18-Aug-2018 10:17 AM
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अब तो लगने लगा है कि 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी मैदान में अकेला चेहरा होंगे - क्योंकि विपक्षी खेमे में पीएम कैंडिडेट पर फैसला चुनाव बाद ही हो पाएगा, ऐसा लगता है। ये ममता बनर्जी और मायावती के चेहरे पर राहुल गांधी की तरफ से कोई ऐतराज न होने की बात के बाद का डेवलपमेंट है। साथ ही, गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस के नाम से बिखर रहा विपक्ष अब एकजुट होकर प्रधानमंत्री मोदी को कड़ी चुनौती देने की तैयारी में लगता है - और सोनिया गांधी इसमें बड़े रोल में खड़ी हो गयी हैं। दरअसल, सोनिया गांधी ही ऐसी नेता हैं जिनकी बात टालना विपक्ष के किसी भी नेता के लिए मुश्किल हो रहा है।
अभी दो महीने भी नहीं हुए होंगे जब एक इंटरव्यू में एनसीपी नेता शरद पवार तीसरे मोर्चे को लेकर बेहद निराश नजर आये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ तीसरा मोर्चा खड़ा करने की हाल की कोशिशों में शरद पवार की बड़ी अहम भूमिका नजर आ रही थी। तीसरे मोर्चे को लेकर हुए एक सवाल पर शरद पवार का जवाब था, ईमानदारी से कहूं तो मैं महसूस करता हूं कि कोई महागठबंधन या तीसरा मोर्चा संभव नहीं है।
कांग्रेस छोड़ कर एनसीपी बनाने के बाद और फिर नये सिरे से गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी मोर्चा खड़ा करने में जुटे शरद पवार का ये बयान बीजेपी नेताओं का उत्साह बढ़ाने वाला साबित हो रहा था। बीजेपी नेता मान कर चलने लगे थे कि विपक्ष तो बिखरा हुआ है। मोदी के लिए चुनौती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यूपी को लेकर जरूर बीजेपी में चिंता की बात रही - और प्रधानमंत्री मोदी के करीब आधा दर्जन दौरे इस बात के सबूत हैं।
अब तो लगता है विपक्ष ने मोदी के खिलाफ 2019 के मैदान में चौके-छक्के की जगह एक-एक रन पर फोकस कर रहा है। सीधे-सीधे तो नहीं दिखेगा कि कोई एक चेहरा मोदी को टक्कर दे रहा है, लेकिन जमीन पर हर सूबे में और हर सीट पर खास रणनीति के साथ लड़ाई की तैयारी चल रही है। ये आइडिया बीजेपी के बागी नेता अरुण शौरी की ओर से सुझाया गया था जब ममता बनर्जी दिल्ली आकर विपक्षी नेताओं से तूफानी मुलाकात कर रही थीं। ये शरद पवार की ही वो कोशिश रही जिसमें ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार के रूप में उभर कर सामने आयीं - और आत्मविश्वास इस कदर लबालब हो गयीं कि कांग्रेस को अपने मोर्चे का न्योता दे दिया। हालांकि, कांग्रेस नेताओं ने तपाक से ममता का ऑफर ठुकरा दिया और राहुल गांधी के नाम पर अड़ा हुआ दिखा कर उनके दावों को सीधे-सीधे खारिज कर दिया था। अब जो खबरें आ रही हैं उनसे तो ऐसा लगता है शरद पवार का उस बयान में निराशा तो दिखावे की थी। असल में तो पर्दे के पीछे बन रही रणनीतियां रहीं जिनके पीछे सोनिया गांधी का दिमाग काम कर रहा था।
