17-Sep-2018 06:25 AM
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छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के अलावा बाकी सभी पार्टियों का वजूद खतरे में है। दरअसल, यहां होने वाले विधानसभा चुनाव में कुल वोटों का 81 फीसदी तक हिस्सा इन्हीं दोनों पार्टियों के खाते में चला जाता है। दूसरी बात, इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों का वोटिंग प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यही वजह है कि राज्य में 18 वर्ष की सियासत में कोई भी राजनीतिक दल तीसरी ताकत बनकर नहीं उभर पाया है। राज्य में हर बार पांच राष्ट्रीय, करीब आधा दर्जन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ही दर्जनभर से अधिक गैरमान्यता प्राप्त पार्टियां भाग्य आजमाती हैं। इस बार पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जकांछ) व दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी प्रदेश में भाग्य आजमाएगी।
चुनाव प्रचार के दौरान कई सीटों पर त्रिकोणीय व बहुकोणीय मुकाबला नजर आता है, लेकिन ज्यादातर सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सीधी टक्कर होती है। बाकी पार्टियों के अधिकांश प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाते हैं। राष्ट्रीय दलों में भाजपा व कांग्रेस के बाद बसपा ही एकमात्र पार्टी है, जिसके विधायक हर बार सदन में रहते हैं। 2003 व 2008 में पार्टी के दो- दो विधायक चुने गए। 2013 में एक विधायक चुना गया। बसपा लगभग सभी 90 सीटों पर प्रत्याशी उतारती है, इसके बावजूद उसका असर सीमित है।
राज्य में चुनाव के दौरान सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहा है। इस बार के चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों की कोई बड़ी भूमिका नजर नहीं आ रही है। भाजपा के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी है। 15 साल से पार्टी शासन में है और चौथी पारी को लेकर एक संशय की स्थिति नजर आ रही है। कांग्रेस अंतरकलह का शिकार है। बसपा का जनाधार तीन चुनावों के दौरान कम हुआ है। ऐसे में अजीत जोगी की पार्टी तीसरे मोर्चे के रूप में उभरी है। वर्तमान में जोगी परिवार से तीन विधायक हैं। हालांकि अजीत जोगी की पत्नी रेणु जोगी कांग्रेस से विधायक हैं, लेकिन इस बार कांग्रेस से उन्हें टिकट मिलने की संभावना कम नजर आ रही है। ऐसे में हो सकता है कि वे जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के टिकट से चुनाव लड़ें। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जोगी की पार्टी इस साल चुनाव को कुछ हद तक प्रभावित कर सकती है। इसका ज्यादा असर कांग्रेस के वोट बैंक पर ही पड़ेगा। जोगी की पार्टी इस साल अस्तित्व में आई है। शुरूआत में कयास लगाए जा रहे थे कि यह नई पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों प्रमुख पार्टियों के वोट बैंक पर सेंध लगा सकती है, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते दिख रहे हैं पार्टी में आंतरिक कलह भी नजर आ रहा है। टिकट बंटवारे के विवाद के बाद संगठन के कई बड़े पदाधिकारी पार्टी छोड़ चुके हैं और पार्टी में अभी भी फूट जारी है।
राज्य में भाजपा और कांगे्रस इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों का वोटिंग प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यही वजह है कि राज्य में 18 वर्ष की सियासत में कोई भी राजनीतिक दल तीसरी ताकत बनकर नहीं उभर पाया है। राज्य में हर बार पांच राष्ट्रीय, करीब आधा दर्जन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ही दर्जनभर से अधिक गैरमान्यता प्राप्त पार्टियां भाग्य आजमाती हैं। इस बार पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जकांछ) व दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी प्रदेश में भाग्य आजमाएगी।
इस बार बसपा कांग्रेस के साथ गठबंधन की कोशिश कर रही थी, लेकिन अब गठबंधन के आसार नजर नहीं आते देख पार्टी ने राज्य की सभी 90 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। इससे पहले बसपा और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर चर्चा चल रही थी। इस चर्चा के कोई भी सार्थक परिणाम नहीं निकले। बसपा का वोट शेयर भी हर चुनाव के साथ राज्य में कम होता रहा है। साल 2003 में हुए चुनाव में बसपा के हाथ 2 सीटें लगी थीं। इसके बाद साल 2008 में भी बसपा दो सीटें जीतने में सफल रही, लेकिन साल 2013 में बसपा दो की जगह 1 सीट पर ही सिमट गई।
निर्दलीय पा जाते हैं पार्टियों से ज्यादा वोट
राजनीतिक दलों से ज्यादा वोट निर्दलीय पा जाते हैं। 2003 में सात फीसदी वोट निर्दलीयों के खाते में गए। 2008 में बढ़कर करीब साढ़े आठ फीसदी, लेकिन 2013 में यह आंकड़ा गिर कर पांच फीसदी रह गया। प्रत्याशियों की संख्या के लिहाज से देखा जाए तो इनके वोट प्रतिशत में भी कमी आई है। छत्तीसगढ़ व स्थानीय के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां भी अब तक के चुनावों में कोई खास असर नहीं डाल पाई हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोगंपा), छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) और छत्तीसगढ़ समाज पार्टी (छसपा) के कई प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं, लेकिन इनमें ज्यादातर की जमानत भी नहीं बच पाती है।
-रायपुर से टीपी सिंह के साथ संजय शुक्ला