ताई की राह का रोड़ा बने भाई
22-Dec-2018 07:13 AM 1234642
भाजपा की शीर्ष राजनीति में ताई और भाई खास महत्व रखते हैं। लेकिन मालवा में इन दोनों के बीच राजनीतिक जंग छिड़ी रहती है। पिछले दो दशक से वचस्र्व की ये लड़ाई जारी है। 9 विधानसभा और 22 लाख वोटर्स का इंदौर, शह- मात का ये खेल देख रहा है। इस बार भी ताई की तमाम नाराजगी के बाद भी कैलाश विजयवर्गीय अपने बेटे आकाश विजयवर्गीय को टिकट दिलाने में कामयाब हो गए हैं और ताई के बेटे-बहू का नाम टिकट की सिर्फ दावेदारी तक सिमट कर रह गया। पिछले तीन दशक से इंदौर लोकसभा की नुमाइंदगी करने वाली महाजन अपने एक भी समर्थक को विधानसभा का टिकट नहीं दिलवा पाई हैं। विधानसभा टिकट को लेकर हुए ताई- भाई के विवाद को राजनीतिक हलकों में 2019 के चुनाव संदर्भ में देखा जा रहा है। लगातार 8 बार लोकसभा चुनाव जीतने वाली महाजन की उम्र 75 पार हो चुकी है। ऐसे में प्रत्याशी बदला जाता है तो कैलाश अपने को दिल्ली की राजनीति में ले जाना चाहते हैं। ऐसे में वे मजबूत दावेदार बन कर सामने आ सकते हैं। यानि बेटे को टिकट दिलवाकर अपनी सीट छोडऩे वाले कैलाश अब महाजन के लिए एक तरह से चुनौती बन गए हैं। क्या कैलाश ताई पर भारी पड़े हैं? इसके जवाब में दोनों की राजनीतिक शैली का आकलन करना होगा। ताई संघ-भाजपा संगठन की अनुशासित राजनेता के बतौर जानी जाती हैं। वे कहती भी हैं कि मैं तो संगठन के खूंटे से बंधी हुई गाय हूं। वहीं कैलाश एक दबंग और अपनी शर्तों पर राजनीति करने वालों में जाने जाते हैं। मौका आने पर कई बार वे अपनी ताकत दिखा चुके हैं। संगठन में अपनी बात मनवाने के लिए उन्होंने एक बार विधायक पद से इस्तीफे की पेशकश तक कर दी थी। भाजपा की ही सरकार में जब पटवा मुख्यमंत्री थे तब मुख्य सचिव निर्मला बुच के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोल दिया था। ताई हमेशा कैलाश की स्वयंभू राजनीति के खिलाफ मोर्चा खोलती रहीं। संगठन तक अपनी बात पहुंचाती रहीं और आखिर में संगठन जो तय कर दे उसको अनुशासन मानकर स्वीकार करती रहीं। इंदौर के महापौर पद को लेकर ताई -भाई का झगड़ा अभी पुराना नहीं हुआ है जब महाजन ने सांसद पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी थी। लेकिन संगठन का फैसला कैलाश के साथ रहा और ताई को अपना दावा छोडऩा पड़ा। आखिर इस राजनीतिक टकराहट के मायने क्या हैं? भाजपा के शीर्ष स्तर पर देखें तो इसके कोई मायने नहीं है। लेकिन भाजपा के घरेलू फ्रंट पर आम कार्यकर्ता दोनों पावर सेंटर्स को साधते-साधते अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा को पूरा करने में लगा हुआ है। इस आपसी खींचतान का ही असर था कि प्रदेश की आर्थिक राजधानी होने के बावजूद शिवराज कैबिनेट में इंदौर का एक भी मंत्री नहीं बना था। जबकि 2013 के विधानसभा चुनाव में यहां के 9 विधानसभा क्षेत्रों में से 8 पर भाजपा विधायक चुने गए थे। ताई-भाई की टकराहट का परिणाम है कि इंदौर मेंं शिवराज सिंह चौहान का सीधा हस्तक्षेप बढ़ता गया। इस बार उनके सीधे समर्थन से टिकट तय हुए हैं। इंदौर की 9 सीटों में से एक भी टिकट सुमित्रा महाजन की पसंद से नहीं दिया गया। वे अपने बेटे मंदार महाजन और बहू स्नेहल महाजन में से किसी को भी टिकट नहीं दिलवा पाई हैं। उनके समर्थक गोपी नेमा, अंजू माखिजा भी दौड़ से बाहर रह गए। इंदौर की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि यह ताई की राजनीतिक विदाई का संकेत है। यही नहीं कैलाश ने अपने बेटे को टिकट दिलाने के साथ ही जीत दिलाकर अपनी पकड़ बरकरार रखी है। कैलाश का दो सीटों पर कब्जा इंदौर में इस बार कैलाश विजयवर्गीय ने अपनी पकड़ और मजबूत कर ली है। रमेश मेंदोला और आकाश की जीत से इंदौर लोकसभा की 8 में से दो सीटों पर कैलाश का कब्जा हो गया है। लोकसभा चुनाव में महाजन को टिकट मिलता है तो उनकी हार- जीत में अहम रोल इन दो सीटों का होगा। कैलाश या मेंदोला क्या ताकत रखते हैं इसका ट्रेलर 2009 के चुनाव हैं। जब महाजन के खिलाफ कैलाश के गढ़ में बगावत हो गयी थी, हालांकि वे चुनाव तो जीत गई थीं लेकिन ये किनारे वाली जीत थी। यही नहीं विधानसभा चुनाव न लड़कर विजयवर्गीय ने लोकसभा के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर दी है। - राजेश बोरकर
FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^