18-Aug-2018 09:35 AM
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भारत में इस समय इक्कीस राज्यों के तीस हजार बाघों के रहवासी क्षेत्रों में गिनती का काम चल रहा है। इस साल प्रथम चरण की गिनती के आंकड़े बढ़ते क्रम में आ रहे हैं। यह गिनती चार चरणों में पूरी होगी। बाघ गणना बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति के बजाय, उसकी कथित मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की जा रही है। इसलिए इनकी गिनती की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं। केंद्र सरकार के 2010 के आंकलन के अनुसार यह संख्या दो हजार दो सौ छब्बीस है। जबकि 2006 की गणना में एक हजार चार सौ ग्यारह बाघ थे। इस गिनती में सुंदरवन के वे सत्तर बाघ शामिल नहीं थे, जो 2010 की गणना में शामिल कर लिए गए थे। एक समय टाइगर स्टेट का दर्जा पाने वाले मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या निरंतर घट रही है। प्रदेश में पिछले साल ग्यारह महीने के भीतर तेईस बाघ विभिन्न कारणों से मारे भी गए। इनमें ग्यारह शावक थे।
दुनियाभर में इस समय करीब तीन हजार नौ सौ बाघ हैं। इनमें से दो हजार दो सौ छब्बीस भारत में हैं। विज्ञान-सम्मत की गई गणनाओं का अंदाजा है कि यह संख्या डेढ़ से तीन हजार के बीच हो सकती है। इस बड़े फर्क ने प्रोजेक्ट टाइगरÓ जैसी विश्व विख्यात परियोजना पर संदेह के सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे यह भी आशंका उत्पन्न हो गई है कि क्या यह परियोजना सफल है भी या नहीं? दरअसल, बाघों की गिनती के लिए अलग-अलग तरीके इस्तेमाल होते हैं। भारतीय वन्य जीव संस्थान, देहरादून के विषेशज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे उचित स्थान कान्हा राष्ट्रीय उद्यान है। यहां नई तकनीक से गणना की जाए तो मौजूदा संख्या में तीस फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है। डीएनए फिंगर प्रिंट की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विषेशज्ञों ने आंकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या नवासी है। वहीं, कैमरा ट्रैप पर आधारित एक अन्य तकनीक यह संख्या साठ के करीब बताती है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बाघ एकांत पसंद प्राणी हैं। लिहाजा, इनकी गणना करना आसान नहीं है। लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तरीकों के प्रति संदेह पैदा करता है।
बाघों की गणना के ताजा और पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि नब्बे फीसदी बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है, न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है, इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रूप में देखा जाए तो संभव है कि वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो।
-श्याम सिंह सिकरवार