18-Aug-2018 09:22 AM
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देश में इस समय हाहाकार मचा हुआ है। क्योंकि बालिका गृह, बलात्कार गृह बन गए हैं। सरकारों को या तो कानों कान खबर नहीं हुई, या सरकारें सब जानते-बूझते भी गूंगी बहरी बन कर बैठी रही और बालिका गृह संचालकों पर विशेष अनुकंपा दिखाते हुए उन्हें अनुदान पर अनुदान देती रही। अनुदान पर चलने वाले बालिका आश्रय स्थलों में अस्मत का खेल इसी तरह चलता रहता अगर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) को इसकी भनक नहीं लगती। बिहार के मुजफ्फरपुर के एक बालिका गृह में रखी गई 44 में से 34 बच्चियों के साथ बलात्कार का मामला उजागर होते ही देश में हाहाकार मच गया। फिर क्या था आश्रय स्थलों में दैहिक शोषण का शिकार हो रही बालिकाओं ने हिम्मत दिखाई और उत्तरप्रदेश के देवरिया फिर भोपाल में अस्मत के खेल का पर्दाफाश हुआ।
इन मामलों के सामने आने के बाद सरकारी अनुदान पर चलने वाले बालिका गृहों की
ऐसी काली तस्वीर सामने आई जिससे मानवता कांप उठी।
नरक से कम नहीं
अब तक जितने मामले सामने आए हैं, उससे यह साफ हो गया है कि बालिका गृह नरक से कम नहीं हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में स्थित सरकारी बालिका गृह में असहाय लड़कियां जो नरक भुगत रही थीं, उसके ब्यौरे उजागर होने के साथ ही हर भारतीय नागरिक का सिर शर्म से झुकता जा रहा है। सबके मन में यही सवाल है कि इतनी बड़ी तादाद में, एक ही इमारत में रह रहीं लड़कियों के साथ, लंबे समय तक, चुपचाप, यौन हिंसा कैसे की जा सकती है? ये लड़कियां कुछ बोली क्यों नहीं? विरोध क्यों नहीं किया? एक साथ रहती थीं तो एक-दूसरे से हिम्मत नहीं जुटा पाईं? दरअसल इन बालिका गृहों में अगर कभी किसी लड़की ने विरोध की आवाज उठाई तो उसकी आवाज ही बंद कर
दी गई न शासन और न ही प्रशासन ने उसकी पुकार सुनी।
यही कारण है कि बरसों से यह सरकारी बालिका गृह नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए चलाया जाता रहा और निगरानी व निरीक्षण इसके लिए निरर्थक शब्द ही बने रहे। किसी भी स्तर पर कभी जरा सी भनक तक नहीं लगी कि छोटी-छोटी बच्चियों को वहां किस दुर्दशा से गुजरना पड़ रहा है। इसके संचालक ब्रजेश ठाकुर की ऊंची राजनीतिक पहुंच पूरे सरकारी तंत्र पर इस कदर हावी रही कि न केवल उसका बालिका गृह का टेंडर सुरक्षित रहा, बल्कि नए-नए ठेके भी उसे बेरोक-टोक मिलते रहे। शेल्टर होम चलाने वाले ब्रजेश ठाकुर के साथ पति चंदेश्वर वर्मा के संबंध होने के कारण बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है।
उत्तरप्रदेश के देवरिया के शेल्टर होम में भी दर्जनों लड़कियों के साथ दैहिक शोषण के मामले सामने आए हैं। इन शेल्टर होम में बलात्कार के बाद समाज ने जिनका बहिष्कार कर दिया, परिवार शर्मसार हो गया तो सबकी इज्जत बचाने के लिए और अपना मुंह छुपाने के लिए वे यहां आई। किसी बीमारी ने शरीर या दिमाग को अपंग बना दिया और घरवालों ने बोझ समझकर सड़क पर लाकर रख दिया तो पुलिस की मदद से यहां आई हैं और अगर मां-बाप की पसंद के खिलाफ प्यार कर लिया तो जान बचाने के लिए यहां आई हैं। यहां यानी उस जगह जिसे सरकार ने ऐसी बेघर और लाचार समझी जाने वाली औरतों और बच्चों की सुरक्षा और देखरेख के लिए बनाया। लेकिन वही उन्हें किसी फेंकी हुई चीज जैसा माना जाने लगा। जिसकी कोई कीमत नहीं, कोई इज्जत नहीं, कोई वजूद ही नहीं। हर बार की तरह
मामला उजागर होने के बाद सरकारें जागी हैं और राज्य के सभी शेल्टर होम की जांच हो रही है। इस जांच में कई तरह के चौकाने वाले मामले सामने आ रहे हैं। जिसे सुनकर ही आदमी सिहर जाता है।
लड़कों के नाम रजिस्टर्ड
