04-Sep-2018 09:34 AM
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मप्र विधानसभा चुनावों में आदिवासियों का थोक वोट पार्टियों की जीत-हार तय करता है। अपने वर्ग की इस ताकत को भुनाने के लिए जयस लगातार कोशिश में जुटा हुआ है। जयस की सक्रियता दोनों पार्टियों को बेचैन कर रही है। डेढ़ साल पहले आदिवासियों के अधिकारों की मांग के साथ शुरू हुआ यह संगठन आज अबकी बार आदिवासी सरकारÓ के नारे के साथ 80 सीटों पर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहा है। जयसÓ द्वारा निकाली जा रही आदिवासी अधिकार संरक्षण यात्रा में उमड़ रही भीड़ इस बात का इशारा है कि बहुत ही कम समय में यह संगठन प्रदेश के आदिवासी समाज में अपनी छाप छोडऩे में कामयाब रहा है।
जयसÓ ने लम्बे समय से मध्य प्रदेश की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे आदिवासी समाज को स्वर देने का काम किया है। आज इस चुनौती को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां महसूस कर पा रही हैं। मध्य प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है। राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं, जहां पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है। 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा को 32 तथा कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं।
जयसÓ की विचारधारा आरएसएस की सोच के खिलाफ है। ये खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं और इन्हें आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी ऐतराज है। यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत संस्कृति के संरक्षण और उनके अधिकारों के नाम पर उन्हें अपने साथ जोडऩे में लगा है और इसके लिए आदिवासियों की परम्परागत पहचान, संस्कृति के संरक्षण व उनके अधिकारों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाता है। 2013 में डॉ. हीरा लाल अलावा द्वारा जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) का गठन किया गया था, जिसके बाद इसने बहुत तेजी से अपने प्रभाव को कायम किया है। पिछले साल हुए छात्रसंघ चुनावों में जयसÓ ने एबीवीपी और एनएसयूआई को बहुत पीछे छोड़ते हुए झाबुआ, बड़वानी और अलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल जिलों में 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी। आज पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों अलीराजपुर, धार, बड़वानी और रतलाम में जयसÓ की प्रभावी उपस्थिति है, जबकि यह क्षेत्र भाजपा और संघ परिवार का गढ़ माना जाता रहा है।
मध्य प्रदेश में आदिवासियों को कांग्रेस का परम्परागत वोटर माना जाता रहा है, लेकिन 2003 के बाद से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया, जब आदिवासियों के लिए आरक्षित 41 सीटों में से कांग्रेस को महज 2 सीटें ही हासिल हुई थीं, जबकि भाजपा ने 34 सीटों पर कब्जा जमा लिया था। 2003 के चुनाव में पहली बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी, जो कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का एक प्रमुख कारण बनी। वर्तमान में दोनों ही पार्टियों के पास कोई ऐसा आदिवासी नेता नहीं है, जिसका पूरे प्रदेश में जनाधार हो।
जमुना देवी के जाने के बाद से कांग्रेस में प्रभावी आदिवासी नेतृत्व नहीं उभर पाया है, पिछले चुनाव में कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे अपना असर दिखाने में नाकाम रहे, खुद कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में ही कांग्रेस सभी आरक्षित सीटें हार गई थी। वैसे भाजपा में फग्गन सिंह कुलस्ते, विजय शाह, ओमप्रकाश धुर्वे और रंजना बघेल जैसे नेता जरूर हैं, लेकिन उनका व्यापक प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। इधर, आदिवासी इलाकों में भाजपा नेताओं के लगातार विरोध की खबरें भी सामने आ रही हैं, जिसमें मोदी सरकार के पूर्व मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते और शिवराज सरकार में मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे शामिल हैं। ऐसे में जयसÓ की चुनौती ने भाजपा की बैचैनी