जिस तरह 2015 में प्रियंका गांधी ने यूपी में समाजवादी पार्टी से गठबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, सोनिया गांधी काफी कुछ वैसा ही कर रही हैं। माना जा रहा है कि जब भी राहुल गांधी कहीं फंसते हैं सोनिया की ओर से किसी नेता को सिर्फ एक कॉल सारी मुश्किलें आसान कर देती है। कर्नाटक इसकी मिसाल है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा राहुल गांधी से बात करने को तैयार नहीं थे। मायावती और गुलाम नबी आजाद की बातचीत और फिर सलाह के बाद सोनिया ने देवगौड़ा को फोन किया और बात बन गयी। यूपी में भी कुछ-कुछ ऐसा ही बताया जा रहा है। अखिलेश यादव के कांग्रेस के साथ गठबंधन से इंकार के बाद कांग्रेस नेता मायावती पर डोरे डाल रहे थे, लेकिन जब बात नहीं बनी तो सोनिया से बात करायी गयी। मायावती अब कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार लग रही हैं। वैसे मायावती का वो बयान भी अहम है कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही वो कांग्रेस के साथ गठबंधन के बारे में सोचेंगी। हालांकि, मायावती का ये बयान राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनावों के सिलसिले में देखा गया। सूत्रों के ही हवाले से ऐसी खबर भी है कि तीनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस बगैर किसी चेहरे के जंग लड़ेगी - जबकि सामने वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह जैसे दिग्गज बीजेपी की ओर से होंगे।
खबर ये भी है कि राहुल गांधी का अमेठी से चुनाव लडऩा तकरीबन तय है, लेकिन रायबरेली से कौन होगा अभी फाइनल नहीं है। जब अमित शाह पूरे लाव लश्कर के साथ रायबरेली पर धावा बोलने की तैयारी कर रहे थे तभी पूछे जाने पर सोनिया गांधी का कहना था कि उनके चुनाव लडऩे या न लडऩे के बारे में फैसला कांग्रेस पार्टी करेगी। अंतिम मुहर लगने तक रायबरेली से सोनिया और प्रियंका दोनों की ही उम्मीदवारी के कयास लगाये जाते रहेंगे। जिस तरह संसद में राहुल गांधी प्रधानमंत्री के गले मिले या गले पड़े थे, ऐसे एक्शन आगे भी देखने को मिल सकते हैं। असल में कांग्रेस की रणनीति है कि अगले आम चुनाव में जताना चाहते हैं कि कांग्रेस किसी से नफरत नहीं करती - न हिंदू से न मुसलमान से। खास बात ये है कि ये बातें महज भाषण का हिस्सा नहीं होंगी बल्कि राहुल गांधी के एक्शन में दिखेगी। यानी इस बार सिर्फ आस्तीन चढ़ाने और गुस्सा दिखाते राहुल गांधी नहीं बल्कि सरेराह फ्री-हग देते भी देखे जा सकते हैं।
2014 का चुनाव परिणाम कई मायनों में अप्रत्याशित था जिसके कई तरह के विश्लेषण किए जाते रहे हैं। उन सभी विश्लेषणों में भाजपा की जीत के दो कारण जरूर गिनाए जाते रहे हैं। पहला कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-2 सरकार की नाकामियां और दूसरा नरेंद्र मोदी की लहर। मोदी लहर सिर्फ लोकसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं रही बल्कि वह एक के बाद एक, कई राज्यों में भाजपा की सरकार बनाने में भी सफल रही। उसी का परिणाम है कि कई विश्लेषकों को लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बहुमत लाना बहुत ही आसान होगा। लेकिन क्या पिछले चुनावों में बीजेपी को मिले वोटों के विश्लेषण से भी ऐसा ही कुछ संकेत मिलता है?