सबसे हैरानी वाला मामला मप्र की राजधानी भोपाल में सामने आया है। भोपाल में मूक-बधिर लड़कियों से छेड़छाड़ और दुष्कर्म के मामले में गिरफ्तार छात्रावास संचालक अश्विनी शर्मा का सामाजिक न्याय विभाग में रसूख था। अश्विनी ने अयोध्या नगर में कृतार्थ के नाम से लड़कों का छात्रावास रजिस्टर्ड करवा रखा है, जबकि वह अवधपुरी में उसी नाम से लड़कियों का छात्रावास संचालित कर रहा था। इसके बावजूद उसे विभाग की तरफ से दो किस्तों में छह लाख रुपये से अधिक का अनुदान भी जारी किया गया था। सामाजिक न्याय विभाग में वर्ष 2016 में 50 हजार और वर्ष 2017 में 5 लाख 57 हजार 600 रुपये का उसका बिल भी पास किया गया। 2017 में एक अन्य छात्रावास में रहने वाले कुछ लड़कों ने अश्विनी के खिलाफ फीस के नाम पर अधिक रुपये वसूलने की शिकायत की थी। महिला एवं बाल विकास विभाग ने मामले की जांच की थी। अश्विनी ने कहा था कि उसे फंड नहीं मिल पा रहा है, इसलिए अधिक रुपये ले रहा है। इसके बाद विभाग ने अश्विनी के लिए फंड जारी कर दिया था।
अश्विनी शर्मा दो हॉस्टल संचालित कर रहा था। एक ब्वॉयज और दूसरा गल्र्स। ब्वायज गल्र्स हॉस्टल का नाम कृतार्थ रखा था, क्योंकि बेटा भी दिव्यांग है। यह आयोध्या बायपास स्थित राजीव नगर में है। दूसरा हॉस्टल क्रिस्टल आईडल सिटी में अनीता नाम से चला रहा था। यह गल्र्स हॉस्टल था। अश्विनी हर मिलने-जुलने वालों से कहता था कि उसका बेटा दिव्यांग है, इसलिए दिव्यांग बच्चों के लिए हॉस्टल खोले हैं। उनकी सेवा करने में जो सुख है, वह कहीं भी नहीं है।
सरकार हुई सख्त
मामला उजागर होने के बाद मप्र सरकार ने तेजी से इस दिशा में कदम बढ़ाया है। जहां मामले की जांच के लिए एसआईटी गठन किया गया है वहीं प्रदेश के सभी बालिका गृहों की जांच करानी शुरू कर दी है। इसके लिए सामाजिक न्याय विभाग ने सभी कलेक्टरों को एक प्रोफार्मा भेजा है जिसके आधार पर उसका निरीक्षण करना है। अभी तक अश्विनी शर्मा के खिलाफ पांच लड़कियों ने बलात्कार की शिकायत की है।
लेकिन सवाल उठता है कि आखिरकार सामाजिक न्याय विभाग अनुदान लेने वाले संस्थानों का निरीक्षण क्यों नहीं करता है। नियम है कि तीन साल बाद उस एनजीओ की पूरी पड़ताल की जाए, तभी आगे का टेंडर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल अधिकारियों की मिलीभगत से कागजी घोड़े दौड़ाकर अनुदान की रेवड़ी बांटी जा रही है। नियमानुसार बच्चों के लिए बनाए गए किसी भी होम का जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत पंजीकृत होना जरूरी है लेकिन ज्यादातर गृह पंजीकृत नहीं हैं। तो हल क्या है? बिहार और उत्तर प्रदेश के मामलों के बाद महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने सुझाव दिया है कि हर राज्य में एक बड़ी जगह होनी चाहिए जहां ऐसी औरतों और बच्चों को रखा जाए और जिसे सरकार चलाए। लेकिन एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट के मुताबिक यौन हिंसा सरकारी और गैर-सरकारी सभी तरह के शेल्टर होम्स में हो रही है। सरकारी मुलाजिम भी अगर इन होम्स में रहने वालों की कोई कीमत ना समझें तो उनमें और निजी या गैर-सरकारी होम्स को चलाने वालों में कोई फर्क नहीं है। दरअसल सवाल ये नहीं कि कैसी लड़कियां रहती हैं बालिका गृह में? बल्कि ये है कि कैसे लोग चलाते हैं ये बालिका गृह?
व्यवस्था की लापरवाही से यौन हिंसा
यह समझना मुश्किल है कि मदद के नाम पर लाचार बच्चियों को आश्रय स्थल में शरण देने वाले लोग कैसे समूची मानवीयता और संवेदना को ताक पर रख कर इस तरह के शोषण और अपराध को अंजाम देते हैं! किसी का जीवन बचाने के नाम पर उसके साथ खिलवाड़ और अपराध की ऐसी घटनाओं के सामने आने पर इन संगठनों और आश्रय स्थलों को कैसे देखा जाएगा? यह भी हकीकत है कि समाज कल्याण और गैर-सरकारी संगठन के नाम पर सरकार इस तरह के संगठनों को आर्थिक मदद तो मुहैया कराती है, लेकिन उनके काम पर नजर रखना जरूरी नहीं समझती है। इन घटनाओं के बाद केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि ऐसी और भी बहुत सारी जगहें निकलेंगी, हम सालों से इन आश्रय स्थलों को पैसा देते रहे, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया। सवाल है कि क्या सरकारी महकमों की ओर से ऐसी लापरवाही सालों से इसलिए चलती रही कि मुजफ्फरपुर, देवरिया या भोपाल जैसी जगहों के आश्रय स्थलों में शरण लेने वाली बच्चियां या महिलाएं बेहद लाचार या फिर कमजोर पृष्ठभूमि से आती हैं?
