18-Aug-2018 10:29 AM
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इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों में 4 करोड़ 94 लाख 42 हजार मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इन मतदाताओं को साधने के लिए राजनीतिक पार्टियां अपना-अपना दांव लगाने की तैयारी कर रही हैं। खासकर भाजपा, कांग्रेस जोरदार जमावट में जुटी हुई हैं। लेकिन बसपा और निर्दलीय उम्मीदवार कईयों का खेल बिगाड़ेंगे। अगर 2013 के चुनाव में मिले वोट के अनुसार, आकलन करें तो कह सकते हैं कि भाजपा और कांग्रेस को मिले 81 फीसदी वोट पर छोटी पार्टियों और निर्दलीयों का 19 फीसदी वोट भारी पड़ेगा। गौरतलब है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में 4 करोड़ 66 लाख 31 हजार 759 मतदाताओं में से 3 करोड़ 38 लाख 49 हजार 550 ने अपने मताधिकार का उपयोग किया था। जिसमें से भाजपा को 1,51,89,894 और कांग्रेस को 1,23,14,196 वोट मिले थे। वहीं निर्दलीय, नोटा सहित 63 दलों को 59,40,614 वोट मिले थे। ये वही वोट हैं जिसके कारण बसपा के 4 और 3 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे और करीब आधा सौकड़ा प्रत्याशियों को हार का सामना करना पड़ा। इसलिए भाजपा और कांग्रेस इस बार इस 19 फीसदी वोट को साधने की सबसे अधिक कवायद कर रही हैं।
भाजपा-कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के साथ ही बसपा, सपा और अन्य पार्टियों का प्रभाव प्रदेश की 137 सीटों के चुनाव को प्रभावित करेंगे। यानी इन सीटों पर भाजपा-कांग्रेस की जीत वोट कटवों के प्रभाव से तय होगी। इसीलिए इस बार कांग्रेस हर हाल में बसपा और सपा से गठबंधन की कवायद में जुटी हुई है।
चुनावों में छोटे दलों और निर्दलीयों की ताकत का आकलन बड़ी पार्टियां कम करती हैं। जबकि कई सीटों पर हार-जीत में इनका बड़ा महत्व होता है। लेकिन इस बार भाजपा और कांग्रेस इसका आकलन कर रही हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय, नोटा सहित 63 दलों को जो 59,40,614 वोट मिले थे। अगर इस वोट का आधा भी कांग्रेस की ओर डायवर्ट हो गया तो भाजपा का खेल बिगड़ जाएगा। गौरतलब है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 1,51,89,894 और कांग्रेस को 1,23,14,196 वोट मिले थे। 2013 के चुनाव के आधार पर बात करें तो भाजपा और कांग्रेस बीच 28,75,698 वोट का अंतर था। अगर इस बार कांग्रेस, बसपा और सपा का गठबंधन हो जाता है तो यह गणित गड़बड़ा सकता है।
प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी दिन-ब-दिन तेज हो रही है। प्रदेश की सियासत पर पकड़ रखने वाले प्रमुख दलों-भाजपा एवं कांग्रेस की टिकट पाने प्रत्येक चुनाव क्षेत्र से दर्जनों दावेदार एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। तो वहीं सत्तारूढ़ भाजपा के 50 से 60 फीसदी मौजूदा विधायकों की नींद टिकट कटने के अंदेशे से उड़ी हुई है। अपनी मौजूदा हैसियत बरकरार रखने बेचारे तरह-तरह के बहाने लेकर आकाओं के यहां हाजिरी लगा रहे हैं। उधर चुनावी तैयारियां भी जोर पकडऩे लगी हैं। छोटे से छोटे मसले पर राजनीतिक दल इस तरह हाय-तौबा मचाने लगे हैं मानो इसी के बूते उनकी चुनावी नैया पार होनी हो। लेकिन इस बार के चुनाव में भी निर्दलीय भले ही न जीते लेकिन कईयों की जीत का गणित बिगाड़ सकते हैं।
राजनीतिक दलों के लिए सबसे घातक वे निर्दलीय होते हैं जो पार्टी से टिकट न मिलने पर बागी हो जाते हैं। इनका मकसद स्वयं की जीत से परे, पार्टी को सबक सिखाना रहता है। इनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी मौजूदगी प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशियों की हार-जीत के गणित को गड़बड़ा संजीदा निर्दलियों की श्रेणी में पार्टियों के उन कद्दावर नेताओं को रखा जा सकता है, जो पार्टी टिकट के प्रबल दावेदार होते हुए भी अपनों की राजनीति के शिकार बन जाते हैं। अपना अस्तित्व बचाए रखने इनके लिए बतौर निर्दलीय अपनी ताकत दिखाना मजबूरी बन जाता है। इनका मकसद भी अपनी पार्टी के प्रत्याशी को ठिकाने लगाने का ही रहता है। ताकि पार्टी और आला नेता चयन में हुई भूल से सबक ले सकें। इसमें दो राय नहीं कि ऐसे निर्दलीय काफी हद तक अपने मकसद में कामयाब भी रहते हैं। कुछ चुनाव जीत जाते हैं, तो कुछ की अगले चुनाव में पार्टी-टिकट पक्की हो जाती है।
2013 में निर्दलीयों को मिला
5.3 प्रतिशत वोट
