17-Sep-2018 09:04 AM
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2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ संभावित महागठबंधन की एक ही कमजोरी है - आखिरकार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा कौन? मगर, अब इस कमजोरी को दूर करने का ताकतवर फॉर्मूला ढूंढ निकाला गया है। विपक्ष के एकजुट न हो पाने में सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है। कहने को तो खुद राहुल गांधी भी कई बार प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जता चुके हैं, लेकिन ममता और मायावती के नाम पर चर्चा शुरू होने के बाद से वो खुद को इस रेस से बाहर बताने लगे हैं। मगर, मालूम हुआ है कि ठीक ऐसा तो बिलकुल नहीं होने वाला।
विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर अपडेट ये है कि 2019 के चुनाव में कोई चेहरा नहीं होगा। ऐसे में सब अपने-अपने इलाके में सत्ताधारी बीजेपी को चैलेंज करेंगे - और प्रधानमंत्री पद पर फैसला चुनाव नतीजे आने के बाद होगा। जाहिर है जिसके पास लाठी होगी भैंस भी उसी की होगी - यानी नंबर के हिसाब से फैसला होगा। ऐसा लगता है कांग्रेस को पक्का यकीन है कि नंबर उसी का ज्यादा होगा। यही वजह है कि कांग्रेस उसी लिहाज से अपनी रणनीति तैयार कर रही है।
अब 2019 के लिए एनसीपी नेता शरद पवार का नाम सूत्रधार के तौर पर आगे आ रहा है। वैसे भी मोर्चा खड़ा करने की हालिया कोशिश शरद पवार ने ही शुरू की थी और उसी के तहत ममता बनर्जी का नाम आगे बढ़ाया था। हालांकि, अब बात ममता बनर्जी से काफी आगे बढ़ी हुई लगती है।
अब खबर है कि शरद पवार ही महागठबंधन के सूत्रधार होंगे। मुमकिन है ऐसा ममता बनर्जी और मायावती का नाम उछलने के बाद हुआ हो - और उसी के जवाब में कांग्रेस ने शरद पवार का नाम आगे बढ़ाकर दोनों को शह देने की कोशिश की हो। कांग्रेस नेतृत्व के शरद पवार पर इस भरोसे की वजह फिलहाल तो यही लगती है। ये शरद पवार ही रहे जिन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से हटकर नयी पार्टी बना ली - और यही शरद पवार हैं जो फिर से कांग्रेस के साथ करीब डेढ़ दशक से मजबूती से मैदान में डटे हुए हैं।
विपक्षी एकता को मजबूत करने में इन दिनों दो बुजुर्गों का बड़ा रोल देखने को मिल रहा है। एक हैं शरद पवार तो दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा। देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण का ही वो मौका रहा जब विपक्ष का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा बेंगलुरू में देखने को मिला था। दोनों बुजुर्गों की खासियत ये है कि वे प्रधानमंत्री पद के संभावित मौजूदा दावेदारों की राह में खतरा नहीं हैं। विपक्षी एकजुटता के लिए भला इससे बड़ा संबल क्या चाहिये? शरद पवार ने पिछले दिनों दो महत्वपूर्ण बातें कही थी। एक, चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नाम की घोषणा नहीं होगी। दो, चुनाव नतीजों के बाद सबसे बड़ी पार्टी इस मुद्दे पर फैसला लेगी। ध्यान से देखा जाये तो इस बयान में एक ही पार्टी उभर कर आती है - कांग्रेस।
राहुल से हुई मुलाकातों के बीच ही शरद पवार विपक्ष के कई नेताओं से मिले हैं जिनमें दो प्रमुख नाम हैं मायावती और देवगौड़ा। शरद पवार की सबसे बड़ी खासियत ये भी है कि सभी से उनकी सीधी बातचीत है। चाहे वो ममता बनर्जी हों या फिर एन. चंद्रबाबू नायडू। विपक्ष की ताजा तस्वीर तो कुछ ऐसी ही लग रही है कि 2019 में मोदी के मुकाबले शरद पवार मुख्य कर्ताधर्ता के रूप में नजर आएंगे, लेकिन वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं होंगे। विपक्षी दलों के बीच बड़ी भूमिका के लिए सबसे ज्यादा सीटें लाने की होड़ होगी तो सभी अपने-अपने स्तर पर प्रयास करेंगे। बीजेपी के बागी खेमे के नेताओं में से एक अरुण शौरी का फॉर्मूला भी तो कुछ-कुछ ऐसा ही रहा। अगर ऐसा वास्तव में हुआ तो निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
लोकसभा चुनाव के देखते हुए सबकी नजर बिहार पर लगी हैं। क्योंकि बिहार ही एक ऐसा राज्य है जहां गठबंधनों का स्वरूप अभी तक पूरी तरह साफ नहीं है। यहां गठबंधनों का स्वरूप क्या होगा, इसको तय करेंगे केन्द्र में रह रहे दो केन्द्रीय मंत्री- एक रामविलास पासवान और दूसरे उपेन्द्र कुशवाहा। दोनों अभी हैं तो एनडीए में लेकिन महागठबंधन इन्हें लपकने के लिए तैयार बैठी है। जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं इनके विचारों और व्यवहारों में परिवर्तन साफ तौर पर देखा जा सकता है। इनके बयान व्यवहार और गतिविधियों पर दोनों गठबंधनों की नजर है। रामविलास पासवान को तो वैसे भी मौसम वैज्ञानिक कहा जाता रहा है। एनडीए में बिहार की 40 सीटों को लेकर हाल ही में एक फार्मूला सामने आया था। हालांकि इसे बीजेपी समेत एनडीए के सभी घटक दलों ने ये कहते हुए खारिज कर दिया कि ये कोई औपचारिक फार्मूला नहीं है। इस फार्मूले में रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी को 2 सीटें तथा उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को 1 सीट पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा कम दी गई थी। इसको लेकर उपेन्द्र कुशवाहा ने कड़ा बयान दिया था और कहा था कि एनडीए में कुछ लोग ऐसे हैं जो नहीं चाहते हैं कि नरेन्द्र मोदी फिर से 2019 में प्रधानमंत्री बनें। साफ है कि वो इस फार्मूले से सहमत बिल्कुल भी नहीं हैं। पासवान भी एससी-एसटी एक्ट को लेकर अपनी राय जाहिर कर चुके हैं।
वैसे एनडीए में ये परिस्थिति जनता दल यू को एडजस्ट करने की वजह से हुई है। 2014 से पहले जनता दल यू बिहार में बीजेपी के बड़े भाई के रूप में 25 सीटों पर चुनाव लड़ती थी और बीजेपी 15 सीटों पर, लेकिन 2014 के बाद बीजेपी मजबूत तो हुई साथ-साथ उसके घटक दल भी मजबूती से उसके साथ खड़े दिखे। सफलता भी अच्छी मिली। जबकि जनता दल यू अकेले चुनाव लड़कर सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई। अब सवाल ये है कि जनता दल यू जब एनडीए में फिर से आ गई है तो उसे कितनी सीटें दी जाएं जिससे वो सम्मानजनक स्थिति में रहे। इसी उधेड़बुन में एनडीए की सभी पार्टियां जुटी हैं। जनता दल यू को एडजस्ट करने के लिए बीजेपी भी अपनी सीट कम करने के साथ-साथ अपने घटक दलों से भी सीट कम करने को कह सकती है।
- दिल्ली से रेणु आगाल