बच्चियों की सुरक्षा के बहाने करोड़ों की कमाई
मानवता को शर्मसार करने वाली मुजफ्फरपुर बालिका गृह की घटना कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। जब भी कभी इस तरह के बालिका गृह में जाने का मौका मिला है, वहां अजीब सा दमघोंटू वातावरण देखने को मिला है। हमेशा लड़कियों को डरी, सहमी, हिरणी सी भयभीत, परकटे पक्षी की तरह फडफड़ाते देखा है इन बालिका गृहों के अधिकतर संचालकों और कर्मचारियों के हाव-भाव भी फिल्मों में तीन नंबर के गुंडों जैसे होते है। संचालकों के इर्द-गिर्द रहने वाले लफंगे बालिका गृह की लड़कियों के साथ जिस तरह की अश्लील हरकतें करते हैं, उसे कोई व्यक्ति कुछ देर रहने के बाद ही अनुभव कर सकता है। इन बालिका गृहों में इन गुंडों के साथ कुछ पदों पर देवियां भी काम करती हैं जो इन दुष्कर्मों में चंद पैसों और अपनी जीविका के लिए सहायक बन कर स्त्री और मां के महान गौरव को शर्मसार करती है। एक पुरानी घटना है। एक बालिका गृह की गंूगी बच्ची इशारों में मूंछों पर संकेत देकर मुझे कुछ कहना चाहती थी। जब मैंने समझने की कोशिश की तो वहां काम करने वाली देवियों ने हमें समझा दिया कि यह शादी करना चाहती है। मैंने उसकी शादी कराने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर कर्तव्य की इतिश्री मान ली, लेकिन आज लग रहा है, हो सकता है, उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा हो। 42 बच्चियों में 29 बच्चियों के साथ इतने दिनों से बलात्कार, वेश्यावृति कराया जाना इससे इंकार करने वाली बच्चियों की पिटाई और उनके शरीर को जगह-जगह से जलाया जाता रहा है। किस समाज में हैं हम? यह पता किया जाना चाहिए कि ये लड़कियां कहां सप्लाई होती थीं। विधायक, मंत्री, अधिकारी और रसूख वाले लोगों के सहयोग के बिना यह जघन्य अपराध चल नहीं सकता। सरकारें बालिका गृह के नाम पर हर साल कई सौ करोड़ रुपए खर्च करती हैं। क्या सरकार कई सौ करोड़ खर्च कर छोटी-छोटी लड़कियों से वेश्यालय चलवा रही हैं। मैं थूकती हंू उन सभी बड़े लोगों पर जो इन मासूम बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाने में पशु से भी बदतर हो गए हंै। लानत है उन स्त्रियों पर जो इसमें सहायक हैं। ये राक्षस मासूम बच्चियों को सुरक्षा देने के नाम पर सिर्फ करोड़ों रुपए डकार नहीं रहे बल्कि उनके नाम पर पैसे खा रहे हैं और बच्चियों का शोषण भी कर रहे हैं।
रसूख के खेल ने सरकार की मंशा पर पानी फेरा
साल 1969 में भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग ने शॉर्ट स्टे होम बनाए ताकि ऐसी औरतों और बच्चों को उचित आश्रय मिल जाए और वो किसी गलत काम में न फंस जाएं। इसके बाद भी इस दिशा में कई योजनाएं बनीं, पर ज्यादातर योजना की तरह इनमें भी अच्छाइयों की बजाय खामियां हावी होने लगीं। इन संरक्षण गृहों में वो लड़कियां आती हैं जो घर से भागकर आई हैं, प्रेम विवाह करना चाहती हैं लेकिन अभी उनकी उम्र विवाह की नहीं हुई है और परिवार से उन्हें जान का खतरा है, या फिर तस्करों के चंगुल से बचकर आई हैं जहां किसी भी वजह से वो फंस गई थीं। इसके अलावा कुछ अपराधों में शामिल लड़कियों को भी पुलिस वाले इन संरक्षण गृहों में छोड़ जाते हैं जो बालिग नहीं होतीं। दरअसल, सरकार ने ऐसे आश्रय स्थलों को खुद चलाने की बजाय कुछ गैर सरकारी संस्थाओं के हवाले कर दिया और इन संस्थाओं को सरकार से पैसा मिलने लगा। पैसे का ये खेल इतना बड़ा है कि इस क्षेत्र में रसूखदार लोगों ने भी हाथ डाल दिया या यों कहें कि यहां से पैसा कमाकर लोग रसूखदार बनते गए। यही वजह रही कि यहां होने वाली अनियमितता अक्सर बाहर नहीं आने पाती, किसी न किसी स्तर पर उन्हें संभाल लिया जाता है।