अजातशत्रु अटल
04-Sep-2018 08:25 AM 1235151
अटल बिहारी वाजपेयी यानी भारतीय सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, राजनीति और देशभक्ति का एकाकार। तभी तो उनके देवलोक गमन पर सवा सौ करोड़ भारतीयों की आंखें भर आई... तभी तो इस देश का प्रधानमंत्री उनकी शव यात्रा में कई किलोमीटर पैदल चला... तभी तो सभी राजनीतिक दलों ने सामुहिक श्रद्धांजलि देने में कोई गुरेज नहीं किया। यानी अटल बिहारी वाजपेयी केवल एक नाम नहीं बल्कि इस देश की पहचान थे। सही मायने में वे अजातशत्रु थे। देश के सवा सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के अटल जीÓ यानी अटल बिहारी वाजपेयी हमारी इस राजनीति से कहीं ऊपर थे। मन, कर्म और वचन से राष्ट्रवाद का व्रत लेने वाले वे अकेले राजनेता थे। देश हो या विदेश अपनी पार्टी हो या विरोधी दल सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। सिर्फ बीसवीं सदी के ही नहीं वे इक्कीसवीं सदी के भी सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय वक्ता रहे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी वाजपेयी में भारत का भविष्य देखा था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि वे एक दिन भारत का नेतृत्व करेंगे। डॉ. राममोहर लोहिया उनके हिंदी प्रेम के प्रशंसक थे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उन्हें संसद में गुरुदेवÓ कह कर ही बुलाते थे। डॉ. मनमोहन सिंह ने न्यूक्लियर डील के दौरान 5 मार्च 2008 को संसद में उन्हें राजनीति का भीष्म पितामह कहा था। इस देश में ऐसे गिनती के लोग होंगे, जिन्हें जनसभा से लेकर लोकसभा तक लोग नि:शब्द होकर सुनते थे। ग्वालियर के शिंदे की छावनी से 25 दिसंबर 1924 को शुरू हुआ अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक सफर, पत्रकार संपादक, कवि, राजनेता, लोकप्रिय वक्ता से होता भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा था। उनकी यह यात्रा बेहद ही रोचक और अविस्मरणीय रही। तीन बार देश के प्रधानमंत्री बनने वाले अटल बिहारी वाजपेयी सही मायनों में पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। यानी अब तक बने प्रधानमंत्रियों से इतर न तो वे कभी कांग्रेस में रहे, न नहीं कांग्रेस के समर्थन से रहे। वो शुद्ध अर्थों में कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी थे। पंडित नेहरु के बाद वे अकेले ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने लगातार तीन जनादेशों के बाद प्रधानमंत्री का पद पाया। भारतीय राजनीति के इस सदाबहार नायक ने विज्ञान से एमए करने के बाद पत्रकारिता की और तीन समाचार पत्रों राष्ट्रधर्मÓ, पांचजन्यÓ और वीर अर्जुनÓ का संपादन भी किया। वाजपेयी जी देश के एक मात्र सांसद थे, जिन्होंने देश की छह अलग- अलग सीटों से चुनाव जीता था। हाजिर जवाब वाजपेयी पहले प्रधानमंत्री थे, जो प्रधानमंत्री बनने से पहले लंबे समय तक नेता विरोधी दल रहे। भारतीय राजनीति के विस्तृत कैनवास को अटल जी ने सूक्ष्मता और व्यापकता से समझा। वे उसके हर रंग को पहचानते थे। इसलिए प्रभावी रूप से उसे बिखेरते थे। वे ऐसे वक्ता थे जिनके पास इस देश के सवा सौ करोड़ श्रोताओं में से सबके लिए कुछ न कुछ मौलिक था। इसीलिए गए साठ वर्षों से देश उनकी ओर खींचता चला गया। अटल जी के शासनकाल में भारत दुनिया के उन ताकतवर देशों में शुमार हुआ, जिनका सभी लोहा मानने लगे। पोखरण में परमाणु विस्फोटों की श्रृंखला से हम दुनिया के सामने सीना तान सके। प्रधानमंत्री रहते उन्होंने भयÓ और भूखमुक्तÓ भारत का सपना देखा था। बतौर विदेशमंत्री उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हिंदी को गुंजाया था। अटल