18-Oct-2018 09:02 AM
1235033
राजनीति में अपराधियों का प्रवेश न हो, इसके लिए सर्वोच्च अदालत ने विधायिका को ही सख्त कानून बनाने की हिदायत दी है। साथ ही, यह भी ताकीद की है कि राजनीतिक दल उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में मतदाताओं को सूचित करने के लिए दिशा निर्देश जारी करें। न्यायालय की मानें तो पृष्ठभूमि के बारे में घोषणा से चुनाव प्रक्रिया निष्पक्ष बनती है और चुनाव का अधिकार मजबूत होता है। गौरतलब है कि यह फैसला प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पांच न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने सुनाया है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि संविधान में अयोग्यता तय करने का अधिकार विधायिका को है। अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण को कैंसर की संज्ञा देते हुए यह भी कहा कि जब धन और बाहुबल की शक्ति सर्वोच्च हो जाती है तो देश में रोष उत्पन्न हो जाता है, इसलिए उचित होगा कि विधायिका इसका इलाज शीघ्र शुरू करे।
न्यायालय ने मौजूदा व्यवस्था पर तंज कसते हुए कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र में राजनीति का अपराधीकरण खतरनाक है और लोकतंत्र में नागरिक भ्रष्टाचार के प्रति मौन, असहाय, मूक-बधिर दर्शक बने रहने को मजबूर नहीं किए जा सकते। अब देखना दिलचस्प होगा कि विधायिका आपराधिक छवि वाले नेताओं को संसद और राजनीति से अलग रखने के लिए अदालत के निर्देशों का कितना पालन करती है। ऐसा नहीं है कि अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए पहली बार सियासी दलों को कहा है। याद होगा, पिछले महीने ही सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा था कि क्यों न आपराधिक मामला झेल रहे लोगों को उम्मीदवार बनाने वाले राजनीतिक दलों का पंजीकरण ही रद्द कर दिया जाए? गौरतलब है कि अदालत ने यह सख्त सवाल एक एनजीओ द्वारा राजनीति का अपराधीकरण रोकने की मांग वाली जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान उठाया था। इस याचिका में कहा गया था कि वर्ष 2014 में चौंतीस फीसदी से अधिक सांसद व विधायक दागी थे, इस कारण विधायिका चुप है।
ध्यान देना होगा कि इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह 2014 में नामांकन भरते समय आपराधिक मुकदमा लंबित होने की घोषणा करने वाले विधायकों और सांसदों के मुकदमों की स्थिति बताए। सर्वोच्च अदालत ने तब पूछा था कि इनमें से कितनों के मुकदमे सर्वोच्च अदालत के 10 मार्च, 2014 के आदेश के मुताबिक एक वर्ष के भीतर निपटाए गए और कितने मामलों में सजा हुई एवं कितने आरोपी बरी हुए। सर्वोच्च अदालत ने सरकार से यह भी जानना चाहा था कि 2014 से 2017 के बीच कितने वर्तमान और पूर्व विधायकों व सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हुए। इसके जवाब में केंद्र सरकार ने अ_ाईस राज्यों का ब्योरा दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश के सांसदों-विधायकों के खिलाफ सबसे ज्यादा मुकदमे लंबित हैं।
अगर चुनाव आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो 2014 में कुल एक हजार पांच सौ इक्यासी सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इनमें लोकसभा के एक सौ चौरासी और राज्यसभा के चवालीस सांसद शामिल थे। इनमें महाराष्ट्र के एक सौ साठ, उत्तर प्रदेश के एक सौ तियालीस, बिहार के एक सौ इकतालीस और पश्चिम बंगाल के एक सौ सात विधायकों पर मुकदमे लंबित थे। यहां ध्यान देना होगा कि चुनाव दर चुनाव दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। 2009 के आम चुनाव में एक सौ अ_ावन यानी तीस फीसदी माननीयों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। आम चुनाव 2014 के आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के मुकाबले इस बार दागियों की संख्या बढ़ गई। दूसरी ओर ऐसे जनप्रतिनिधियों की भी संख्या बढ़ी है जिन पर हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं।
सर्वोच्च अदालत ने दागियों पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी कहा था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जनप्रतिनिधियों को मंत्री पद न दिया जाए, क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने दो-टूक कहा था कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान के संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे। लेकिन विडंबना है कि अदालत की इस नसीहत का पालन नहीं हुआ। ऐसा इसलिए कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाय इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दी।
दरअसल, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। ऐसा इसलिए भी है कि संविधान के अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते समय उसमें कोई नई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती। जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लडऩे के अयोग्य नहीं माना गया है तो फिर अनुच्छेद 75(1) और 164(1), जो केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल के चयन से संबंधित हैं, के मामले में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के अधिकारों की व्याख्या करते हुए उसे अयोग्यता के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता। वैसे भी उचित है कि विधायिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। अगर ऐसा होगा तो फिर व्यवस्था बाधित होगी और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचेगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि कार्यपालिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंख बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखे। यहां ध्यान देना होगा कि दागी माननीयों को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार सख्त टिप्पणी कर चुकी है। लेकिन हर बार यही देखा गया कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आए। जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लडऩे पर रोक लगाई थी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह वितंडा खड़ा किया।
राजनीति के शुद्धिकरण की उम्मीद बढ़ी
बता दें कि सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की गई थी। शुरू में न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया था, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका दाखिल किए जाने पर 2006 में इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया गया। इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में राजनीतिकों और अतिविशिष्ट लोगों के खिलाफ लंबित मुकदमे एक साल के भीतर निपटाने का आदेश दिया था। दूसरे फैसले में उसने कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था जो दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता है। अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत के गठन को हरी झंडी दिखा दी है, ऐसे में राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गई है।
साल दर साल दागदार होती मध्यप्रदेश विधानसभा
मध्यप्रदेश की जमीन चुनावी रण के लिए तैयार हो चुकी है। चुनावों के समय सभी दलों के नेता लोगों के घरों पर दस्तक देते हैं। लेकिन नतीजों को आने के बाद उनके व्यक्तित्व का वो पक्ष सामने आता है जिनके दरवाजों पर आप दस्तक नहीं दे सकते हैं। एक तरफ सभी दलों के नेता अपराधमुक्त राजनीति का दावा करते हैं। लेकिन हकीकत बिल्कुल हटकर है। मध्यप्रदेश विधानसभा की तस्वीर भी देश की दूसरी विधानसभाओं से अलग नहीं है। 2013 में बीजेपी के 165 विधायकों में से 48 विधायकों ने अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मामलों की जानकारी दी थी। 2008 में 138 में से 29 विधायकों ने अपने ऊपर चल रहे मामलों के बारे में बताया था। जबकि 2013 में कांग्रेस के 58 विधायकों में से 22 ने आपराधिक मामलों की जानकारी दी थी। जबकि 2008 में कांग्रेस के 66 विधायकों में से 23 ने जानकारी दी थी। रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस, बीजेपी, और बीएसपी की तरफ से कुल 120 उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे जिनमें 77 को हार का सामना करना पड़ा। रिपोर्ट के मुताबिक 32 फीसदी यानी 73 विधायकों ने अपने बारे में आपराधिक मामलों की जानकारी दी थी जबकि 2008 में ये आंकड़ा 26 फीसदी या 58 विधायकों ने आपराधिक मामलों की जानकारी दी। रिपोर्ट से साफ जाहिर है कि मध्यप्रदेश की विधानसभा में 2008 की तुलना में आपराधिक रिकॉर्ड वाले माननीयों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। 2013 के चुनाव में 65 वो चेहरे हैं जिन्हें 2008 में भी जनता का आशीर्वाद था। उन 65 माननीयों में 20 विधायकों ने अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों की जानकारी दी थी।
-इन्द्र कुमार