को बढ़ा दिया है और कांग्रेस भी सतर्क नजर आ रही है।
आदिवासी बहुल जिलों में जयसÓ के लगातार बढ़ रहे प्रभाव को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा दोनों के रणनीतिकार उलझन में हैं। स्थिति सुधारने के लिए भाजपा पूरा जोर लगा रही है। इसके लिए शिवराज सरकार ने 9 अगस्त यानि आदिवासी दिवस को आदिवासी सम्मान दिवस के रूप में मनाया, जिसके तहत आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम हुए। इस मौके पर धार में आयोजित एक कार्यक्रम में खुद मुख्यमंत्री ने कई सारे वादे किए, जिनमें राज्य के कुल बजट का 24 फीसदी आदिवासियों पर ही खर्च करने, आदिवासी समाज के लोगों पर छोटे-मोटे मामलों के केस वापस लेने, जिन आदिवासियों का दिसंबर 2006 से पहले तक वनभूमि पर कब्जा है, उन्हें वनाधिकार पट्टा देने, जनजातीय अधिकार सभा का गठन करने जैसी घोषणाएं शामिल हैं। इस दौरान उन्होंने जयसÓ पर निशाना साधते हुए कहा कि कुछ लोग भोले-भाले आदिवासियों को बहका रहे हैं, पर उनके बहकावे में आने की जरूरत नहीं है।
इधर कांग्रेस भी आदिवासियों को अपने खेमे में वापस लाने के लिए रणनीति बना रही है। इस बारे में कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को एक रिपोर्ट सौंपी है। जिसमें पार्टी से बीते चुनावों से दूर हुए इस वोट बैंक को वापस लाने के बारे में सुझाव दिए गए हैं। कांग्रेस का जोर आदिवासी सीटों पर वोटों के बंटवारे को रोकने पर है। इसके लिए वो छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लडऩा चाहती है। अगर कांग्रेस गोंडवाना पार्टी और जयसÓ को अपने साथ जोडऩे में कामयाब रही, तो इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। हालांकि यह आसान भी नहीं है।
कांग्रेस लम्बे समय से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौता करना चाहती है, लेकिन अभी तक बात बन नहीं पाई है, उल्टे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने शर्त रख दी है कि उनका समर्थन कांग्रेस को तभी मिलेगा जब उनका सीएम कैंडिडेट आदिवासी हो। कुल मिलाकर, कांग्रेस के लिए गठबंधन की राहें उतनी आसान भी नहीं है, जितना वो मानकर चल रही थी। आने वाले समय में मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का यह उभार नए समीकरणों को जन्म दे सकता है और इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पडऩा तय है। बस देखना बाकी है कि भाजपा व कांग्रेस में से इसका फायदा कौन उठता है या फिर इन दोनों को पीछे छोड़ते हुए सूबे की सियासत में कोई तीसरी धारा उभरती है। उधर, शिवराज अपने पुराने हथियार घोषणाओं को आजमा रहे हैं, तो वहीं कांग्रेस आदिवासी इलाकों में अपनी सक्रियता और गठबंधन के सहारे अपने पुराने वोटबैंक को वापस हासिल करना चाहती है। जयसÓ ने 29 जुलाई से आदिवासी अधिकार यात्रा शुरू की है, जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जुड़ भी रहे हैं। जाहिर है अब जयसÓ को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। आने वाले समय में अगर वे अपनी इस गति को बनाए रखने में कामयाब रहे, तो मध्य प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।
कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा जयसÓ के पदाधिकारियों को पार्टी में शामिल होने का ऑफर भी दिया जा चुका है, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया है। डॉ. हीरालाल अलावा ने साफ तौर पर कहा कि वे भाजपा में किसी भी कीमत पर शामिल नहीं होंगे, क्योंकि भाजपा धर्म-कर्म की राजनीति करती है, उनकी विचारधारा ही अलग है, वे आदिवासियों को उजाडऩे में लगे हैं।
-इन्द्र कुमार