नीचे के ग्राफ में 1952 से लेकर 2014 के चुनाव तक बीजेपी के मतों में हुए बदलाव को दिखाया गया है। 1980 में भाजपा के गठन से पहले वह जनसंघ या भारतीय जनसंघ हुआ करती थी। 1977 के चुनाव में भारतीय जनसंघ ने अन्य कई पार्टियों के साथ मिलकर जनता पार्टी के तौर पर चुनाव लड़ा था और 1980 में उसने चुनाव में हिस्सा नहीं लिया था। इसलिए ग्राफ में 1977, 1980 तथा 1984 के आंकड़े शून्य हैं।
1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ था और पहली बार वह 1984 का चुनाव लड़ी थी। 1984 से 1998 के चुनाव तक हर बार भाजपा के वोटों में पिछले चुनाव की तुलना में इजाफा हुआ। लेकिन 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की पहली सरकार बनने के बाद यह स्थिति उलट गई। इसके बाद के तीन चुनावों में भाजपा के मत प्रतिशत में लगातार गिरावट देखी गई। यहां तक कि 1999 में सत्ता में आने के बाद भी उसके वोट कम ही हुए थे। इसके अलावा 1952 से अभी तक हुए 16 लोकसभा चुनावों में सिर्फ चार बार ही पिछली बार के मुकाबले सतारूढ़ पार्टी के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है। और चारों मर्तबा ऐसा सिर्फ कांग्रेस के साथ ही हुआ है। भाजपा अभी तक कभी भी केंद्र में सत्ता में आने के बाद पिछली बार की तुलना में अपने मतों में इजाफा करने में सफल नहीं रही है।
संकटमोचक की भूमिका में रहेंगी सोनिया गांधी
ममता बनर्जी इस बार जब सोनिया गांधी से मिलने पहुंचीं तो वहां राहुल गांधी भी मौजूद थे। मुलाकात के बाद ममता के तेवर थोड़े बदले हुए लगे। ममता ने कहा कि वो प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं हैं। हालांकि, कुछ ही दिन पहले कांग्रेस की ओर से भी कहा गया था कि ममता या मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने पर उसे कोई दिक्कत नहीं है। ममता के मिजाज में ये बदलाव और शरद पवार के स्टैंड में परिवर्तन यूं ही नहीं है। इसमें खास तौर पर सोनिया गांधी का सीधा रोल माना जा रहा है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की कमजोरियों को दुरूस्त करने के लिए सोनिया खुद तो जुटी ही हैं, प्रियंका को भी राहुल के साथ जोड़ दिया है। फिलहाल राहुल की सबसे बड़ी सलाहकार प्रियंका गांधी ही हैं। बातचीत में कांग्रेस नेता कहते हैं, राहुल ने अपनी सियासी पारी के शुरुआती साल में जो गलतियां की वे राहुल की नहीं उनके सलाहकारों की थीं। इसका खामियाजा वो आज तक भर रहे हैं। इसलिए राहुल गांधी ने इस बार अपनी बहन को ही अपना प्रमुख सलाहकार बनाया है। वो सियासत को बहुत अच्छी तरह समझती तो हैं, लेकिन खुद को सियासत से दूर रखती हैं।
भाजपा के लिए 2019 की राह आसान नहीं है
चुनाव लोकतान्त्रिक प्रणाली का एक अहम हिस्सा होता है। इसमें जनता अपनी इच्छा और उम्मीद को ध्यान में रखते हुए किसी पार्टी या उम्मीदवार का चयन करती है। इसके साथ-साथ चुनाव एक ऐसे यन्त्र की तरह भी होता है जिससे देश और समाज की आबोहवा को मापने में मदद मिलती है। भारत में संवैधानिक तौर पर चुनाव हर पांच साल के अन्तराल पर निहित हैं और जनता इनमें डाले गये वोटों के जरिये नयी या पुरानी ऐसी सरकार को चुनती है जो उसकी भावनाओं के करीब हो। अगर अगला लोक सभा चुनाव अपने निर्धारित समय पर हुआ तो उसमें अब सिर्फ 10 महीने का समय बचा है। तो क्यों न यह देखने की कोशिश की जाये कि पहले के चुनावों से इसके लिए क्या संकेत देखने को मिलते हैं। इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में इस लेखक ने पिछले चुनावों से जुड़े आंकड़ों के आधार पर कांग्रेस पार्टी की चुनावी संभावनाओं का विश्लेषण किया था। इस लेख में उसी तरह का विश्लेषण केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए करने की कोशिश की गयी है।
- रेणु आगाल