मुकदमों का बोझ
18-Oct-2018 09:06 AM 1234885
कुछ समय पहले नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) ने यह खुलासा किया था कि देश भर की निचली अदालतों में ढाई करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, जिन्हें निपटाने में वर्षों लग जाएंगे। यह चिंताजनक स्थिति है। एनजेडीजी की इस रिपोट में अदालतों में पिछले दस साल या उससे अधिक समय से लंबित मामलों का भी जिक्र किया गया है जिनकी संख्या बाईस लाख नब्बे हजार तीन सौ चौंसठ है। गौर करें, तो यह संख्या कुल लंबित मुकदमों का तकरीबन 8.29 फीसद है। रिपोट के मुताबिक दस साल या उससे अधिक समय से लंबित कुल मामलों में करीब छह लाख दीवानी और सोलह लाख से ज्यादा आपराधिक मुकदमे हैं। अगर राज्यवार आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा यानी नौ लाख तेईस हजार तीन सौ चौंसठ लंबित मुकदमों के साथ शीष पर है। इसी तरह बिहार में दो लाख सतहत्तर हजार सात सौ इक्यासी, महाराष्ट्र में दो लाख इकसठ हजार तीन सौ निन्यानवे, पश्चिम बंगाल में दो लाख इकतालीस हजार अ_ासी, ओडि़शा में एक लाख इक्यासी हजार दो सौ उन्नीस, गुजरात में एक लाख चौहत्तर हजार छह सौ छियानवे, राजस्थान में उनहत्तर हजार पांच सौ आठ, तमिलनाडु में बयालीस हजार एक सौ पच्चीस, कर्नाटक में तैंतीस हजार आठ सौ बावन और मध्यप्रदेश में पंद्रह हजार से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। यानी सभी राज्यों की अदालतों के सिर पर मुकदमों का बोझ एक जैसा है। उल्लेखनीय है कि न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने और न्याय वितरण प्रणाली में शामिल पक्षों तक सूचना पहुंचाने के लिए सर्वोच्च अदालत की ई-कमेटी ने नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड पोटर्ल की शुरुआत की थी, जिसके जरिए एक क्लिक पर देश भर के सभी राज्यों की जिला अदालतों में लंबित मामलों का डाटा उपलब्ध हो सका है। ऐसा नहीं है कि लंबित मुकदमों का यह आंकड़ा पहली बार सामने आया है। पहले भी इस तरह के आंकड़े सामने आ चुके हैं। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि इन लंबित मुकदमों को निपटाने की दिशा में कोई ठोस पहल होती नहीं दिख रही है। गौर करें तो इतनी बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों के कई कारण हैं। इनमें से एक प्रमुख कारण अदालतों में न्यायाधीशों के पदों का रिक्त होना है। अगर देश भर के उच्च न्यायालयों की ही बात करें तो न्यायाधीशों के तकरीबन चवालीस फीसदी पद खाली हैं। इसी तरह सर्वोच्च अदालत में भी न्यायाधीशों के कई पद रिक्त हैं। विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिए। लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या महज पंद्रह से बीस के आसपास है। गौरतलब है कि 2011 तक न्यायाधीशों के कुल अठारह हजार आठ सौ इकहत्तर पद सृजित थे। आज जब देश की जनसंख्या सवा अरब के पार पहुंच चुकी है तो उचित होगा कि उस अनुपात में न्यायाधीशों और अदालतों की संख्या में भी वृद्धि की जाए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार को ताकीद करना पड़ा था कि राज्य में चौदह हजार सत्ताईस अदालतों का गठन किया जाए। बेंच ने अदालतों के गठन की कार्यवाही का समय भी तीन माह मुकर्रर किया था। बता दें कि उसने यह आदेश एक याचिका पर दिया था, जिसमें महिलाओं पर हो रहे अपराधों की सुनवाई में न्यायाधीशों की कमी के कारण हो रही देरी और परेशानी की बात उठाई गई थी। लेकिन अभी तक अदालतों के गठन का लक्ष्य साधा नहीं जा सका है। कोर्ट में 3 करोड़ पेंडिंग मामले, गोगोई ने जजों की छुट्टियों पर लगाया बैन अदालत में लंबित पड़े मामलों को जल्द से जल्द निपटाने के लिए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने एक नया फॉर्मूला इजाद किया है। उन्होंने नो लीव प्लान बनाया है, इसके तहत जजों को वर्किंग डेज में छुट्टी नहीं मिलेगी। भारत के त्रिस्तरीय न्यायिक व्यवस्था में जरूरी मामलों के निपटारे के लिए उन्होंने यह प्लान बनाया है। 3 अक्टूबर को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के पद की शपथ लेने के बाद ही रंजन गोगोई ने इशारा कर दिया था कि लंबित मामलों के निपटान के लिए वो कुछ करेंगे। ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मिलाकर कुल 3 करोड़ मामले लंबित हैं। पदभार ग्रहण करने के एक सप्ताह के भीतर ही उन्होंने हर हाईकोर्ट के कॉलेजियम के सदस्यों से दो सीनियर जजों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बात की थी और लंबित मामलों के निपटारे के लिए कुछ सुझाव भी दिए थे। इन सुझावों के अलावा उन्होंने हाईकोर्ट के जज और सबऑर्डिनेट कोर्ट ज्श्ूडिशियल ऑफिसर को वर्किंग डेज में आपात स्थित को छोड़कर छुट्टी नहीं लेने को कहा है। - धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया
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