जिद के शिकार
18-Oct-2018 07:39 AM 1235076
जंगल का राजा (गिर के एशियाई सिंह) गुजरात की राजशाहीÓ के सामने मजबूर है। बीते 16-17 दिनों के भीतर गिर राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले 23 सिंहों की मौत हो चुकी है। इस पर गुजरात उच्च न्यायालय से लेकर देश की शीर्ष अदालत तक सब फिक्रमंद हैं। मगर लोकशाही से सियासी सफर के जरिए उपजी गुजरात की राजशाहीÓ अब तक बेफिक्र है। और इस बेफिक्री में आशंका यह पैदा हो रही है कि कहीं शेरों की दुर्लभ प्रजातिÓ (एशियाई सिंह) जल्द ही विलुप्त प्रजातियोंÓ में शामिल न हो जाए। क्योंकि गुजरात के अलावा एशियाई सिंह पूरी दुनिया में कहीं और पाए नहीं जाते। एशियाई सिंहों के बारे में वन सेवा के पूर्व अधिकारी एचएस सिंह ने एक अध्ययन किया था। उनका यह अध्ययन करेंट साईंस नाम के जर्नल में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने बताया है कि 20वीं की शुरूआत में एशियाई शेरों की तादाद पूरी दुनिया में महज कुछ दर्जन ही हुआ करती थी। लेकिन 2015 तक इसमें चार गुणा तक इजाफा हुआ। संख्या बढ़कर 2015 में 523 तक पहुंच गई। इसके बावजूद शेरों की यह प्रजाति अब भी दुर्लभ मानी जाती है, जिस पर विलुप्त होने का खतरा अलग से मंडरा रहा है। खतरे का कारण ये है कि एशियाई सिंह इस समय एक क्षेत्र विशेष में सीमित हैं। ये मुख्य तौर पर गुजरात के पांच संरक्षित इलाकों में पाए जाते हैं। ये हैं- गिर राष्ट्रीय उद्यान, गिर अभयारण्य, पनिया अभयारण्य, मिटियाला अभयारण्य और गिरनार अभयारण्य। आपस में लगभग जुड़े इन पांचों संरक्षित क्षेत्रों का कुल दायरा 1,621 वर्ग किलोमीटर का है। जबकि जानकारों की मानें तो इतने क्षेत्रफल वाले जंगल में बमुश्किल सौ-डेढ़ सौ सिंह ही आराम से रह सकते हैं। फल-फूल सकते हैं। यानी इसका दूसरा मतलब यह भी है कि गुजरात के इन पांचों इलाकों में उनकी कुल क्षमता से लगभग तीन गुणा ज्यादा सिंहवंश रह रहा है। जानकार इस स्थिति को एक ही टोकनी में सभी अंडेÓ रखे जाने जैसी स्थिति मानते हैं। यही स्थिति शेरों के लिए खतरा बन रही है। पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण क्षेत्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक रवि चेल्लम कहते हैं, चूंकि सभी एशियाई सिंह एक ही जगह सीमित हैं इसलिए उनकी आबादी को कई स्वाभाविक खतरे पैदा हो रहे हैं, बने हुए हैं। जैसे कि जंगल की आग, विपरीत मौसम की भीषण परिस्थितियां (बाढ़-सूखा आदि) और उनमें जरूरी-गैरजरूरी आपसी संसर्ग से संक्रामक बीमारियां फैलने का डर। सवाल ये है कि इन जोखिमों को कैसे कम किया जा सकता है? सुरक्षा तंत्र कैसे विकसित किया जा सकता है? क्या हो सकता है?Ó चेल्लम के मुताबिक, इन सवालों का एक ही जवाब है- जितनी जल्दी हो इन शेरों को दूसरी उपयुक्त जगह स्थानांतरित किया जाए। यही एक तरीका है, जिससे शेरों की प्रजाति को संरक्षित और संवर्धित भी, किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को इस तरह तो बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए कि इस क्षेत्र में गुजरात की अब तक की उपलब्धियों को कम करके आंका जा रहा है। या कमतर किया जा रहा है।Ó खास बात ये है कि इसी तरह की दलीलों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी 15 अप्रैल 2013 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के लिए एक आदेश जारी किया था। इसमें अदालत ने कहा था, कुछ एशियाई शेरों को जितनी जल्दी हो गुजरात से उसके पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर वन्य जीव अभयारण्य भेजने का बंदोबस्त किया जाए।Ó अदालत ने आदेश पर अमल के लिए छह महीने का समय दिया था। लेकिन उसका पालन नहीं हो सका। अगर एशियाई शेरों को दूसरी जगह नहीं बसाया गया तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। पुनर्वास आखिर क्यों जरूरी है? एशियाई शेरों के पुनर्वास की योजना न तो नई है और न ही अवैज्ञानिक। इस योजना पर विभिन्न स्तरों पर 1990 के दशक से विचार चल रहा है। बल्कि विचार ही नहीं बाकायदा प्रयास भी किए जा रहे हैं। केंद्र और मध्य प्रदेश की सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर चुकी हैं। इस राशि से मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर के बारे में अध्ययन कराया गया। फिर जब इसे सभी स्तरों पर एशियाई सिंहों के लिए अनूकूल पाया गया तो अभयारण्य को उनकी बसाहट के तौर पर विकसित किया गया। इसके तहत अभयारण्य के दायरे में रहने वाले हजारों आदिवासी परिवारों को दूसरे स्थानों पर बसाया गया। शेरों के खाने-पीने के समुचित इंतजाम किए गए। अतिथि सिंहोंÓ की शिकारगाह का दायरा बढ़ाया गया। लेकिन इन अतिथियोंÓ के स्वागत की मध्य प्रदेश की तमन्ना अब तक पूरी नहीं हुई है। शेरों के पुनर्वास की जरूरत पर बल देने वाले कुछ और तथ्य भी हैं। जैसे- गिर में शेरों के अलावा 500 के लगभग तेंदुए हैं। इसलिए भी सिंहवंश के लिए जगह और कम पड़ रही है। यही कारण है कि लगभग 40 फीसदी शेर संरक्षित क्षेत्रों से निकलकर बाहर इंसानी बस्तियों के आसपास अक्सर घूमते पाए जाते हैं। -श्याम सिंह सिकरवार
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