18-Aug-2018 10:08 AM
1234754
मध्यप्रदेश चुनाव जीतने के लिए बीजेपी भले ही अबकी बार दो सौ पार की बात कर रही हो। लेकिन, जमीन पर ये काम कितना मुश्किल है ये उसे भी पता है। यही वजह है कि बीजेपी खासी चुनावी कवायद में लगी है और तरह-तरह की रणनीति बना रही है। मिशन-47 भी बीजेपी की चुनावी रणनीति का खास हिस्सा है।
आप सोच रहे होंगे कि ये मिशन-47 आखिर है क्या, तो आपको बता दें कि दरअसल मिशन-47 का मतलब है प्रदेश की वो 47 सीटें जो आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं और जिन्हें आदिवासी वोट बैंक पूरी तरह प्रभावित करता है। बीजेपी की दो सौ सीटें जीतने का दावा तब तक नहीं पूरा हो सकता जब तक कि इन 47 सीटों में से कम से कम 30 से 35 सीटों पर कब्जा ना जमाया जाए। शिवराज सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस पर प्रदेश के सभी आदिवासी अंचल के जिलों में बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करवाये। धार के कार्यक्रम में तो स्वयं सीएम शिवराज ने मोर्चा संभालते हुये आदिवासी समाज के लिये सौंगातों का पिटारा खोल दिया। जबकि अन्य जिलों में शिवराज के मंत्रियों सहित भाजपा के तमाम सांसदों की टीम जुटी हुई थी। इससे साफ होता है कि बीजेपी आगामी चुनाव में इन आदिवासी सीटों के प्रति कितनी गंभीर है।
2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाने में प्रदेश की आदिवासी सीटों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा था। 47 सीटों में से भाजपा के 30 विधायक चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। लेकिन, शिवराज सरकार में आदिवासियों को वह स्थान प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। दरअसल शिवराज मंत्रिमंडल में इस वर्ग के फिलहाल सिर्फ तीन मंत्री कुंवर विजय शाह, ओमप्रकाश धुर्वे व अतंर सिंह आर्य ही शामिल हैं, जबकि शहडोल लोकसभा चुनाव जीतने के बाद ज्ञान सिंह ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में मंत्रिमंडल में कम स्थान मिलना भी इस वर्ग की नाराजगी की एक बड़ी वजह मानी जा रही है।
मंडला से सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते को छोड़कर फिलहाल बीजेपी में कोई मजबूत आदिवासी चेहरा नजर नहीं आता है। वाजपेयी सरकार के समय भी केंद्रीय मंत्री रहे कुलस्ते एक वक्त में पार्टी के कद्दावर नेताओं में गिने जाते थे, लेकिन मोदी मंत्रिमंडल से बाहर किये जाने के बाद वे राज्य की राजनीति में भी हाशिये पर पहुंचते दिखते हैं। जबकि पार्टी के पास प्रदेश में कुलस्ते के अलावा कोई दूसरा ऐसा आदिवासी चेहरा नहीं है, जिसकी पकड़ पूरे प्रदेश में हो। कुलस्ते खुद भी गाहे-बगाहे पार्टी को अपनी नाराजगी जता चुके हैं और प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में आदिवासी चेहरे की मांग भी कर चुके हैं। शायद यही वजह है कि वे पार्टी में हाशिये पर पहुंच गए। ये 47 सीटें जीतने के लिये बीजेपी जी तोड़ मेहनत कर रही है, लेकिन तीन बार से प्रदेश की सत्ता पर काबिज बीजेपी के लिये इस बार के इन सीटों को जीतना किसी चुनौती से कम नहीं है।
उपचुनावों में हार भी है बड़ी वजह
2016 में रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट पर हुये उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी कांतिलाल भूरिया की जीत भी भाजपा के लिये खतरे की घंटी की तरह है क्योंकि मोदी लहर के चलते 2014 में अपनी सीट हारे कांतिलाल भूरिया ने महज दो साल में ही सीट वापस हासिल कर ये जता दिया कि वे आज भी प्रदेश के सबसे ताकतवर आदिवासी नेताओं में शामिल हैं। वहीं शहडोल लोकसभा सीट के उपचुनाव में गोंगपा प्रत्याशी की मौजूदगी के चलते भाजपा यह सीट जीत तो गई, लेकिन इस जीत के लिये भी उसे एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा। इसके साथ ही विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भी आदिवासी वोट बैंक भाजपा के हाथ से फिसलता नजर आया। यही वजह है कि चुनावी साल में आदिवासियों को रिझाने के लिये बीजेपी तो कई कार्यक्रम चला ही रही है, साथ ही उसका पितृ संगठन माना जाने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इन इलाकों में समरसता अभियान के जरिये पूरी ताकत झोंक चुका है ताकि आदिवासी वोट बैंक के सहारे बीजेपी मिशन-47 को कामयाब कर सूबे की सत्ता अपने हाथ में ले सके।
- अरविंद नारद