जी जीवन भर इस घटना को अपना सबसे सुखद क्षण मानते रहे। जिनेवा के उस अवसर को आज भी भारतीय कूटनीति की मिसाल कहा जाता है जब भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व करते हुए आतंकवाद के सवाल पर वाजपेयी जी ने पाकिस्तान को अलग- थलग कर दिया था। तब देश के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव थे। ये उनकी ही सोच थी जो संकीर्णताओं की दहलीज पारकर चमकती थी और सीधा विश्व चेतना को संबोधित करती थी कि मन हार कर मैदान नहीं जीते जाते। न मैदान जीतने से मन जीते जाते हैं। ये बात उन्होंने तब कही थी जब 14 साल बाद भारतीय टीम पाकिस्तान के ऐतिहासिक क्रिकेट दौरे पर गई थी। वे देश के चारों कोनों को जोडऩे वाली स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी अविस्मरणीय योजना के शिल्पी थे। नदियों के एकीकरण जैसे कालजयी स्वप्न के द्रष्टा थे। मानव के रूप में महामानव थे। असंभव की किताबों पर जय का चक्रवर्ती निनाद करने वाले मानवता के स्वयंसेवक थे। उनकी स्मृतियों को नमन। अटल जी को कोटि-कोटि नमन। पद से बड़ा कद राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता की शक्ति हासिल करना नहीं होता, बल्कि अपने व्यक्तिगत सामथ्र्य से उसका लोक समृद्धि का मूल मकसद हासिल करना होता है - अटल बिहारी वाजपेयी न सिर्फ इसकी मिसाल हैं, बल्कि बेमिसाल भी हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी शख्सियत ऐसी बनायी जो कभी प्रधानमंत्री पद की मोहताज नहीं रही। इस बात का एहसास वाजपेयी ने तब भी कराया जब पहली बार प्रधानमंत्री बने और बाद में भी - 2004 में एनडीए की चुनाव हार को भी वाजपेयी ने भारत की जीत बताया था। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक जिस किसी भी प्रधानमंत्री के मन की बात की बात पर गौर फरमाया जाये तो किसी न किसी बात पर आम राय यही बनती है - वाजपेयी जैसा कोई नहीं! और यही वजह है कि लंबे अरसे तक विपक्ष के नेता, अरसे तक के एकांतवास में भी रहे वाजपेयी देश की राजनीति के प्रसंग-पटल से कभी ओझल नहीं हुए - क्योंकि हर एक दौर में वाजपेयी का होना जरूरी होता है! राजनीति में एक खास मुकाम हासिल कर लेने के बाद से अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा ही उस ठीहे पर विराजमान रहे जहां से हर कोई उन्हें बराबर नजर आता। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके प्रति सिर्फ उनकी विचारधारा के लोगों की सम्माननीय भावना रही, बल्कि अलग नजरिये वालों ने भी वाजपेयी को कभी अलग नहीं समझा। कभी इतनी ऊंचाई मत देना बीजेपी से इतर भी कई नेता हर साल 25 दिसंबर को उनके जन्म दिन पर बधाई देने पहुंचा करते और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी उनमें शामिल है। ये सिलसिला तब शुरू हुआ जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे। वाजपेयी की सोच विशाल ही नहीं व्यापक रही और यही वजह थी कि उनकी बातों का बेजोड़ असर हुआ करता था। ऐसा ही एक वाकया मनमोहन सिंह के साथ भी हुआ। दुष्यंत कुमार की एक लाइन है - मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। कवि हृदय वाजपेयी ने तब मनमोहन सिंह को आलोचना का फर्क समझाया। हर आलोचना व्यक्तिगत नहीं होती और राजनीतिक आलोचना को दिल पर नहीं लेते। हां, दिमाग से कभी उतरने भी नहीं देना चाहिये। बात 1991 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने वाजपेयी को फोन किया और बताया कि बजट की उन्होंने इतनी सख्त आलोचना की है कि उनके वित्त मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह इस्तीफा देने के बारे में सोचने लगे हैं। वाजपेयी ने फौरन डॉक्टर मनमोहन सिंह से संपर्क किया और मुलाकात होने पर समझाया कि आलोचना को व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए। वाजयेपी ने समझाया कि बजट पर उन्होंने जो कुछ कहा वो एक राजनीतिक भाषण था। विरोध करने में हमेशा अटल रहे जब इंदिरा गांधी ने पेट्रोल और डीजल की कीमत में 80 फीसदी का इजाफा किया तो अटल बिहारी वाजपेयी ने विरोध का अनोखा रास्ता अख्तियार किया। 12 नवंबर 1973 को वाजपेयी बैलगाड़ी पर सवार होकर संसद भवन पहुंचे थे। वाजपेयी के साथ दो और लोग भी बैलगाड़ी पर बैठे हुए थे। वाजपेयी की पहल का सपोर्ट करते हुए कई नेता साइकिल से भी संसद पहुंचे थे। हालांकि, पेट्रोल बचाने का संदेश देने के लिए इंदिरा गांधी भी उन दिनों बग्घी से चलने लगी थीं। बैलगाड़ी से संसद पहुंचे पाकिस्तान से जंग में जीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा की संज्ञा दी थी तो, एक वही थे जो इंदिरा गांधी को माकूल जवाब देने का साहस रखते थे। संसद का ही एक वाकया है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वाजपेयी के बारे में कहा था कि वो हिटलर की तरह भाषण देते हैं और हाथ लहरा-लहरा कर अपनी बात रखते हैं। बाद में सेंस ऑफ ह्यूमर से भरपूर अटल बिहारी वाजपेयी की टिप्पणी थी, इंदिरा जी हाथ हिलाकर तो सभी भाषण देते हैं, क्या कभी आपने किसी को पैर हिलाकर भाषण देते हुए भी सुना है? यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू भी वाजपेयी के टैलेंट के कायल थे। भारत दौरे पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए नेहरू ने कहा था, इनसे मिलिये। ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। हमेशा मेरी आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूं। गठबंधन और राजधर्म दोनों जरूरी हैं! ये वाजपेयी ही रहे जिनमें ऐसी आत्मस्वीकारोक्ति की शक्ति रही, वरना अब तो बीजेपी में बीएस येदियुरप्पा जैसे नेता हैं जिन्हें पीछे से पुश करने पर हारी हुई बाजी को येन केन प्रकारेण पलटने की कोशिश कर डालते हैं। मिलीभगत भी ऐसी कि सरकार बनाने का न्योता भी हासिल कर लेते हैं और कुर्सी पर बैठ भी जाते हैं, जबकि पता होता है कि अदालती इंसाफ का डंडा पडऩे पर भाग खड़ा होना ही पड़ेगा। खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुल्लत ने अपनी किताब द वाजपेयी इयर्स में लिखा है कि 2002 के गुजरात दंगों को वाजपेयी अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी गलती मानते रहे। गुजरात दंगों को लेकर वाजपेयी कभी सहज नहीं रहे। वो चाहते थे कि इस मुद्दे पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफा दें। कहते हैं तब लालकृष्ण आडवाणी खुद मोदी के सपोर्ट में खड़े हो गये और गोवा के राष्ट्रीय सम्मेलन तक बीजेपी के कुछ बड़े नेता मोदी के बारे में वाजपेयी की राय बदलने में कामयाब हो गये। माना जाता है कि पार्टी और गठबंधन की हार को भारत की जीत बताने के पीछे भी वाजपेयी का आशय गुजरात की घटना से ही रहा। कालांतर में नीतीश कुमार के मोदी विरोध के पीछे कहीं न कहीं अंदर ही अंदर खुद के वाजपेयी जैसे होने का गुमान जरूर रहा होगा, लेकिन बाद की हरकतों ने बहुतों की धारणा बदल दी होगी। वाजपेयी जैसा बनना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। बड़े मन वाले वाजपेयी की एक कविता है कि -छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई बड़ा नहीं होता...... ये उनके शब्द नहीं, बल्कि उनका जीवन-दर्शन भी था। वाजपेयी के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज्जत थी। 