प्रदेश में निर्दलीय उम्मीदवार सबसे अधिक 1990 में मजबूत बनकर उभरे थे। 1990 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीयों को 12.22 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं 1985 में 10.66 प्रतिशत, 2003 में 7.71 प्रतिशत, 2008 में 8.04 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कुल 2583 प्रत्याशियों में 1092 निर्दलीय चुनाव मैदान में थे। भाजपा, कांग्रेस और बसपा के बाद निर्दलीय चौथे स्थान पर थे। उन्हें 18,20,224 वोट मिले जो कुल मतों का 5.3774 प्रतिशत है। यही नहीं सिवनी से दिनेश राय, सीहोर से सुदेश राय और थांदला से काल सिंह भाबर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव भी जीते थे। वहीं देवसर सीट पर बंशमणि प्रसाद वर्मा, मानपुर से ज्ञानवती सिंह, बड़वाह से सचिन बिरला, इंदौर-1 से कमलेश खंडेलवाल, महिदपुर से दिनेश जैन बोस और जावद से रमेश चंद अहीर दूसरे स्थान पर रहे।
2013 के विधानसभा चुनाव में 1092 उम्मीदवारों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था। उनमें से 624 को एक हजार से कम, 325 को एक हजार से अधिक, 60 को दो हजार से अधिक, 15 को तीन हजार से अधिक, 9 को 4 हजार से अधिक, 6 को पांच हजार से अधिक, पांच को 6 से 10 हजार के बीच, 5 को 12 से 15 हजार के बीच, आठ को 16 से 20 हजार के बीच, 9 को 21 हजार से 40 हजार के बीच और 7 को 41 हजार से लेकर 70 हजार के बीच वोट मिले।
वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीयों की संख्या 44 फीसदी से अधिक रही। कुल 3129 प्रत्याशियों में 1378 निर्दलीय चुनाव मैदान में थे। हालांकि इनमें 886 प्रत्याशियों का प्रदर्शन इतना खराब रहा कि बेचारे हजार वोटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर सके। जबकि 280 निर्दलीय हजार का आंकड़ा ही पार कर सके। 105 ने दो हजार, 36 ने तीन हजार, तो 20 ने चार हजार वोटों का आंकड़ा पार किया। इनके अलावा दर्जनभर निर्दलीय 5 हजार, नौ निर्दलीय 6 हजार, 4 निर्दलीय 7 हजार, तो 7 निर्दलीय 8 हजार से अधिक वोट पाने में कामयाब रहे।
इसी तरह 2 ने 9 हजार, 2 ने 10 हजार, एक ने 11 हजार, 2 ने 12 हजार, एक ने 13 हजार वोट हासिल किए। 14 हजार से अधिक वोट पाने वाले निर्दलीय की संख्या भी एक ही रही। जबकि 4 ने 15 हजार से अधिक वोट बटोरे। एक को 16 हजार, 2 को 18 हजार, एक को 19 हजार, एक को 21 हजार, तो 3 को 23 हजार तक वोट मिले। 25 से 29 हजार से अधिक वोट लेने वालों में पांच निर्दलीय शामिल हैं। इनमें एक को 25 हजार, एक को 26 हजार, एक को 28 हजार, तो 2 को 29 हजार से अधिक मत हासिल हुए। निर्दलियों में एक रतलाम सिटी से पारस दादा ऐसे भी थे जिन्होंने 62 हजार से अधिक मत हासिल कर जहां भाजपा को 31 हजार के भारी अंतर से शिकस्त दी, तो कांग्रेस (4465 मत) की जमानत जब्त करा दी। 2008 के विधानसभा चुनावों में 25 निर्दलीय ऐसे थे जिन्होंने करीब दो दर्जन चुनाव क्षेत्रों के नतीजों को प्रभावित किया। इनकी मौजूदगी का असर किसी एक राजनीतिक दल पर नहीं पड़ा। कमोवेश दोनों ही प्रमुख दलों- भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को इन्होंने बराबरी से प्रभावित किया। अर्थात् ये जिस दल से सम्बद्ध रहे उन दलों को 2013 के चुनावों में इन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल होगा।
बसपा तीसरी प्रभावी पार्टी
राज्य में बसपा तीसरी प्रभावशाली पार्टी है। लेकिन 2013 के चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत और वोट दोनों ही घटे हैं। बसपा को 2008 के चुनाव में 22 लाख 62119 वोट मिले थे, लेकिन 2013 चुनाव में उसके एक लाख 34160 वोट घट गए और उसे 21 लाख 27959 वोट मिले। प्राप्त वोटों के हिसाब से बसपा को 5.93 प्रतिशत और कुल मतों के हिसाब से 2.68 प्रतिशत का नुकसान हुआ। बसपा को पिछले चुनाव में 8.97 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 2013 में उसे 6.29 प्रतिशत मत हासिल हुए है। बसपा की सीटें भी सात से घटकर चार रह गई हैं। इसी तरह समाजवादी पार्टी के वोटों और हिस्सेदारी के प्रतिशत में भी गिरावट आई। वह 2008 में जीती एकमात्र सीट भी गंवा बैठी और 2013 में वह खाता तक नहीं खोल पाई। सपा को 2008 में पांच लाख 1324 वोट मिले थे, जो 2013 में करीब 20 प्रतिशत घटकर चार लाख 4846 रह गए। कुल मतों के हिसाब से उसे 2008 में 1.99 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे जबकि 2013 में कुल मतों में उसकी हिस्सेदारी 1.19 प्रतिशत ही रह गई। लेकिन दोनों पार्टियां भाजपा का गणित बिगाडऩे में कोई कोर-कसर नहीं छोडऩे वाली। ऐसे में अगर इनको कांग्रेस का साथ मिल गया तो भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है।
-रजनीकांत पारे