02-Aug-2018 08:04 AM
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पिछले दिनों एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई। इसमें कहा गया है कि देश में आतंकवाद और नक्सलवाद से भी ज्यादा जान को कई गुना खतरा सड़क के गड्ढों के कारण होता है। वैसे देखें तो आतंकवाद वाकई देश के लिए बड़ा संकट है, जिससे निपटने का प्रयास पहले होना चाहिए। पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी जेब भरने के लिए दूसरे की जान पर खेलने का जो खतरनाक खेल लंबे समय से चला आ रहा है, वह भी देश और देशवासियों के साथ कम छल नहीं है। जनता के पैसे से ही देश चलता है। फिर भी अगर चलने के लिए आज तक अच्छी सड़कें मयस्सर नहीं हो सकी हैं तो यह न सिर्फ देश की जनता, बल्कि लोकतंत्र के साथ भद्दा मजाक और अन्याय है।
स्मार्ट और आधुनिकता का दंभ भरती हमारे देश की सड़कों को देख कर तो कभी-कभी यह लगने लगता है कि सड़कों में गड्ढे हैं या फिर गड्ढों में सड़कें। कहने को देश में एक्सप्रेस-वे बन रहे हैं। लेकिन आम जिंदगी का आए दिन जिन सड़कों और रास्तों से सामना होता है, बरसात के मौसम में उन्हें छोटे तालाब में तब्दील होने में देर नहीं लगती। लेकिन जैसे ही बारिश का मौसम खत्म होता है, इन गड्ढों को जो भरने का काम चल निकलता है। जगजाहिर है कि यह काम राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बड़ा औजार बन चुका है। सड़कें किसी भी देश की तरक्की की पहली सीढ़ी होती हैं। पर हमारे देश के सभी हिस्सों में जो एक बात सामान्य तौर पर नजर आ सकती है, वह है- गड्ढे युक्त सड़कें जो जानलेवा साबित हो रही हैं।
बेहतर सड़कें देश की अर्थव्यवस्था को आधार प्रदान करती हैं। न केवल शहरों, गांवों और महानगरों को जोडऩे, बल्कि शहरों-कस्बों के भीतर भी सुचारू जीवन के लिए आज अच्छी सड़क सबसे पहली बुनियादी जरूरत है। विकास के लिए यह सबसे जरूरी बुनियादी ढांचा है। लेकिन हमारे यहां इसकी हकीकत कुछ और ही है। हम स्मार्ट सिटी की बात करते हैं। तो क्या स्मार्ट सिटी और न्यू इंडिया का खाका सड़क पर खुदे पड़े गड्ढे द्वारा खींचा जा रहा है? देश में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं होता जिसमें सड़कों का जाल बिछाने, गांव-गांव तक सड़क बनाने का दावा किया नहीं किया जाता हो। पर ऐसा कोई साल नहीं बीतता जब देश में सड़कों के गड्ढों से होने वाली मौतों का आंकड़ा सीमापार से होने वाली गोलीबारी और आतंकवाद में हुई मौतों को पीछे न छोड़ देता हो। आज हमारे लोकतांत्रिक परिवेश में सरकारी दावे तो इतने खोखले हो गए हैं कि इन पर से जनता का भरोसा पूरी तरह से उठ गया है।
सरकारी आंकड़े बता रहें हैं कि देश में पिछले वर्ष सबसे अधिक मौतें सड़कों के गड्ढों की वजह से हुई हैं। पिछले वर्ष सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सड़कों पर गड्ढों के कारण नौ सौ सत्तासी लोगों की जानें गई। अगर सड़क के गड्ढे में गिर कर देश में पिछले वर्ष हुई मौतों के आंकड़ों पर नजर डालें तो गड्ढों की वजह से जान गंवाने के मामले में हरियाणा और गुजरात क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। पिछले साल जानलेवा गड्ढों की वजह से महाराष्ट्र में लगभग सात सौ तीस लोगों की मौत हुई थी। यह 2016 के मुकाबले दोगुनी थी। इसी महीने यानी महाराष्ट्र में छह लोग सड़क पर गड्ढों की वजह से मारे गए। पर महाराष्ट्र के राज्य लोक निर्माण मंत्री का मानना है कि सड़क पर लोगों की मौत सिर्फ गड्ढों की वजह से ही नहीं होती। लेकिन इसका मतलब तो यह नहीं कि बेहतर सड़क बनाने की चुनौती ही सरकारें न
स्वीकार करें।
सरकारी लापरवाही के कारण हो रहे हादसे
सड़कों की मरम्मत के नाम पर देश में आए दिन लीपापोती करके जनता के पैसे का नुकसान किया जाता है। सड़कें बेहतर हैं या नहीं, या बारिश के दिनों में सड़कों का क्या हाल है, यह देखना सरकारी महकमों की जिम्मेदारी होती है। लेकिन अधिकारी-कर्मचारी इतनी लापरवाही बरतते हैं कि महीनों सड़कों पर गड्ढे बने रहते हैं, लेकिन उन्हें सुधरवाने की जरा भी जिम्मेदारी नहीं समझते। जनप्रतिनिधि भी इस ओर ध्यान देने की तकलीफ नहीं करते। अफसरों और जनप्रतिनिधियों की मेहरबानी से ही ऐसे ठेकेदार पनपते हैं जो घटिया सड़कें बनाते हैं। ऐसे में कौन किस पर और कैसी कार्रवाई करने की हिम्मत कर पाएगा, यह गंभीर प्रश्न है। अपने पसंदीदा ठेकेदारों से सड़क निर्माण के पीछे भ्रष्टाचार का बड़ा खेल रहता है। इसीलिए बार-बार सड़कें बनती हैं और जल्द ही टूट जाती हैं। सड़क निर्माण के नाम पर ठेकेदार, शासन-प्रशासन के लोग और जांच एजंसियां, तीनों की ऐसी मिलीभगत से घटिया सड़कें बनती हैं और जमकर सरकारी पैसों की बंदरबाट होती है। ऐसे में कोई अगर जान और माल दोनों से ठगा महसूस करता है, तो वे हैं सड़क पर चलने वाले लोग, जो कभी भी गड्ढे की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठते हैं।
-धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया