निजाम बदला, इरादे नहीं
04-Sep-2018 09:10 AM 1234851
क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान अहमद खान नियाजी पाकिस्तान के नए कप्तान बन गए हैं। जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान में भले ही निजाम बदला है, लेकिन उसके इरादे नहीं बदले हैं। इसकी झलक इमरान खान के शपथ के बाद भी सामने आ गई। जब पाकिस्तान ने अफवाह फैलाई की भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पत्र लिखकर वार्ता करने को कहा है। ऐसे में भारत को पाकिस्तान से शांति की कोई खास उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि इमरान का सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ खतरनाक गठजोड़ है। सेना और आईएसआई की नीतियों से समूची दुनिया वाकिफ है। इन दोनों के साथ पाकिस्तान के मजहबी कट्टरपंथी मिले हुए हैं। सेना, आईएसआई और कट्टरपंथियों का गठजोड़ लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आई सरकारों के लिए हमेशा नुकसानदेह साबित होता आया है। पाकिस्तान की भारत नीति आर्मी हैडक्वार्टर से संचालित होगी? इमरान कट्टरपंथियों को नाराज नहीं कर पाएंगे। सेना से हाथ मिलाने का मतलब है इमरान सिर्फ चेहरा होंगे, हुकूमत सेना व मुल्लों की ही चलेगी। कहा जा रहा है कि इमरान खान का कट्टरपंथियों से गहरा नाता है। पिछले सालों में इस कदर सार्वजनिक रहा है कि उत्तर पश्चिम प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में उनकी प्रांतीय गठबंधन सरकार ने 2017 में हक्कानी मदरसे को 30 लाख डॉलर की मदद की थी। हक्कानी मदरसे को तालिबान की रीढ़ कहा जाता है। पूर्व तालिबान चीफ मुल्ला उमर समेत अन्य नेताओं ने यहीं से शिक्षा हासिल की थी। ये कट्टरपंथी पाकिस्तान में बैठकर भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। अब, इनके मजबूत होने की आशंका है। कश्मीर राग जनता ने धार्मिक कट्टरपन को नकारा है पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई पाकिस्तान तहरीके इंसाफ कट्टरपंथी नेताओं और संगठनों से दूर नहीं है। इमरान खान आतंकियों के प्रति नरम रुख रखते हैं, यह सभी जानते हैं। कश्मीर को लेकर भी उनका रुख अन्य पाकिस्तानी नेताओं जैसा ही है। इमरान ने पूरे चुनावी कैंपेन में काफी उग्र तरीके से कश्मीर का मुद्दा उठाया। उन्होंने चुनावी दौरों में कश्मीर में सेना की मौजूदगी पर सवाल उठाए। कश्मीर के युवाओं पर ज्यादती किए जाने के आरोप लगाए यानी वे पुराने नेताओं की तरह कश्मीर राग अलापते रहेंगे। इस्लामिक कल्याणकारी राज्य बनाने का वादा करने के कारण इमरान खान को तालिबान खान कहा जाता है। उनकी पार्टी को अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित घोषित उन आतंकियों का समर्थन प्राप्त है जो अलकायदा से जुड़े हैं। इमरान खान पाकिस्तान के तालिबान से भी सहानुभूति रखते हैं और उनको पख्तून नेता कहते हैं। इमरान चुनाव से पहले मौलाना फजलुर रहमान खलील से मिले थे। हरकत उल मुजाहिदीन संस्थापक फजलुर अमेरिकी आतंकी लिस्ट में शामिल है। मुत्तहिदा मजलिस के प्रमुख फजलुर रहमान तहरीके तालिबान पाकिस्तान से संबंध रखता है। मुत्तहिदा 6 कट्टरपंथी धड़ों से बना एक गुट है जो आतंकी गुटों का समर्थक है। 2013 के अमेरिकी ड्रोन हमले में तहरीके तालिबान पाकिस्तान का कमांडर वलीउर रहमान मारा गया था, तब इमरान ने उसे शांति समर्थक बताया था। जीत के बाद उन्होंने अपनी प्राथमिकता गिनाते हुए भारत का जिक्र जिस तरह सबसे बाद में किया उससे उनके इरादों के बारे में बहुत कुछ संकेत मिल जाते हैं। इमरान खान ने चुनाव जीतने के बाद अपने पहले भाषण में साफ कह दिया कि वे चीन को प्राथमिकता देंगे। इमरान खान भी सेना, आईएसआई और कठमुल्लों के शिकंजे से बाहर नहीं निकल पाएंगे। उन्हें इनके आदेशों पर ही चलना पड़ेगा। पाकिस्तान की यही नियति है। मजहब ने उसे इतना पंगु बना दिया है कि भूख, गरीबी, हिंसा, आतंक, गृहयुद्घ इस देश की स्थायी समस्याएं बन गए हैं। जब तक यह देश धर्म का दामन नहीं छोड़ेगा तब तक ऐसे ही हालात रहेंगे। चुनावों में चुन कर आए इमरान खान भी ऐसे हालात में सेना की कठपुतली बन कर रहेंगे तो कोई आश्चर्र्य नहीं। वे नारा चाहे नए पाकिस्तान का दें, लेकिन नीतियां उनकी भी वही पुरानी रहेंगी जो अब तक के शासकों की रही हैं। समस्याओं से निपटना इमरान के लिए बड़ी चुनौती पाकिस्तान में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, धार्मिक कट्टरता जैसे कई मुद्दे हैं जिनसे निपटना इमरान के लिए कड़ी चुनौती है। सेना उनकी सहयोगी बनी दिखती है लेकिन उसे जनता से जुड़े इन मुद्दों से कोई मतलब नहीं है। भारत के विरोध का मुद्दा सेना के लिए सर्वोपरि है। इमरान को सेना के मुताबिक चलना पड़ेगा। जहां तक पाकिस्तान की नई हुकूमत के साथ भारत पर असर का सवाल है, साफ है कि जब तक चुनी हुई सरकार पर सेना, आईएसआई और कट्टरपंथियों का गठजोड़ हावी रहेगा, तब तक भारत के लिए खतरनाक स्थिति रहेगी। तीनों की मिलीभगत से भारत के विभिन्न हिस्सों में सीमापार से घुसपैठ और आतंकी गतिविधियां जारी रहेंगी। जम्मू कश्मीर के बदतर हालात के लिए यही तीनों जिम्मेदार हैं। पाकिस्तान के 71 साल के इतिहास में आधे से भी कम समय चुनी हुई सरकारें रही हैं। ज्यादा समय वहां सेना ने सीधा शासन किया है। वहीं, भले ही वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार रही हो, फिर भी उसकी कार्यप्रणाली में सेना, खुफिया एजेंसी आईएसआई और कठमुल्लों का हस्तक्षेप रहा है। ये मिलकर न केवल पाकिस्तान को रौंदते रहे, पड़ोसी भारत के साथ दुश्मनी का नारा देकर अपना उल्लू साधते रहे हैं। -अक्स ब्यूरो
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