राम मंदिर... वोट का जुगाड़ तंत्र?
02-Nov-2018 06:41 AM 1234928
यह बड़ी आश्चर्यजनक विडंबना है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की राजनीति राम भरोसे हैं और रामजी अदालत के भरोसे। यह इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि जब भी चुनावी मौसम आता है अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मामला गरमा जाता है। 1528 में बाबर द्वारा की गई गलती का खामियाजा देश अभी तक भुगत रहा है। बाबर की बर्बरता देश की राजनीति के लिए ऐसा हथियार बन गई है कि चुनावी बिगुल बजते ही राम मंदिर निर्माण की हवा जोर से बहने लगती है। अगर यह कहा जाए कि भारत में राम मंदिर निर्माण वोट बैंक का जुगाड़ तंत्र बन गया है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश में एक बार फिर राम मंदिर निर्माण की चर्चा जोरों पर है। हालांकि 29 अक्टूबर से राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट में लगातार सुनवाई होने वाली थी, लेकिन मात्र 3 मिनट की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी तक मामला टाल दिया है। इससे देश की राजनीति एक फिर गरमा गई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विहीप के पूर्व अध्यक्ष प्रवीण तोगडिय़ा से लेकर साधु-संत तक मंदिर निर्माण की बात करने लगे हैं। पांच राज्यों के चुनाव पर प्रभाव अयोध्या भले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में स्थित न हो पर अयोध्या का राम मंदिरÓ इन चुनावों में बड़ा मुद्दा बनेगा। इन चुनावों की सफलता से राजनीतिक दलों को अंदाजा लगेगा कि राम मंदिरÓ के नाम पर राजनीति कितनी सफल होगी। 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले 5 राज्यों के चुनाव को सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। इन राज्यों में मिली जीत और हार से यूपीए और एनडीए का मनोबल बढ़ेगा और घटेगा। सहयोगी दलों की संख्या और गठबंधनों के सूत्र इन परिणामों से जुड़ेंगे और खुलेंगे। जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां की फिजा में राम मंदिर निर्माण की गूंज सुनाई देने लगी है। खासकर भाजपा के नेता राम मंदिर निर्माण पर जोर देने लगे हैं। वह इसलिए कि वे जानते हैं कि राम मंदिर मुद्दे को लोक सभा चुनाव में मुद्दा तभी बनाया जायेगा जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे का कोई लाभ मिलेगा। धर्म की राह पर सभी पार्टियां भारत की राजनीति में राम मंदिर निर्माण का मामला कितना महत्व रखता है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सभी पार्टियां धर्म की राह पर चल पड़ी हैं। खासकर भाजपा और कांग्रेस में तो धर्मवार छिड़ गया है। धर्म के नाम पर राजनीति अब दोनों ही पक्ष कर रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि भाजपा पर धर्म का कट्टरवाद हावी है तो कांग्रेस और सहयोगी दलों पर नर्म हिन्दुत्वÓ छाया हुआ है। देश में वैचारिक रूप से धर्म का विरोध करने वाले नेताओं और उनके दलों की संख्या शून्य के बराबर हो गई है। कांग्रेस तो हमेशा से की मध्यम मार्गी पार्टी थी, अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मानसरोवर जैसे तमाम मंदिर का भ्रमण दर्शन कर जता दिया कि वह नर्म हिन्दुत्वÓ की छाया में आगे चलेंगे। समाजवादी और अंबेडकरवादी विचारधारा के लोग भी लंबा तिलक लगा कर धर्म का चोला पहन चुके हैं। वामपंथी नेता तक लुके छिपे तौर पर पूजा-पाठ में यकीन करने लगे हैं खुल कर वह अब मंदिर का विरोध नहीं करते हैं। ऐसे में चुनाव की नजर से राममंदिर महत्वपूर्ण हो जाता है। कट्टर हिंदुत्व बनाम नर्म हिन्दुत्व के टकराव में राम मंदिर के खिलाफ कोई दल नहीं खड़ा होगा। राम मंदिर का जो विरोध 1992 में समाजवादी पार्टी ने किया था अब वह पहले जैसी हालत में नहीं है। इससे भाजपा को लाभ भी हो सकता है और नुकसान भी। राजनीति की प्रयोगशाला में राम मंदिर की हांडी एक बार फिर चढ़ेगी। इस हांडी में कितने चावल पके हैं यह 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिखेगा। उसके