17-Sep-2018 07:34 AM
1234885
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां आज जातिगत आरक्षण के नाम पर लगातार आंदोलन हो रहे हैं। इस आंदोलन की आग में देश जल रहा है। आलम यह है कि राजनीतिक पार्टियों ने अपनी साख मजबूत करने के लिए इस आंदोलन में हमेशा घी डालने का काम किया है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि देश में जातियों की जंग शुरू हो गई है। इस जंग में एससी/एसटी एक्ट (एट्रोसिटी एक्ट) ने घी का काम किया है। इस एक्ट को लेकर इसी साल देश में दो बार बड़े आंदोलन हो चुके हैं। पहला आंदोलन दलित आंदोलन था जो दो अप्रैल को हुआ था और दूसरा आंदोलन 6 सितम्बर को हुआ। आज इस एक्ट के कारण देश दो धड़ों में बंट गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस जंग का जिम्मेदार कौन है?
पहले बात करते हैं इस साल हुए दोनों आंदोलनों की। तो ये आंदोलन एससी/एसटी एक्ट को लेकर हुआ। दरअसल 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग की बात करते हुए कई नियमों में बदलाव कर दिए। गिरफ्तारी से पहले प्रारंभिक जांच और अग्रिम जमानत जैसे नियमों के जरिये कानून के दुरुपयोग को रोकने के आदेश दिए। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ देश में एक तीखी प्रतिक्रिया हुई। एससी/एसटी समाज, इस समाज के तमाम नेता, देश की तमाम विपक्षी पार्टियों ने केंद्र सरकार पर हमला बोल दिया। खुद भाजपा के इस समाज के सांसदों, विधायकों और भाजपा की सहयोगी पार्टियों के नेताओं ने भी अपनी चिंता जाहिर करते हुए सरकार को गंभीर कदम उठाने को कहा। विपक्षी नेताओं का आरोप था कि सरकार ने कोर्ट में सही तरीके से पक्ष नहीं रखा, क्योंकि केंद्र सरकार एससी/एसटी विरोधी है। चौतरफा हमले से घबराई सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने आदेश पर फिर से विचार करने को कहा, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पलटने के लिये केंद्र सरकार संसद में बिल लेकर आई जो मानसून सत्र के दौरान दोनों सदन में सभी पार्टियों के सहयोग से पास हो गया।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध क्यों
अब सवाल ये उठता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से सभी राजनीतिक दल इतने बेचैन क्यों हो गए, जिसमें भाजपा भी शामिल है। सभी दलों ने एकजुटता दिखाते हुए क्यों संसद में बिल के जरिये कोर्ट के इस निर्णय को पलट दिया। दरअसल एससी/एसटी इस देश की जनसंख्या का लगभग 25 प्रतिशत हैं। देश में 84 लोकसभा सीटें एससी और 47 सीटें एसटी के लिए सुरक्षित हैं। यानी लोकसभा में कम से कम 131 सांसद इस वर्ग से ही होंगे। ऐसे में इस वर्ग का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए राजनीतिक पार्टियों ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध किया। इसके लिए संसद में बिल लाया गया।
अब संवर्ण बने परेशानी का सबब
एससी/एसटी के हितों की रक्षा को लेकर पार्टियों की इस सक्रियता से अब सवर्ण इन दोनों पार्टियों से नाराज हो गए हैं। सोशल मीडिया पर भाजपा सरकार के खिलाफ अभियान चलने लगा। 2019 में भाजपा को हराकर सबक सिखाने को लेकर सवर्ण कमर कसने लगा। सवर्णों के इस अप्रत्याशित अभियान से भाजपा असमंजस में पड़ गई। 28 अगस्त को दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने सभी मुख्यमंत्रियों को सवर्ण समाज से बात करके इसे सुलझाने की जिम्मेदारी दी। लेकिन 6 सितंबर को सवर्णों ने भारत बंद का आयोजन किया। उनकी मांग थी कि एससी/एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा जाए।
मध्यप्रदेश में इस आंदोलन का व्यापक असर देखने को मिला। आंदोलन के बाद भी सवर्ण समाज के लोग प्रदेश सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं की खिलाफत कर रहे हैं। अब सवर्ण संगठनों का विरोध सरकार और बीजेपी के लिए परेशानी का कारण बनता जा रहा है। सबसे ज्यादा विरोध मध्यप्रदेश में दिख रहा है, जहां, दो महीने के भीतर विधानसभा का चुनाव होना है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस वक्त राज्य भर का दौरा कर रहे हैं। लेकिन, उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बीजेपी नेता प्रभात झा, नरेंद्र सिंह तोमर जैसे कई दूसरे नेताओं को भी सवर्ण संगठनों की तरफ से घेरा जा रहा है। उनसे जवाब मांगा जा रहा है। लेकिन, बीजेपी के इन सवर्ण नेताओं के लिए उन्हें समझा पाना मुश्किल हो रहा है।
क्यों बढ़ता जा रहा है विवाद?
