक स्थिति को उजागर कर दिया है। इस पत्र से लगता है कि भाजपा में वसुंधरा राजे को अभी भी संघ का समर्थन नहीं मिला है। जिस तरह भार्गव ने अपने पत्र में बार-बार संघ का उल्लेख किया है उससे पता चलता है कि कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टीं में वैचारिक टकराव उभर कर सामने आ गया है। भार्गव ने केवल पत्र ही नहीं लिखा बल्कि नागपुर में संघ के मुख्यालय जाकर वसुंधरा राजे की शिकायत भी की है। राजे को लेकर राजस्थान में संघ पहले ही दुविधाग्रस्त रहा है। गुलाबचन्द कटारिया को आगे बढ़ाने के पीछे यही रणनीति थी किन्तु कटारिया की लोकप्रियता विधायकों और पार्टीं कार्यकर्तांओं के बीच न के बराबर है। हालांकि कटारिया सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं लेकिन उन्हें विधायकों और पार्टीं पदाधिकारियों से उतना सपोर्ट नहीं मिल पाता है। इसी कारण जब वसुंधरा राजे ने कटारिया को अपनी टीम में शामिल किया तो उन्होंने बिना किसी विरोध के वसुंधरा के साथ जाने में ही भलाई समझी।
कभी घनश्याम तिवाड़ी, कटारिया, अरूण चतुर्वेदी और ओंकार सिंह लखावत की चौकड़ी वसुंधरा की घोर विरोधी समझी जाती थी लेकिन अब तिवाड़ी को छोड़कर बाकी सब महारानी के चरणों में नतमस्तक हैं। चतुर्वेदी ने तो उपाध्यक्ष पद भी स्वीकार कर लिया था। इससे पहले वे अध्यक्ष हुआ करते थे। यह समझ से परे है कि वसुंधरा के आगे दिग्गज नेताओं ने समर्पण क्यों कर दिया। शायद इसी वजह से संघ से निकटता रखने वाले भार्गव जैसे नेता स्वयं को असहाय पा रहे हैं और संघ के शरण में जाने के अतिरिक्त उनके पास कोई चारा भी नहीं है।
वसुंधरा के प्रति उपजे विरोध के कारण अब राजस्थान का चुनाव ज्यादा रोचक हो गया है। हालांकि वसुंधरा का विरोध करने वाले भार्गव उतने प्रभावशाली नेताओं में नहीं गिने जाते लेकिन इससे कांग्रेस को वसुंधरा पर हमला करने का एक अवसर तो मिलेगा ही। गहलोत ने हाल ही में वसुंधरा राजे के कार्यकाल में हुए जमीन घोटालों की बात उठाई थी। हालांकि सत्ता विरोधी लहर के कारण उस बात को उतना वजन नहीं मिल सका गहलोत ने आईपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी का नाम लेकर वसुंधरा को विवाद में घसीटने की कोशिश की है। लेकिन फिलहाल माहौल में अभी कोई विशेष तब्दीली देखने को नहीं मिली। सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने वसुंधरा राजे पर आरोप लगाया है कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए राजस्थान का पैसा विदेशों में लगाया है। इससे लगता है कि वसुंधरा को दोहरी चुनौती है पार्टीं के भीतर संघनिष्ठ नेताओं ने उन्हें परेशान कर रखा है तो बाहर कांग्रेस उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरते हुए नए तरीके से प्रोजेक्ट करना चाहती है। वसुंधरा की मुखालफत करने वाले सुनील भार्गव ने सुन्दर सिंह भंडारी, भैरों सिंह शेखावत, सतीश चन्द्र अग्रवाल, भानुकुमार शास्त्री जैसे नेताओं का जिक्र करके यह साफ कर दिया है कि आने वाले समय में वसुंधरा को अपनी ही पार्टीं के भीतर संघ के वैचारिक टकराव का सामना करना पड़ सकता है। इस वर्ष की शुरूआत में भी लगभग 20 संघी नेताओं ने वसुंधरा के खिलाफ मोर्चां खोल दिया था उस वक्त प्रदेशाध्याक्ष के लिए रामदास अग्रवाल का नाम सामने आया था लेकिन आला कमान ने वसुंधरा राजे को तरजीह दी और बाकी नेताओं को जैसे तैसे मना लिया गया। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। ऐसे में देखना यह है कि मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट की गई वसुंधरा को समन्वय का पाठ पढ़ाने के लिए संघ और भाजपा संगठन क्या कदम उठाता है। वैसे भी वर्तमान हालात में आला कमान यह नहीं चाहेगा कि पार्टीं में किसी प्रकार का विरोध पैदा हो क्योंकि भाजपा की नजर आगामी लोकसभा चुनावों पर भी है। देश में कांग्रेस विरोधी माहौल को अपने पक्ष में बदलने के लिए भाजपा को राजस्थान जैसे राज्यों में संगठित दिखना होगा जहां पार्टीं का मजबूत जनाधार भी है खास बात यह है कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ केन्द्र और राज्य दोनों के सत्ता विरोधी मतों का तूफान चल रहा है लेकिन भाजपा यदि संगठित नहीं रहती है तो इस तूफान में उसके भी तंबू उखड़ सकते हैं।