आखिर कहां छुप गया काला धन!
19-Nov-2018 08:55 AM 1234792
वह 8 नवंबर, 2016 की शाम थी। अचानक खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टेलीविजन पर राष्ट्र को संबोधित करेंगे। जबरदस्त कयास लगाए जाने लगे। अपने भाषण में कुछ ही देर बाद मोदी ने मध्यरात्रि से 500 और 1,000 रुपए के नोटों को बंद करने के अपनी सरकार के ऐतिहासिक फैसले का ऐलान किया और इसके साथ ही उस वक्त चल रही हिंदुस्तान की 86 फीसदी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया गया। 29 अगस्त को जारी आरबीआइ की सालाना रिपोर्ट कहती है कि बंद किए गए 99.3 फीसदी नोट, जो कुल 15.3 लाख करोड़ रुपए मूल्य के थे, बैंकिंग व्यवस्था में लौट आए हैं। तो क्या जिस नोटबंदी को एनडीए सरकार काले धन पर अपना सबसे बड़ा हमला कहकर इतराती नहीं थक रही थी, वह अपने मकसद में नाकाम रही है? क्या लोगों और कारोबार ने फिजूल ही इतनी मुश्किलें झेलीं? जनता को हुई दुश्वारियों के अलावा नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था में भी चौतरफा उथल-पुथल मचा दी। 2017 के पहले चार महीनों में ही 15 लाख नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। यह जाहिर तौर पर नोटबंदी और निवेश में तेज गिरावट की वजह से हुआ, हालांकि कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि नौकरियों के भरोसेमंद आंकड़े अब भी मौजूद नहीं हैं। मगर कहे-सुने प्रमाण बताते हैं कि नौकरियां जरूर गईं क्योंकि नकदी पर निर्भर हजारों कारोबारों को बंद करना पड़ा और ठेका मजदूरों को वापस घर भेजना पड़ा। रियल एस्टेट प्रोजेक्ट ठप पड़ गए और मांग के गिरने से ट्रकों के ट्रक फल और सब्जियां मंडियों में पड़े-पड़े सड़ गए। इससे कीमतें नीचे आ गईं और चोट किसानों पर पड़ी। आरबीआइ के आंकड़ों ने बताया कि 23 दिसंबर, 2016 को खत्म हुए पखवाड़े में बैंक के कर्ज की वृद्धि दर गिरकर 5.1 फीसदी पर आ गई, जो 60 साल में इसका सबसे निचला स्तर था। वजह यह थी कि कारोबारों ने गिरती मांग की वजह से कर्ज या उधार लेने में कटौती कर दी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी को संगठित लूट और वैध तरीके से की गई डकैती करार दिया और भयावह आर्थिक नतीजों की चेतावनी दी थी। वाकई ऐसा हुआ भी। देश के जीडीपी में बढ़ोतरी अप्रैल-जून 2017 में मैन्यु फैक्चरिंग के गिरने से तीन साल के निचले स्तर 5.7 फीसदी पर आ गई। 2015-16 में जीडीपी या अर्थव्यवस्था का आकार 137 लाख करोड़ रुपए था। जीडीपी में एक प्रतिशत अंक की गिरावट का मतलब है 1.37 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक कामकाज से हाथ धो बैठना। हालांकि वृद्धि दर पर कई बातों का असर पड़ा हो सकता है, मसलन माल और सेवा कर (जीएसटी) का, जिसे नोटबंदी के आठ महीनों बाद अंजाम दिया गया। इसलिए अर्थव्यवस्था के सुस्त पडऩे के लिए सिर्फ नोटबंदी को जिम्मेदार ठहरा पाना मुश्किल है, पर हिंदुस्तान की आर्थिक वृद्धि में गिरावट का यह वाकई एक बड़ा कारण था। हाल में आई रिपोर्ट कहती हैं कि लघु और छोटे कारोबार अब भी नोटबंदी के असर और जीएसटी व्यवस्था की हिचकोले खाती शुरुआत से छटपटा रहे हैं। आरबीआइ के ताजातरीन आंकड़े (एक अखबार की आरटीआइ के जरिए हासिल) दिखाते हैं कि इन फर्म का लोन डिफॉल्ट मार्जिन पिछले साल के दौरान बढ़कर दोगुना हो गया—मार्च 2017 में 8,249 करोड़ रुपए से बढ़कर मार्च 2018 में 16,118 करोड़ रुपए। तो क्या 3 लाख करोड़ रुपए के कल्पित काले धन को स्वाहा करने की कोशिश में अर्थव्यवस्था ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है? घटक कहते हैं, मोटे तौर पर नकदी पर निर्भर अनौपचारिक क्षेत्र जीडीपी में 40 फीसदी का योगदान देता है और 80 फीसदी कार्यबल को काम मुहैया करता है। इसने शायद आजाद भारत में नीति की वजह से आई मंदी का सबसे बड़ा झटका झेला। मुश्किल वक्त आरबीआइ की 29 अगस्त की रिपोर्ट के मुताबिक, मुद्रा का चलन उसी रफ्तार और तरीके से बढ़ रहा है जैसा वह नोटबंदी के पहले के महीनों में था। जीडीपी के साथ नकदी का अनुपात बहुत थोड़ा-सा ही कम है और पकड़ी गई नकली मुद्रा की तादाद में कोई खास बदलाव नहीं आया है। इससे इस थ्योरी की हवा निकल जाती है कि नोटबंदी ने नकली मुद्रा के गोरखधंधे पर जबरदस्त चोट की है। 2017-18 में पकड़े गए नकली नोटों की तादाद तकरीबन उतनी ही है जितनी वह नोटबंदी के पहले थी। यह जैसे-जैसे साफ होता जा रहा था कि ज्यादातर बंद नोट व्यवस्था में लौट रहे हैं, सरकार ने नोटबंदी के नए मकसद समझाने शुरू कर दिए। इसके नकली नोटों के खिलाफ लड़ाई और आतंक के धन के स्रोतों पर लगाम कसने से लेकर अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने और डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने जैसे तमाम मकसद बताए गए। कर अनुपालन में बढ़ोतरी को अब नोटबंदी का सबसे बड़ा फायदा बताने की डींग हांकी जा रही है। - नवीन रघुवंशी
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