19-Nov-2018 09:26 AM
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सत्ता में वापसी के लिए वही गलती कर रहे हैं जो उनके पिता राजीव गांधी ने की थी। यही नहीं राहुल गांधी जो कर रहे हैं, वह सॉफ्ट हिंदुत्व का ओवर डोज है। इसका उन्हें कुछ तात्कालिक लाभ मिल सकता है लेकिन दीर्घकालिक राजनीति के लिए यह अच्छा नहीं है। उन्हें अपने पिता की गल्तियों से सबक लेना चाहिए। वे जिस तरह साफ्ट हिंदुत्व को सत्ता में वापसी का हथियार समझ रहे हैं वह कांग्रेस के लिए उलटा दांव न बन जाए। क्योंकि कांग्रेस की नीति और रीति ऐसी नहीं रही है। ऐसी ही कुछ गलती राजीव गांधी ने भी की थी।
दरअसल, राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस एक ऐसी पार्टी थी, जिसे देश के ज्यादातर धार्मिक और जातीय समूहों का समर्थन प्राप्त था। विपक्ष की भूमिका में कुनबों में बंटा पूर्व जनता परिवार और कम्युनिस्ट पार्टियां थीं। 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी के पास लोकसभा की सिर्फ दो सीटें थीं और अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता करने के लिए वह मुद्दों की तलाश में जुटी थी। ऐसे में बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दो बड़ी गलतियां कीं। ये दोनों गलतियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और इनकी वजह से देश की राजनीति हमेशा के लिए बदल गई।
राजीव ने पहली गलती बहुचर्चित शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटना था। शाहबानो मध्य-प्रदेश की रहने वाली एक बुजुर्ग मुस्लिम महिला थीं, जिन्हें उनके पति ने तीन तलाक दे दिया था। भरण पोषण के लिए मुआवजा मांग रही शाहबानो ने आखिरकार सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीत लिया। इसके बाद मुस्लिम कट्टरपंथियों ने शोर मचाना शुरू किया और अदालती फैसले को मजहबी मामलों में हस्तक्षेप बताया जाने लगा। राजीव गांधी के कुछ सलाहकारों ने उन्हें समझाया कि सरकार को मुसलमानों की भावना का आदर करना चाहिए। बस फिर क्या था, एक संविधान संशोधन लाकर कांग्रेस की सरकार ने अदालती फैसले को पलट दिया। लेकिन ऐसा करने से मामला सुलझने के बदले और उलझ गया। राजीव गांधी पर कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकने का इल्जाम लगने लगा और सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि को गहरी चोट पहुंची।
राजीव को लगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण के इल्जामों से पीछा छुड़ाना मुश्किल होता जा रहा है, तो उन्होंने एक दूसरा रास्ता निकाला और यह उनकी ज्यादा बड़ी भूल साबित हुई। लोहा, लोहे को काटता हैÓ वाले अंदाज में उन्होंने मुसलमानों के बाद हिंदुओं को रिझाने का फैसला किया। फैजाबाद के विवादास्पद बाबरी मस्जिद परिसर पर बरसों से ताला जड़ा था। आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों का कहना था कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था, इसलिए यह परिसर हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। राजीव गांधी ने विवादास्पद परिसर का ताला खुलवा दिया। इस फैसले ने दो सीटों वाली बीजेपी के लिए संजीवनी का काम किया। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने राम मंदिर का आंदोलन छेड़ दिया। सच पूछा जाए तो 1989 के चुनाव में कांग्रेस की हार के लिए बोफोर्स के साथ हिंदुवादी राजनीति का उभार भी जिम्मेदार था। राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने वी.पी. सिंह ने हिंदुत्ववादी राजनीति की काट निकालने के लिए रातो-रात मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। इसके बाद देश की राजनीति मंडल बनाम कमंडल की राह पर चल पड़ी और कांग्रेस दोबारा कभी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई।
अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने के लिए कांग्रेस का संघर्ष जारी है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी अब तक राष्ट्रीय नेता के रूप में वह स्वीकार्यता हासिल नहीं कर पाए हैं, जिसकी उम्मीद कांग्रेस को थी। ऐसे में राहुल ने अचानक एक ऐसा रास्ता अख्तियार कर लिया है, जो कई लोगों के लिए चौकाने वाला है। राहुल गांधी अब नीति, कार्यक्रम और गर्वनेंस के मुद्दे उठाने के साथ अपनी हिंदू पहचान भी जोर-शोर से उजागर कर रहे हैं। इसकी शुरुआत पिछले साल गुजरात के विधानसभा चुनाव से हुई थी। जब राहुल अनगिनत मंदिरों के चक्कर काटते और लगभग हर जनसभा में अगरबत्ती जलाते नजर आए। सिलसिला और आगे बढ़ा और वे हिंदुओं के सबसे दुर्गम तीर्थ कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर आए। कांग्रेस पार्टी ने जोर-शोर से दावा किया राहुल पूरी तरह कर्मकांडी हैं।