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एकचित्र गायब है। किंगशुक नाग बताते हैं कि उन्होंने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था। उनके अधिकारियों ने ये सोचकर उस चित्र को वहां से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी खुश नहीं होंगे। वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था। फक्कड़ नेता वाजपेयी को सत्ता और सियासत बिल्कुल नहीं बदल सकी थी। वह फक्कड़ ही थे। इसका जिक्र किंगशुक नाग की किताब में भी है। घटना है कि एक बार जाने-माने पत्रकार एचके दुआ अपने स्कूटर से एक संवाददाता सम्मेलन को कवर करने प्रेस क्लब जा रहे थे जिसे अटल बिहारी वाजपेयी संबोधित करने जा रहे थे। उस जमाने में वो युवा रिपोर्टर हुआ करते थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी एक ऑटो को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। दुआ ने अपना स्कूटर धीमा करके वाजपेयी से ऑटो रोकने का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि उनकी कार खराब हो गई है। दुआ ने कहा कि आप चाहें तो मेरे स्कूटर के पीछे की सीट पर बैठकर प्रेस क्लब चल सकते हैं। वाजपेई दुआ के स्कूटर पर पीछे बैठकर उस संवाददाता सम्मेलन में पहुंचे जिसे वो खुद संबोधित करने वाले थे। विकास के युग दृष्टा वाजपेयी अच्छे वक्ता, राजनेता और कवि ही नहीं, बल्कि देश को विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले युग दृष्टा के रूप में याद किए जाएंगे। अच्छे प्रशासक और विकास को लेकर स्पष्ट दिशा उन्होंने दिखाई। खासतौर से बुनियादी ढांचे और आर्थिक क्षेत्र के साथ विदेश नीति में भी उनकी क्षमताओं का लोहा सब मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और वाजपेयी के करीबी रहे प्रशांत मिश्र के मुताबिक, हालांकि वाजपेयी की पैठ विदेशी मामलों में अधिक थी लेकिन अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्होंने सबसे ज्यादा काम आर्थिक और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में किया। वह कहते हैं, दूरसंचार के क्षेत्र और सड़क निर्माण में वाजपेयी के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। भारत में आजकल जो राजमार्गों का जाल बिछा हुआ देखते हैं उसके पीछे वाजपेयी की ही सोच है। प्रशांत मिश्र तो साफ कहते हैं कि शेरशाह सूरी के बाद उन्होंने ही भारत में सबसे अधिक सड़कें बनवाई हैं। तीन बार देश के प्रधानमंत्री बनने वाले अटल बिहारी वाजपेयी सही मायनों में पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। यानी अब तक बने प्रधानमंत्रियों से इतर न तो वे कभी कांग्रेस में रहे, न न ही कांग्रेस के समर्थन से रहे। वो शुद्ध अर्थों में कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी थे। अस्थि कलश यात्रा को लेकर रार भारतीय लोकतंत्र में राजनीति का नया गीत लिखने वाले वाजपेयी जी की अस्थि कलश यात्रा पर रार छिड़ गई है। भारत के जनमानस के पटल पर अमिट छाप छोडऩे वाले अटलजी का अंतिम दर्शन करने से वंचित रहे लोगों की संवेदना को देखते हुए भाजपा ने 29 राज्यों में अस्थि कलश यात्रा निकाली। लेकिन अस्थि कलश यात्रा के दौरान नेताओं की संवेदनहीनता और इस पर उनकी दो भतीजियों की रार देखकर जनता मायूस हुई है। अटल जी की भतीजी और भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुकीं करुणा शुक्ला इसे राजनीतिक प्रपंच मानती हैं। उनका कहना है कि अटलजी के नाम पर जो राजनीति हो रही है उससे वह व्यथित हैं। उनका कहना है कि पिछले 10 सालों से वाजपेयी को पूरे परिदृश्य से गायब कर दिया गया था। इस दौरान जो चुनाव हुए उनमें उनका नाम लेना तो दूर, पोस्टर बैनर में उनकी तस्वीर तक को जगह नहीं दी गई। श्रीमती शुक्ला का कहना है कि इस साल कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले हैं और भाजपा को अपनी नैया डूबती हुई दिखाई दे रही है तो अचानक उन्हें वाजपेयी तिनके का सहारा दिखने लगे हैं। नया रायपुर से लेकर विश्वविद्यालय का नाम अटल बिहारी वाजपेयी रखने का फैसला राज्य मंत्रिमंडल ने लिया है, वह बताएं कि इससे पहले 10 साल में कितनी बार उन्होंने अटल को याद किया। प्रदेश की जनता यह आडंबर समझती है। अटलजी की प्रतिमाएं लगाने का मकसद केवल वोट की राजनीति है। वह कहती हैं कि अटल के जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी तक से आत्मीय संबंध थे लेकिन आज भाजपा मानवीय संबंधों का सम्मान करना भूल चुकी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण लाल कृष्ण आडवाणी का पार्टी में हो रहा अपमान है। वहीं करुणा शुक्ला के बयान को गलत बताते हुए बाजपेयी जी की एक अन्य भतीजी कांति मिश्रा कहती हैं कि जन भावनाओं को देखते हुए अस्थि कलश यात्रा में क्या बुराई है। अगर करूणा को अटलजी से इतना लगाव है तो वे भाजपा छोड़कर क्यों गई? नेताओं की संवेदहीनता वाजपेयी जी की अस्थि कलश यात्रा के दौरान कई ऐसे दृश्य देखने को मिले जो नेताओं की संवेदनहीनता को दर्शाते हैं। जब अस्थि कलश यात्रा रायपुर पहुंची तो श्रद्धांजलि सभा के दौरान मंच पर मौजूद दो मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और अजय चंद्राकर ठहाके लगाते हुए दिखाई दिए। दोनों मंत्रियों को देखकर बगल में बैठे भाजपा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक असहज हुए और उन्हें डांट लगाई। इसके बाद दोनों मंत्री चुप हो गए। यह घटना उस समय घटित हुई जब अस्थि कलश यात्रा भाजपा कार्यालय एकात्म परिसर पहुंची थी। कार्यक्रम के दौरान अजय चंद्राकर ने राष्ट्रीय महासचिव सरोज पांडेय को मोबाइल पर डेंगू की बीमारी से संबंधित कुछ क्लिपिंग दिखाई। जिसके बाद दोनों मंत्री किसी बात को लेकर हंस पड़े। इसी दौरान चंद्राकर टेबल ठोककर ठहाके लगाने लगे जिसमें बृजमोहन ने भी उनका साथ दिया। दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अस्थि कलश यात्रा में सरकार के मंत्रियों और भाजपा के नेताओं की हंसी के ठहाके और ठिठोली करती हुईं कई तस्वीरें सामने आई हैं। सोशल मीडिया में वायरल हो रहीं इन असहज कृत्यों की शिकायत भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंच गई हैं। कुछ लोगों ने इन तस्वीरों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के ट्वीट एकाउंट से भी टैग कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी और पूर्व सांसद करुणा शुक्ला ने कहा कि इन दृश्यों को देखकर मैं बेहद दुखी और और व्यथित महसूस कर रही हूं। भाजपा उनको सम्मान देने का नाटक कर रही है। ऐसा केवल वोट बटोरने के लिए किया जा रहा है। भाजपा नेताओं से कहना चाहती हूं कि आप वाजपेयी जी का सम्मान नहीं कर सकते तो उनका अपमान तो मत करिए। यही नहीं मप्र में भी ऐेसे दृश्य देखने को मिले। आपको कश्मीर, हमें पाकिस्तान चाहिए वाजपेयी की विराट स्वीकार्यता का एक वाकया पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के शासनकाल से जुड़ा है। 27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में ओआईसी के जरिये प्रस्ताव रख कर जम्मू-कश्मीर के नाम पर भारत को घेरने की कोशिश की। अगर प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत के लिए मुश्किलें बढ़ जातीं। राव की तो वैसे भी चुनौतियों से घिरी सरकार रही और मुसीबतें कौन मोल ले। राव ने जिस टीम को जेनेवा भेजा उसमें खास तौर पर विपक्ष के नेता वाजपेयी को भेजा। टीम में तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, ई. अहमद, फारूक अब्दुल्ला और हामिद अंसारी थे तो जरूर लेकिन राव को ज्यादा भरोसा वाजपेयी पर ही था। बात देश की थी, सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति से बहुत ऊपर। वाजपेयी के राजनीतिक तौर पर दुरूस्त कूटनीतिक जाल में पाकिस्तान ऐसा उलझा कि बगलें झांकने लगा। पाकिस्तान को घेरते हुए अटल बिहारी वाजपेयी बोले, आपका कहना है कि कश्मीर के बगैर पाकिस्तान अधूरा है, तो हमारा मानना है कि पाकिस्तान के बगैर हिंदुस्तान अधूरा है, बोलिये, दुनिया में कौन पूरा है? पूरा तो केवल ब्रह्मा जी ही हैं, बाकी सबके सब अधूरे हैं। आपको पूरा कश्मीर चाहिए, तो हमें पूरा पाकिस्तान चाहिए, बोलिये क्या मंजूर है? खाने-बनाने का शौक, मिठाई के दीवाने वाजपेयी को खाना खाने और बनाने का बहुत शौक था। मिठाइयां उनकी कमजोरी थी। रबड़ी, खीर और मालपुए के वो बेहद शौकीन थे। आपातकाल के दौरान जब वो बेंगलुरु जेल में बंद थे तो वो आडवाणी, श्यामनंदन मिश्र और मधु दंडवते के लिए खुद खाना बनाते थे। उनके करीबी बताते हैं, जब वो प्रधानमंत्री थे तो सुबह नौ बजे से एक बजे तक उनसे मिलने वालों का तांता लगा करता था। आने वालों को रसगुल्ले और समोसे आदि परोसे जाते थे। परोसने वालों को खास निर्देश दिए जाते थे कि साहब के सामने समोसे और रसगुल्ले की प्लेट न रखी जाए। नीमच के पूर्व विधायक स्वर्गीय खुमानसिंह शिवाजी की भाषण शैली और उनके संघर्षों से प्रभावित होकर पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हें शिवाजी नाम दिया था। बाद में प्यार से कार्यकर्ता उन्हें शेर शिवाजी भी कहने लगे थे। हुआ यूं था कि कश्मीर आंदोलन के दौरान मंच पर खुमानसिंह चौहान भाषण दे रहे थे। उनकी भाषण शैली ठीक अटलबिहारी वाजपेयी जैसी थी। निराला, बच्चन फैज के मुरीद अटल बिहारी वाजपेयी के पसंदीदा कवि थे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और फैज अहमद फैज। शास्त्रीय संगीत भी उन्हें बेहद पसंद था। भीमसेन जोशी, अमजद अली खां और कुमार गंधर्व को सुनने का कोई मौका वह नहीं चूकते थे। सिनेमा के शौकीन तो लाल कृष्ण आडवाणी को भी माना जाता है, लेकिन इस मामले में भी वाजयेपी उनसे कहीं ज्यादा आगे खड़े नजर आते हैं। बकौल बीजेपी सांसद हेमा मालिनी, मालूम होता है कि वाजपेयी उनके कितने बड़े फैन रहे हैं। एक बार हेमा मालिनी ने जैसे तैसे जुगाड़ कर वाजपेयी से मुलाकात की। हेमा मालिनी जब मिलने पहुंचीं तो महसूस किया कि वाजपेयी उनसे बात करने से हिचकिचा रहे हैं। फिर हेमा मालिनी ने वहीं मौजूद एक महिला से पूछा - अटल जी ठीक से बात क्यों नहीं कर रहे? समता समरसता की अलख जगाने वाले साधक थे। वे एक ऐसे युग मनीषी थे, जिनके हाथों में काल के कपाल पर लिखने, मिटाने का अमरत्व था। पांच दशक के लंबे संसदीय जीवन में देश की राजनीति ने इस तपस्वी को सदैव पलकों पर बिठाए रखा। एक ऐसा तपस्वी जो आजीवन राग-अनुराग और लोभ-द्वेष से दूर राजनीति को मानव सेवा की प्रयोगशाला सिद्ध करने में लगा रहा। उनकी छवि में, हर शख्स की छवि है 93 साल के अटल बिहारी वाजपेयी के सम्पूर्ण जीवन पर यदि नजर डालें तो मिलता है कि दुनिया के हर व्यक्ति के लिए अटल बिहारी वाजपेयी का जीवन प्रेरणा लिए हुए है। उनके विषय में यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि यदि व्यक्ति इन्हें अपने से जोड़कर देखे तो इन्हें वो ठीक वैसा ही पाएगा, जैसा वो खुद है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसकी जैसी रुचि है, अटल जी उसके जीवन को उसी अंदाज में प्रभावित करेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी न सिर्फ एक उम्दा कवि, प्रचंड विरोधी और एक मुखर वक्ता हैं बल्कि उनके अन्दर एक फूडी का भी वास है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी खान-पान के बेहद शौकीन थे। बताया जाता है कि चाहे वो ग्वालियर के बहादुरा के लड्डू हों या फिर आगरा के