एट्रोसिटी एक्ट पर जारी इस विवाद की वजह क्या है और क्यों ये विवाद बढ़ता जा रहा है इसे समझने के लिए इसकी तह में जाना होगा। समाजशास्त्रियों की मानें तो आजादी से पहले और बाद में भी देश में दलितों की स्थिति अच्छी नहीं थी। जनसामान्य के बीच दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की प्रवृत्ति हावी थी, जिसके चलते अक्सर इस बात के आरोप लगते थे कि सामान्य वर्ग, दलित वर्ग का शोषण करता है। इस प्रवृत्ति को कमजोर करने के उद्देश्य से एट्रोसिटी एक्ट की नींव रखी गई।
क्यों शुरू हुआ वर्ग संघर्ष
दलित वर्ग इस एक्ट पर आई सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के खिलाफ था। दलित वर्ग का मानना था कि सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन इस अधिनियम को कमजोर करने की कोशिश है और इसमें संशोधन से उनका समानता का अधिकार खतरे में पड़ जाएगा। जबकि सामान्य वर्ग के लोग कोर्ट के फैसले को पूरी तरह सही मानते हैं और उनका कहना है कि पुराने नियम का दुरुपयोग होता है जो कि उनके समानता के अधिकार को खत्म करता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित समाज और उससे जुड़े संगठन सड़क पर उतर आए थे, जिसका परिणाम 6 अप्रैल 2018 को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के रूप में सामने आया था।
उद्देश्य से भटकी व्यवस्था
भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यवस्था उत्पत्ति काल में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली। आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी किया। उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के सामने आत्मदाह किये थे।
निर्णय से हटकर दिखी हकीकत,
परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हें आरक्षण की जरूरत ही नहीं है। पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं। कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएं कहां तक न्यायोचित है? कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं।
व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते
जारी है आरक्षण
इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है उसका रोना लेकर अगर हम आज भी रोते रहे तो देश कैसे आगे बढ़ेगा? वर्तमान में तो युवा देश उन सब बातों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ रहा है परन्तु ये आरक्षण भोगी लोग सिर्फ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जातियों के नाम पर देश को तोडऩे की बात करते है। इतिहास में ये हुआ और ये हुआ इस तरह की काल्पनिक बातों का हवाला देकर देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे है। धीरे-धीरे जातिवाद खत्म हो रहा है। परन्तु ये लोग उसे खत्म नहीं होने देंगे क्योंकि ये लोग जानते है कि अगर शोर ना मचाया तो कुछ पीढिय़ों के बाद आने वाली सन्तति भूल जायेगी कि जाति क्या होती है। परन्तु इन लोगों को डर है कि ये होने के बाद कही आरक्षण कि मलाई हाथ से ना निकाल जाए और जाति के नाम पर चलने वाले वोट बैंक बंद ना हो जाए। ऐसे लोग अपने खुद के उद्धार के लिए जातिवाद को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। इन्हें बिना परिश्रम के जाति प्रमाण पत्र के सहारे पद चाहिये। भले ही अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पाये क्योंकि योग्यता तो होती नहीं। फिर देश का नाश हो या सत्यानाश इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो सपाक्स तैयार नहीं होता
शांति का टापू कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में तो अधिकारी-कर्मचारी से लेकर पूरा समाज दो भागों में बंट गया है। एक अजाक्स तो दूसरा सपाक्स। अगर सरकार अजाक्स को गोद में नहीं बैठाती तो सपाक्स तैयार नहीं होता। अब पदोन्नति में आरक्षण को लेकर शुरू हुआ इनका आंदोलन एट्रोसिटी एक्ट से और बढ़ गया है। सपाक्स समाज संस्था ने साफ कर दिया है कि एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन हटाने तक संघर्ष जारी रहेगा। संस्था के संरक्षक हीरालाल त्रिवेदी ने तो प्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा तक कर डाली है। वही अजाक्स ने सवर्णों के भारत बंद के खिलाफ 23 सितंबर को भोपाल में बड़ी रैली करने का ऐलान कर दिया है।
एक्ट क्यों बना जी का जंजाल
एट्रोसिटी एक्ट यानी अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम जिसे आम बोलचाल में एससी-एसटी एक्ट भी कहते हैं। 1989 में जबसे इस अधिनियम की नींव रखी गई तबसे लेकर अब तक इस पर विवाद होते रहे हैं। जहां एक ओर सामान्य वर्ग के लोग इस अधिनियम को समानता के अधिकार के खिलाफ बताते हैं तो वहीं दूसरी ओर दलित वर्ग मानता है कि इसी अधिकार की वजह से वो समानता के अधिकार का इस्तेमाल कर पाते हैं। 1990 में जब ये अधिनियम देश भर में लागू हुआ उस वक्त भी इसका विरोध हुआ था। हालांकि, विरोध के बावजूद अधिनियम को उसके असल रूप में ही पूरे देश में लागू किया गया। लेकिन, 2017 में इस एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ये मुद्दा फिर से जेर-ए-बहस है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दलित वर्ग अधिनियम को कमजोर करने की कोशिश के रूप में देखता है, जबकि सामान्य वर्ग सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही मानते हुए दलील देता है कि अपने पुराने रूप में ये अधिनियम उनके समानता के अधिकार का हनन करता है। एट्रोसिटी एक्ट पर जारी ये बहस उस वक्त भयावह हो गई जब इस मुद्दे पर दोनों वर्गों का आपसी संघर्ष सड़क तक पहुंच गया। सबसे पहले उस वक्त इस संघर्ष का सबसे खौफनाक रूप देखने को मिला जब 6 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में भारत बंद बुलाया गया, जिसका सबसे ज्यादा असर मध्य प्रदेश में देखने को मिला।