चुनावी लीला!
02-Nov-2018 08:07 AM 1234783
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने विजयदशमी पर अपने 84 मिनट के विशेष संबोधन में बहुत सारी बातों के साथ, ये भी कहा है कि सरकार कानून बनाए, कानून बनाकर मंदिर बनाए। इस मामले में हमारे संत जो भी कदम उठाएंगे हम उनके साथ हैं। अयोध्या में विवादित जमीन पर राम मंदिर बनाने का आंदोलन राजनीतिक था, धार्मिक नहींÓ, यह बात लालकृष्ण आडवाणी लिब्राहन जांच आयोग के सामने कह चुके हैं। खुद को सांस्कृतिक संगठन कहने वाले आरएसएस के सरसंघचालक का ताजा बयान भी पूरी तरह राजनीतिक है। सरकार वह पार्टी चला रही है जिसके नेताओं के लिए मोहन भागवत आधिकारिक तौर पर परम पूज्यÓ हैं, सरसंघचालक को इसी तरह संबोधित करने की परंपरा है। आरएसएस भाजपा का मातृ संगठन है इसलिए इसे एक मामूली बयान नहीं समझा जाना चाहिए। खेल की बारीकी को समझिए। भागवत ने कहा है कि हमारे संत जो कदम उठाएंगे हम उसके साथ हैं। ये संत कौन हैं? वे सभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्था विश्व हिंदू परिषद के संत-महंत हैं जिन्होंने चार अक्टूबर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलकर कहा है कि अध्यादेश लाकर मंदिर बनवाया जाए। मंदिर तो वहीं बनेगा और हर हाल में बनेगा, ऐसा भागवत पहले भी कई बार कह चुके हैं। मगर उनका ताजा बयान ऐसे समय आया है जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, यही नहीं 29 अक्टूबर से अयोध्या की विवादित जमीन के मालिकाना हक के मुकदमे की सुनवाई भी सुप्रीम कोर्ट में शुरू होने वाली है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले, संसद में अध्यादेश लाकर या विधेयक पास कराकर मंदिर बनाने की मोदी सरकार की किसी भी कोशिश पर कई नैतिक और राजनैतिक सवाल खड़े होंगे। सबसे पहला सवाल तो यही होगा कि क्या ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और संविधान की भावना के अनुरूप है? जमीन पर मालिकाना हक का विवाद और बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की आपराधिक साजिश, ये दो मुकदमे हैं जो अभी चल रहे हैं। उनके निपटारे से पहले संसद के रास्ते मंदिर बनाने की कोशिश देश की न्याय व्यवस्था का अपमान करने से कम नहीं होगी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा अपमान पहले भी हो चुका है, जब उसने तलाकशुदा मुसलमान औरतों को गुजारा भत्ते का हक दिया था तो राजीव गांधी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार ने 1986 में संसद के रास्ते ही सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक और प्रगतिशील फैसले को धो डाला। दूसरा सवाल निश्चित रूप से यह उठेगा कि किसी एक संप्रदाय के लिए उपासना स्थल बनाने का सरकार का कदम, देश के संविधान की मूल भावना के ठीक विपरीत है। भारत का संविधान सेक्युलर है और वह सभी नागरिकों को न्याय के मामले में बराबरी का हक देता है। एक दौर था जब बीजेपी कहती थी कि वह विकास के अपने ट्रैक रिकॉर्ड पर अगला चुनाव लड़ेगी, लेकिन आज उसके पास विकास के नाम पर दिखाने को शायद ही कुछ है। सांप्रदायिक धु्रवीकरण उसे सबसे आसान और कारगर समाधान दिख रहा है, और धु्रवीकरण के लिए राम मंदिर से अच्छा मुद्दा क्या हो सकता है। यह भी गौर करने की बात है कि महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, राजस्थान-हरियाणा में जाट असंतोष दिखता रहा है। एससी-एसटी एक्ट को लेकर पहले दलित-पिछड़े नाराज हुए, और अब बदलावों के बाद सवर्ण मोदी सरकार से नाराज हैं। जाति के आधार पर वोटरों के बंटने का नुकसान बीजेपी को ही सबसे अधिक होता है। मंडल का मुकाबला बीजेपी 1990 की तरह कमंडल से करती दिख रही है। संघ और बीजेपी को लगता है कि मंदिर के मुद्दे के जोर पकडऩे का मतलब होगा कि लोग जाति के हिसाब से नहीं, बल्कि हिंदू की तरह वोट डालेंगे तो बीजेपी को फायदा होगा। मजेदार बात ये भी है कि इसके लिए उसे मंदिर बनाना नहीं है, मंदिर बनाने की कोशिश करते हुए दिखना है, और सभी विरोधियों को हिंदुओं का दुश्मनÓ साबित करना सबसे आसान काम होगा। शायद सबसे बड़ा सवाल ये है कि मुसलमान या संविधान का मुद्दा कौन उठाएगा? मोहन भागवत साफ कह चुके हैं कि कोई भी पार्टी राम मंदिर का विरोध नहीं कर सकती। उनकी बात सही है, टेंपल रनÓ में मोदी को टक्कर दे रहे राहुल गांधी सॉफ्ट हिंदुत्व को पहले ही अपना चुके हैं, वे राम मंदिर के मुद्दे पर संघ और भाजपा से क्यों लड़ेंगे? बीजेपी अगर अयोध्या में मंदिर के लिए संसद में बिल या अध्यादेश ले आती है तो उसे ठोस राजनीतिक चुनौती मिलने की कोई खास संभावना नहीं है, और जो भी चुनौती मिलेगी वह बीजेपी के लिए ही टॉनिक का काम करेगी। बीजेपी इस बात को अच्छी तरह समझती है इसलिए संसद के शीतकालीन सत्र में अगर ऐसी कोई कोशिश होती है तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। बीजेपी आरएसएस की इस कोशिश को कानूनी चुनौती जरूर मिल सकती है, उसका परिणाम चाहे कुछ भी निकले, बीजेपी का प्रचार तंत्र इसी बात पर वोट मांगेगा कि हिंदुओं के देश में, भगवान राम जहां पैदा हुए थे वहां मंदिर बनाने में कितनी बाधाएं हैं, हिंदू अपने ही देश में कितना विवश है वगैरह। कुल मिलाकर यही दिख रहा है कि स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया के रास्ते होते हुए बीजेपी 1990 के उसी मोड़ पर पहुंच गई है जहां मंदिर वहीं बनाएंगेÓ की गूंज फिर सुनाई देने लगी है। संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने बड़ी ही चालाकी से राम मंदिर के विवादास्पद मुद्दे को चुनाव मैदान में उछाल दिया है। उन्होंने साफ लफ्जों में हिंदू संत समाज से इस मुद्दे को उठाने की अपील की है, भले ही इससे सुप्रीम कोर्ट के किसी आदेश या संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन होता हो। ये घटनाक्रम अब जरा भी हैरान नहीं करता। भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीतिक फिजा जिस तरह से खराब हो रही है, इस बात को ध्यान में रखते हुए सत्ता में वापसी के लिए भाजपा को हर दांव चलने की जरूरत है। साल 2014 में मिली कामयाबी को फिर से दोहरा पाने के आसार कम ही दिखाई देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ये संकेत दिया है कि राम मंदिर विवाद पर एक फैसला आने वाले वक्त में कभी भी आ सकता है। लेकिन ये दिखाई देता है कि मोहन भागवत इस फैसले का इंतजार नहीं करना चाहते। -इन्द्र कुमार
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