सबूत के तौर पर जनेउ वाली उनकी तस्वीरें भी जारी की गईं। बीजेपी के उलट राहुल हिंदू अस्मिता के किसी सवाल को आक्रामकता से नहीं उठा रहे हैं। राम मंदिर जैसे सवालों से भी बच रहे हैं। लेकिन तिलक से लेकर पूजा पाठ तक प्रतीकों के सहारे यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि वे एक आस्थावान हिंदू हैं।
यह सच है कि पिछले एक-डेढ़ साल में राहुल गांधी का राजनीतिक कद बढ़ा है। अलग-अलग सर्वे प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में हल्की गिरावट की तरफ इशारा कर रहे हैं। दूसरी तरफ राहुल का ग्राफ तेजी से उपर चढ़ा है। बेशक लोकप्रियता के मामले में वे अब भी प्रधानमंत्री मोदी से पीछे हों लेकिन इतना साफ है कि अब उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता है। क्या इस लोकप्रियता के पीछे राहुल गांधी की नई छवि का भी योगदान है? इसका जवाब बीजेपी नेताओं की प्रतिक्रियाओं में छिपा है। पार्टी का आईटी सेल राहुल को नकली हिंदू साबित करने के लिए कैंपेन चला रहा है। हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ कह चुके हैं कि राहुल गांधी पूजा करते हैं तो लगता है कि नमाज पढ़ रहे हैं। बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा राहुल गांधी का गोत्र पूछ चुके हैं।
बीजेपी बेचैन बिना वजह नहीं है। यह सच बात है कि देश की आबादी का एक हिस्सा, भले ही वह बहुत बड़ा ना हो, नेहरू-गांधी परिवार का मुरीद रहा है। गांधी सरनेम के साथ अगर हिंदू आइडेंटिटी जुड़ती है तो इसका एक अलग असर होता है। बीजेपी हाल के दिनों में दलित और ओबीसी वोटरों की तरफ ज्यादा झुकी नजर आई है। इससे सवर्ण वोटरों का बड़ा तबका पार्टी से नाराज है। ऐसे में घोषित ब्राह्मणÓ के रूप में राहुल गांधी की सक्रियता यकीनन बीजेपी नेताओं की नींद उड़ाएगी। अब सवाल यह है कि अगर सॉफ्ट हिंदुत्व राहुल गांधी के पक्ष में काम कर रहा है, तो फिर इस रास्ते पर चलना गलती किस तरह मानी जा सकता है?
इसका उत्तर ज्यादा मुश्किल नहीं है। पहली बात यह कि धर्म बीजेपी का नेचुरल टर्फ है, वहां जाकर उससे टक्कर लेना और जीत पाना मुमकिन नहीं है। असली हिंदू और नकली हिंदू की बहस एक ऐसा एजेंडा है जो बीजेपी के लिए पूरी तरह मुफीद है। पार्टी की पूरी कोशिश इस बहस को आगे ले जाने की है। दूसरी तरफ राहुल गांधी अपनी हिंदूवादी पहचान कायम रखते हुए सरकार की आर्थिक नाकामी और कथित भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर उसे घेरना चाहते हैं। भारतीय राजनीति का इतिहास यह बताता है कि धर्म का सवाल जब भी बड़ा होता है, बाकी चीजें पीछे छूटने लगती हैं। ऐसे में राहुल गांधी धर्म की पिच पर आकर अपने पॉलिटिकल स्ट्रोक भला किस तरह खेल पाएंगे? बीजेपी ने राम-मंदिर का सवाल राहुल की तरफ उछालना शुरू कर दिया है। मंदिर पर प्राइवेट मेंबर बिल लाने की तैयारी कर रहे बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा ने राहुल गांधी को चुनौती दी है कि अगर वे सच्चे हिंदू हैं तो इस बिल का समर्थन करके दिखायें। अब राहुल इसका क्या जवाब देंगे?
हार के बाद बदलाव
राहुल का राजनीतिक सफर 2004 के लोकसभा चुनाव के साथ शुरू हुआ था। उसके बाद से कांग्रेस पार्टी लगातार दो बार गठबंधन के सहारे सत्ता में आई और राहुल गांधी की हैसियत एक बेहद ताकतवर राजनेता की रही। उस दौरान राहुल गांधी ने कभी इस तरह अपनी हिंदू पहचान पर जोर नहीं दिया। 2014 के चुनाव में कांग्रेस का मुकाबला नरेंद्र मोदी से था, जिन्हें विकास चाहने वालों के अलावा कट्टर हिंदुवादियों का भी भरपूर समर्थन था। उस दौरान भी राहुल ने अपनी चुनावी रैलियों में हिंदू पहचान का सहारा नहीं लिया। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि राहुल गांधी घोषित हिंदूÓ हो गये। इसका जवाब 2014 के नतीजों में छिपा है।
- दिल्ली से रेणु आगाल