राम बाबू के पराठे उनकी पसंदीदा चीजों की लिस्ट बड़ी लम्बी है। अटल जी के बारे में मशहूर है कि उन्हें मीठा बहुत पसंद है और वो उसे बड़े चाव के साथ खाते हैं। आपको बताते चलें कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी न सिर्फ खुद खाने पीने के शौकीन हैं बल्कि इनका शुमार एक कुशल मेहमान नवाज के रूप में भी होता है। यदि व्यक्ति प्रेमी है तो उसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी का वो रूप देखना चाहिए जिसको देखने के बाद उसे मिलेगा कि अटल बिहारी में एक उच्च कोटि का प्रेमी वास करता है। अटल जी का ये रूप व्यक्ति को ये बताएगा कि उनसे बड़ा रोमांटिक आज के समय में शायद ही कोई हो। बात 1940 की है तब अटल बिहारी वाजपेयी कॉलेज में थे और वहां उनकी मुलाकात राजकुमारी कौल से हुई। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कि मानें तो राजकुमारी और अटल शुरू-शुरू में दोस्त थे मगर ये दोस्ती कब प्यार में बदल गई अटल को पता ही नहीं चला। बताया जाता है कि अटल ने राजकुमारी को कई प्रेम पत्र लिखे। इन प्रेम पत्रों में जिस शैली का इस्तेमाल अटल बिहारी वाजपेयी ने किया वो ये बताने के लिए काफी है कि अटल एक बेहद रोमांटिक शख्सियत हैं। उपरोक्त जानकारी के बाद ये साफ हो गया है कि व्यक्ति जैसा है वो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी को अपने सांचे में डाल के देखें तो पाएगा कि वो ठीक वैसे ही थे जैसा वो खुद है। अंत में बस इतना ही कि भारत की राजनीति हमेशा इस ऐहसान के तले दबी रहेगी कि उस पर एक ऐसे नेता ने राजनीति की जिसे दुनिया ने अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में जाना। पंडित नेहरू भी थे अटल बिहारी वाजपेयी के कायल 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर से पहली बार लोकसभा सदस्य बनकर पहुंचे तो सदन में उनके भाषणों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बेहद प्रभावित किया। विदेश मामलों में वाजपेयी की जबर्दस्त पकड़ के पंडित नेहरू कायल हो गए। उस जमाने में वाजपेयी लोकसभा में सबसे पिछली बेंचों पर बैठते थे लेकिन इसके बावजूद पंडित नेहरू उनके भाषणों को खासा तवज्जो देते थे। इन स्टेट्समैन नेताओं के रिश्तों से जुड़े कुछ किस्सों का वरिष्ठ पत्रकार किंगशुक नाग ने अपनी किताब अटल बिहारी वाजपेयी- ए मैन फॉर ऑल सीजनÓ में जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि दरअसल एक बार जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारत की यात्रा पर आए तो पंडित नेहरू ने वाजपेयी से उनका विशिष्ट अंदाज में परिचय कराते हुए कहा, इनसे मिलिए। ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। मेरी हमेशा आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूं। इसी तरह यह भी कहा जाता है कि एक बार पंडित नेहरू ने किसी विदेशी अतिथि से अटल बिहारी वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में कराया। नाग ने अपनी किताब में 1977 की एक घटना का जिक्र किया है जिससे पता चलता है कि पंडित नेहरू के प्रति वाजपेयी के मन में कितना आदर था। उनके मुताबिक 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो जब कार्यभार संभालने के लिए साउथ ब्लॉक के अपने दफ्तर पहुंचे तो उन्होंने गौर किया कि वहां पर लगी पंडित नेहरू की तस्वीर गायब है। उन्होंने तुरंत अपने सेकेट्री से इस संबंध में पूछा। पता लगा कि कुछ अधिकारियों ने जानबूझकर वह तस्वीर वहां से हटा दी थी। वो शायद इसलिए क्योंकि पंडित नेहरू विरोधी दल के नेता थे। लेकिन वाजपेयी ने आदेश देते हुए कहा कि उस तस्वीर को फिर से वहीं लगा दिया जाए।
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