छोटे दलों का दलदलÓ!
22-Dec-2018 11:04 AM 1234867
भले ही देश के अधिकांश क्षेत्रों की राजनीति भाजपा और कांग्रेस केंद्रित है, लेकिन कई छोटे दलों ने इन दोनों पार्टियों को अपनी ताकत का एहसास करा दिया है। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडि़सा और दक्षिण भारत के राज्यों में छोटे दलों का दम बराबर देखने को मिल रहा है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस और भाजपा की साख कम भी हुई है। इसको देखते हुए इन बड़े दलों ने छोटे दलों के दलदल में फंसने की बजाय इनको साधने में जुट गए हैं। बड़े राजनीतिक दल छोटे दलों को अपने प्रभाव में लाने और छोटे दल बड़े दलों पर दबाव बनाने की विचित्र प्रतियोगिता में लगे हैं। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी छोटे दलों को अपनी छत्रछाया में लाने के लिए उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पूरे देश में कवायद कर रही है, तो दूसरी तरफ भाजपा को केंद्र की सत्ता से बाहर करने के लिए बड़े-बड़े नेता तमाम छोटे-छोटे दलों की एकता कायम कर महागठबंधन को मजबूत करने की जद्दोजहद में लगे हैं। बड़े राजनीतिक दल का असली लक्ष्य छोटे या क्षेत्रीय दलों को गोलबंद कर उत्तर प्रदेश की सर्वाधिक 80 सीटों में से अधिकाधिक सीटें हासिल करने का है। बड़े दलों की इस चाहतÓ को देखते हुए ही शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी या राजा भइया की जनसत्ता पार्टी छोटे दलों के उनके साथ होने का दावा पेश कर रहे हैं, ताकि भाजपा या विपक्षी-गठबंधन से ठीक से मोलभाव हो सके। कई दल भाजपा की तरफ से छोटे दलों को रिझा रहे हैं, तो कई दल कांग्रेस की तरफ से। शरद यादव तो लोकतांत्रिक जनता दल बनाकर महागठबंधन बनाने के प्रयास में लोटा-डोरी लेकर जुटे हुए हैं। वर्ष 2014 का संसदीय चुनाव विपक्ष के तमाम दलों के कलेजे में तीर की तरह चुभा हुआ है। उत्तर प्रदेश में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को अपनी पारिवारिक सीटें बचाने पर केंद्रित होना पड़ा। इस चोट से आहत राजनीतिक दल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बरक्स एकजुट होना चाहते हैं। बड़े राजनीतिक दल यह मानते हैं कि छोटे दल सीटें जीतने के लायक भले न हों, लेकिन चुनाव मैदान में उनकी मौजूदगी वोट काटने में काफी मददगार साबित होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की हैसियत भी अब उत्तर प्रदेश में छोटी क्षेत्रीय पार्टियों से कम रह गई है। राष्ट्रीय लोक दल, अपना दल, पीस पार्टी, निषाद पार्टी, कौमी एकता दल, भासपा (सुहेलदेव) जैसी कई पार्टियां दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों से अधिक औकात वाली पार्टी हो चुकी हैं। कई अन्य छोटी पार्टियां भी सतह पर सक्रिय दिखने लगी हैं। कई बाहरी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां भी उत्तर प्रदेश में अपनी मौजूदगी दर्ज करने की छटपटाहट में हैं। राष्ट्रीय लोक दल 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर रहा। 2017 के विधानसभा चुनाव में छपरौली से चुनाव जीतने वाले रालोद के अकेले विधायक सहेंद्र सिंह रमाला के भाजपा में शामिल हो जाने से रालोद विधानसभा में भी शून्य हो गया। उपचुनाव में सपा से समझौते के बाद लोकसभा में रालोद की उपस्थिति दर्ज हुई। उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट के उपचुनाव में सपा से तालमेल कर रालोद ने अपनी प्रत्याशी तबस्सुम हसन को 16वीं लोकसभा की सदस्यता दिलाने में कामयाबी पाई। इस सीट को बचा कर रखने के लिए रालोद कुछ भी करने को तैयार है। रालोद ने मुजफ्फरनगर दंगे से बाद कमजोर हुई पकड़ को फिर से मजबूत करने के लिए जाट-मुस्लिम एकता की सियासत तेज कर दी है। यूपी में पार्टी को सक्रिय दिखाने और बड़े राजनीतिक दलों की निगाह में बने रहने के लिए रालोद ने अपनी