आधर पर ही लोकसभा चुनाव में राम मंदिर के मुद्दे को ले जाया जायेगा। संघ प्रमुख की सोची समझी रणनीति कहा जा रहा है कि विजयदशमी के दिन मंदिर निर्माण का मामला उठाकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लोकसभा चुनाव के लिए एक बड़ा मुद्दा भाजपा के पक्ष में उठा दिया है। यानी 1991 और 1996 के बाद 2019 में एक बार फिर चुनावी माहौल राम मय होने जा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने दो तिहाई बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाई थी, लेकिन मुद्दा सुशासन और विकास था। मस्जिद में नमाज पढ़े जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के बाद एक बार फिर रामधुन सुनाई देने लगी है। तो क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में विकास की जगह राम ही खेवनहार बनेंगे? दरअसल, राममंदिर अयोध्या में कब बनेगा, ये किसी को नहीं पता। लेकिन आने वाले लोकसभा चुनाव में भगवान राम जनता और सत्ता पर हावी रहेंगे। 1991 और 1996 के आम चुनाव में राममंदिर मुद्दा था। इसके बाद 1998, 1999, 2002, 2009 और 2014 में ये मुद्दा जोर नहीं पकड़ पाया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 2002 में दोनों पक्षों के बीच बातचीत के लिए अयोध्या विभाग का गठन, 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को खुदाई के निर्देश, 2009 में विवादित ढांचा विध्वंस के लिए गठित लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट आने और 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच द्वारा जजमेंट आने के बाद भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। 2004 में इंडिया शाइनिंग का नारा लगा और बीजेपी चुनाव हार गई। 2009 में फिर यूपीए की सरकार बनी, जिसके बाद तमाम घोटालों को सामने लाकर विपक्ष हावी हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 बीजेपी की दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार बनी। अब एक बार फिर चुनाव सामने है। लेकिन इस बार भले ही पीएम विकास की बात करें, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से चुनावी बयार में भगवान राम की एंट्री हो चुकी है। बीजेपी के नेता इस बात से खुश हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया और उनकी निगाहें आगे के फैसलों पर हैं। कोई भी राजनीतिक दल अयोध्या मसले पर सीधे नहीं आना चाह रहा है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करने की बात कर रहा है। लेकिन पीएम नरेंद्र मोदी की अपार सफलता के पीछे कहीं ना कहीं राम मंदिर निर्माण की उम्मीद भी लोगों ने जोड़ रखी है। विपक्ष जहां पेट्रोल की बढ़ती कीमतों जैसे मुद्दों से सियासी आग भड़काने की कोशिश करेगा, वहीं बीजेपी राम मय माहौल से एक बार फिर सियासी बिसात बिछाएगी, क्योंकि सरकार के सामने एससी-एसटी एक्ट जैसे मुद्दे भी मुंह बाए खड़े हैं। कानून लाने जा रही है? मोदी सरकार ने जब से एससी-एसटी एक्ट पर अध्यादेश लेकर आए और मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक पर अध्यादेश लेकर आए तब से जनता में एक आक्रोश बना हुआ है कि इन सब चीजों पर भारतीय जनता पार्टी अगर अध्यादेश ला सकती है तो राम मंदिर के निर्माण के लिए अध्यादेश क्यों नहीं ला सकती है राम मंदिर के लिए चौतरफा दबाव सरकार पर बनता जा रहा है और वो अपने ही पाले में फसती गई और राम मंदिर का मुद्दा कई सालों से चलता रहा है जनता ने यह भी कहा कि अब तो केंद्र में भी आप की सरकार है और राज्य में भी आप की सरकार अब किस बात की देरी है अब तो आपको राम मंदिर का निर्माण करा ही देना चाहिए क्योंकि जब-जब चुनाव आता है तब तक राम मंदिर को मुद्दा बना दिया जाता है और कहा जाता है कि जब हम सरकार में आएंगे तो राम मंदिर का निर्माण कराएंगे अब समय आ गया है अब केंद्र में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और राज में भी उसी की सरकार अब जनता कह रही है कि अगर अब राम मंदिर नहीं बना तो