महानगरों में बाढ़ जिम्मेदार कौन?
02-Aug-2018 07:41 AM 1234910
यह जानकारी सुनकर आप चौंक जाएंगे कि हर साल 1,600 से अधिक लोगों की मौत बाढ़ के कारण होती है, जबकि 3.2 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। हर साल 92 हजार पशु अपनी जान गंवा देते हैं और 70 लाख हेक्टेयर जमीन प्रभावित होती है। साथ ही 5,600 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान होता है। यह सब हमारी विकास की अंधी दौड़ के कारण हो रहा है। प्राकृतिक रूप से माना जाता है कि बाढ़ कम समय में ज्यादा बारिश के कारण आती है। लेकिन शहरों के मामले में और भी कारण हैं। मप्र की राजधानी भोपाल हो या देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई वहां बाढ़ आने की वजह है अनियंत्रित विकास, नालों, नदियों के किनारे निर्माण, नदियों, नालों में कचरे का प्रवाह, जल निकासी मार्ग बाधित, सीवरों और नालों की सफाई में लापरवाही और भ्रष्टाचार, झीलों और तालाबों का संरक्षण नहीं, पानी की निकासी के खराब इंतजाम, बाढ़ नियंत्रण के खराब इंतजाम और बांधों का निर्माण और उनमें जलभराव-निकासी की योजना में खामी आदि। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो हमारे शहर में बाढ़ के लिए हम खुद दोषी हैं। 20 प्रतिशत मौतें भारत में हमारे शहरों का इस तरह अनियंत्रित विकास हुआ है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां 2-4 घंटे की बारिश में ही सड़कें लबालब हो जाती हैं, कॉलोनियों में पानी भर जाता है, नाले उफन जाते हैं और घरों में पानी भर जाता है। यानी बाढ़ के हालात निर्मित हो जाते हैं। यही कारण है कि दुनियाभर में बाढ़ की वजह से होने वाली मौतों में से 20 प्रतिशत भारत में ही होती हैं। भारत में पिछले 64 साल में 1 लाख 7 हजार 487 लोगों की मौत बाढ़ या उससे हुए हादसों से हुई। 1953 से 2017 के बीच बाढ़ से देश को 3 लाख 65 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यह जीडीपी का 3 प्रतिशत है। केंद्रीय जल आयोग ने यह आंकड़े राज्यसभा को इस साल सौंपे थे। शहरी क्षेत्रों में जलभराव तीव्र और लम्बे समय तक जारी वर्षा के कारण होता है। खासतौर से तब जब बारिश में गिरा पानी शहर की जलनिकासी तंत्र की क्षमता को पार कर जाता है। शहरी बाढ़ प्रबंधन के विशेषज्ञ प्रोफेसर कपिल गुप्ता का कहना है कि अनियोजित निर्माण, शहरी नालों में ठोस गंदगी और जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती बारिश, दुनिया भर में शहरी बाढ़ के जाने पहचाने कारणों में से कुछ सामान्य कारण हैं। कारणों पर रोशनी डालते हुए प्रोफेसर कपिल गुप्ता कहते हैं कि भारी वर्षा, चक्रवात और बवंडर ऐसे कारण हैं जिन्हें मौसम संबंधी कारकों में रखा जा सकता है। इसके अलावा ऊपरी तट प्रवाह का दुरुस्त होना या ना होना और तटीय शहरों में ज्वार के कारण जलनिकासी का अवरुद्ध होना भी शहरी बाढ़ के कारण हैं। उपायों पर जोर नहीं शहरी बाढ़ की रोकथाम के लिए अनेक ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है। हर शहर के विकास के लिए एक ढांचागत नीति होती है लेकिन भारत में इसका पालन कम ही होता है। शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति और शहरों में बढ़ती जनसंख्या के कारण अंधाधुंध निर्माण हो रहे हैं। लगभग सभी शहरों पर जनसंख्या का दबाव ऐसा पड़ रहा है कि बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसने लगी हैं। बड़ी संख्या में पुल, ओवरब्रिज समेत मेट्रो परियोजनाओं का निर्माण हो रहा है वह मौजूदा जलनिकासी मार्गों में किया जा रहा है। उचित इंजीनियरिंग डिजाइनों जैसे केंटिलीवर निर्माण आदि का सहारा लेकर ड्रेनेज सिस्टम की रक्षा की जा सकती है। जमीन सिर्फ मकान बनाने के लिए नहीं है, पानी के लिए भी है। ताल-तलैये और पोखर शहर के सोख्ते की तरह हैं। बाढ़ नियंत्रण के इन परंपरागत तरीके के प्रति उपेक्षा ने स्थिति को और गंभीर बनाया है। जलवायु परिवर्तन के चलते बेमौसम या मानसून के दौरान जब भारी बारिश होती है तो पानी के निकलने का कोई स्थान नहीं बचता है। लिहाजा बाढ़ और विनाश अवश्यंभावी हो जाते हैं। इन्हें फिर से पुनर्जीवन देकर शहरी बाढ़ का प्रभाव कम किया जा सकता है। इसके अलावा छिद्रदार फुटपाथ बनाए जाने चाहिए जिससे पानी सतह के नीचे की मिट्टी तक पहुंच जाता है। जमीनी अध्ययन नहीं यह एक विडंबना ही है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव के समक्ष खुद को असहाय पाते हैं। वे सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। कभी-कभी वे दूसरे विभागों पर भी दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। इसका जवाब कोई नहीं दे पाता कि नालों की सफाई साल भर से क्यों नहीं होती? इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है? जैसे दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल बन जाते हैं वैसा ही दूसरे अनेक शहरों में होता है। कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर इन सबके निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उनके रखरखाव में? हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे शहर की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां न तो दिल्ली, मुंबई की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। इसके साथ ही सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाइन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती है। नतीजा आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले न पूरी पावेÓ वाला होता है। हम अंधाधुंध खर्चा करते हैं, फिर उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं। इसके बावजूद न तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और न ही जाम से मुक्ति मिलती है। काश कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उनके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है, लेकिन बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही है कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या सामने आएगी जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। जाम के दौरान ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि जैसे कई दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने की कोशिश मुश्किल से ही होती है। जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इनका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है, यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और उन्हें इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए।
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