कार्यकारिणी और संगठन में काफी फेरबदल किए। चौधरी अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी रालोद में नई ऊर्जा भरने की कसरत में लगे हैं, लेकिन उन्हें भी बड़े दल के सहारे ही रहना है, लिहाजा रालोद की सक्रियता और दिलचस्पी सियासी तामपान लेने में अधिक है। कई दल रालोद पर डोरे डाल रहे हैं तो भविष्य का आकलन करते हुए रालोद कई दलों पर डोरे डाल रहा है। अपना दल (एस) भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल है। अनुराधा पटेल केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं। अपना दल (एस) भाजपा के साथ फिर लोकसभा चुनाव में उतरेगा। अनुराधा पटेल की मां कृष्णा पटेल अलग अपना दल बना चुकी हैं और वे सपा और बसपा के साथ गठबंधन में शामिल होने के प्रयास में लगी हैं। शिवपाल की नई पार्टी भी कृष्णा पटेल के दल को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भाजपा के साथ रहते हुए भी कलह में लगी है। इस पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर योगी सरकार में मंत्री होते हुए अपनी ही सरकार और अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ बदजुबानी पर उतरे हुए हैं और विपक्ष के कई दलों पर डोरे डाल रहे हैं। राजभर अतिमहत्वाकांक्षा के शिकार हैं और उनके इस मनोविज्ञान से अन्य पार्टियां भी सतर्क हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, पीस पार्टी, महान दल, निषाद पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी (पीएमएसपी), इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल (आइइएमसी), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) समेत कई दल भी अभी से यूपी की सियासी जमीन को दलदल बनाने में लगे हैं। महाराष्ट्र की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया भाजपा गठबंधन में शामिल है, लेकिन उसके नेता रामदास अठावले भी यूपी की राजनीति में कुछ अधिक सक्रियता दिखा रहे हैं। अठावले कह चुके हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में आरपीआई यूपी में चुनाव लड़ेगी। अठावले ने भाजपा को यह चुनौती भी दे रखी है कि गठबंधन के तहत भाजपा अगर आरपीआई को सीटें नहीं देगी तब भी उनकी पार्टी अपने प्रभाव वाली सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि उत्तर प्रदेश में आरपीआई के प्रभाव वाली एक भी सीट नहीं है। बिहार की सत्ताधारी पार्टी जद (यू) और बंगाल की तृणमूल कांग्रेस भी यूपी में राजनीतिक सक्रियता दिखा रही है। जनता दल (यू) ने यूपी में भी अपने संगठन को सक्रिय किया है। जद (यू) यूपी में अधिकाधिक लोकसभा सीटों पर चुनाव लडऩे का इरादा जता चुका है। तृणमूल कांग्रेस 2012 के विधानसभा में मथुरा की माठ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीती थी। लेकिन तृणमूल के विधायक श्याम सुंदर शर्मा ने बसपा में शामिल होकर तृणमूल कांग्रेस का बंटाधार कर दिया। तृणमूल कांग्रेस यूपी में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की लगातार कोशिश कर रही है। इस कोशिश में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव की कई मुलाकातें हो चुकी हैं। दिल्ली की आम आदमी पार्टी भी लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी यूपी में उतारेगी। आम आदमी पार्टी ने पिछले निकाय चुनाव में बिजनौर की सहसपुर नगर पंचायत सीट जीत कर यूपी की सियासत में अपनी आमद दर्ज करा रखी है। वहां से हुमा खान चुनाव जीती थीं। लोकसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी की सहारनपुर से लेकर कई अन्य जगहों पर कई सभाएं हो चुकी हैं। शरद यादव की पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल ने भी यूपी में कम से कम चार-पांच लोकसभा सीटों से चुनाव लडऩे की घोषणा कर रखी है। -ऋतेन्द्र माथुर
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