राम मंदिर कब बनेगा। यह भारतीय जनता पार्टी के अंदर से भी आवाज उठने लगी थी और आम जनता भी इसको समझ कर के आवाज उठाने लगी यह सब देख कर 2019 का चुनाव नजदीक होते हुए अब ऐसा लगता है कि शीतकालीन सत्र में भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार एक अध्यादेश लाएगी। आजादी के बाद से ही तनाव अयोध्या विवाद के इस तनाव के नए अध्याय का सूत्रपात 22-23 दिसंबर 1949 की रात को हुआ, जब विवादित राम जन्मभूमि पर बनी मस्जिद में रामलला की स्थापना की गई। हिंदुओं का कहना था कि रामलला यहां स्वयं प्रकट हुए और रामलला के प्राकट्य के साथ उन्होंने मस्जिद में ही रामलला की पूजा-अर्चना शुरू कर दी। जबकि मुस्लिमों का कहना था कि मस्जिद में रामलला को साजिशन स्थापित किया गया और हाजी फेकू आदि कुछ स्थानीय मुस्लिमों ने प्रशासन से रामलला की मूर्ति को मस्जिद से हटाने की मांग की। गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी 1950 को फैजाबाद की अदालत में एक अपील दायर कर रामलला की पूजा-अर्चना की विशेष इजाजत मांगी और वहां से मूर्ति हटाने पर न्यायिक रोक लगाए जाने की मांग की। पांच दिसंबर 1950 को राम चंद्रदास परमहंस भी आम हिंदुओं की ओर से रामलला के पूजन-दर्शन के अधिकार की मांग को लेकर सिविल कोर्ट पहुंचे। स्थानीय अदालत में करीब एक दशक तक यह विवाद रामलला की मूर्ति विवादित इमारत में बरकरार रखने और हटाने की मांग का सबब बना रहा। 17 दिसंबर 1959 को निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल हस्तांतरित करने के लिए मुकदमा दायर किया। ठीक दो वर्ष बाद ही विवाद में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी दस्तक दे दी। बाबरी मस्जिद पर मालिकाना हक के लिए 18 दिसंबर 1961 को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मुकदमा दायर किया। एक स्थानीय वकील उमेश पांडेय की याचिका को संज्ञान में लेते हुए एक फरवरी 1986 को जिला जज ने विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश सुनाया। यही नहीं जज ने इमारत के अंदर हिंदुओं को पूजा-पाठ की इजाजत भी दे दी। एक जुलाई 1989 को सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति देवकीनंदन अग्रवाल ने रामलला के सखा की हैसियत से अदालत में वाद दाखिल किया। इसके बाद का दौर मंदिर आंदोलन के नाम रहा। अदालती प्रक्रिया के समानांतर मंदिर को लेकर कारसेवा का क्रम चला और छह दिसंबर 1992 को लाखों की संख्या में एकत्र कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया। अदालती प्रक्रिया में आई तेजी अप्रैल 2002 से अदालती प्रक्रिया में तेजी आई और विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू की। साल 2003 के मार्च से अगस्त माह के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल के इर्द-गिर्द के भू-क्षेत्र में खुदाई कराई और दावा किया कि जिस भूमि पर मस्जिद बनी थी, उसके नीचे मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। कालांतर में मंदिर-मस्जिद विवाद के निर्णय में खुदाई से प्राप्त रिपोर्ट निर्णायक भी बनी। 30 सितंबर 2010 को हाईकोर्ट की तीन जजों की विशेष पीठ ने मंदिर-मस्जिद विवाद के संबंध में फैसला दिया। इसमें 120 गुणे 90 फीट की विवादित भूमि को निर्मोही अखाड़ा, रामलला एवं सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में बराबर बांटे जाने की बात कही गई। हाईकोर्ट का फैसला किसी पक्षकार को मंजूर नहीं हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में भले ही सभी पक्षों को संतुष्ट करने की कोशिश की पर यह फैसला किसी को मान्य नहीं हुआ और संबंधित पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। यही नहीं एक साल के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक भी लगा दी। 21 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने आपसी सहमति से मसले के हल का सुझाव दिया और जरूरत पडऩे पर मध्यस्थता की पेशकश भी की।
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