19-Jul-2018 08:51 AM
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जहां देश में प्रति व्यक्ति के सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रति वर्ष खर्च की गई राशि 1,112 रुपए है, वहीं मप्र में यह राशि मात्र 716 रूपए हैं। यह आंकड़े देश और प्रदेश के शीर्ष निजी अस्पतालों में परामर्श पर खर्च किए जाने वाले लागत से काफी कम है या यूं कहें कि फुटपाथ पर लगी गुमठी में चाय-समौसा खरीदने में लगने वाले लागत से भी कम है। इस आंकड़े पर यह राशि 59.66 रुपए प्रति माह या 1.96 रुपए प्रति दिन होती है।
देश के 29 राज्यों में से मिजोरम सालाना प्रति व्यक्ति के सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे अधिक 5,862 रूपए खर्च करता है वहीं बिहार मात्र 491 रूपए ही खर्च करता है। रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि छोटे राज्यों में वहां के लोगों के स्वास्थ्य पर सबसे अधिक खर्च किया जाता है।
प्रदेश सरकार ने वर्ष 2018 के बजट में स्वास्थ्य विभाग के लिए 15,438 करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। इस तरह प्रदेश के हर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए करीब 1930 रूपए की राशि आती है, लेकिन मात्र 716 रूपए ही खर्च किए जा रहे हैं। यानी 1214 रूपए अन्य कार्यों पर खर्च किए जा रहे हैं। एक स्वतंत्र इंटरनेशनल वीकली जनरल मेडिसिन जर्नल द लेंसेटÓ की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाएं दुनिया भर की तमाम घटिया व्यवस्थाओं में से एक हैं। यहां 100 में से 35 लोगों को ही सही डॉक्टर का परामर्श हासिल हो पाता है। प्रत्येक 1 लाख मरीजों में से 776 तो इसलिए मर जाते हैं क्योंकि उन्हें समय पर इलाज ही मुहैया नहीं होता। लैंसेट ने मप्र की स्वास्थ्य सेवाओं को दुनिया की तीसरी सबसे घटिया सरकारी स्वास्थ्य सेवा बताया है।
रिपोर्ट के अनुसार प्रति एक लाख में से 37,678 लोग बीमारी का सही इलाज नहीं मिल पाने के कारण अपने जीवन को विकलांग की तरह (डिसेबिलिटी-एडजस्टेड लाइफ ईयर) जीने को मजबूर हो जाते हैं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डेथ (जीबीडी) स्टडी में मध्यप्रदेश की स्थिति दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों से महज दो पायदान ही बेहतर है। मध्यप्रदेश के गांवों में अगर कोई बीमार पड़ जाए तो फिर उसकी जिंदगी भगवान से पहले झोलाछाप डॉक्टरों के हाथों में होती है। यह इसलिए कि ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निर्धारित पदों में से आधे से ज्यादा सालों से खाली पड़े हैं। जहां भी स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर कोई पदस्थ भी है तो अधिकांश संविदा आधार पर कार्यरत कर्मचारी हैं। एक ओर तो सरकार का दावा है कि शहरों के बराबर त्वरित और सटीक स्वास्थ्य सेवाएं गांवों में भी मुहैया करवाई जा रही हैं, जिस पर करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर जमीनी हकीकत यही है कि प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के 11 हजार 192 पदों में से आधे भी नहीं भरे हैं।
विशेषज्ञ चिकित्सकों के लगभग 3266 पद स्वीकृत हैं, जिसमें 1171 चिकित्सा विशेषज्ञ पदस्थ है और 2100 पद खाली हैं। अर्थात 64 फीसदी चिकित्सा विशेषज्ञ की सेवाएं ग्रामीणों को नहीं मिल पा रही है। इसी प्रकार चिकित्सा अधिकारी के लगभग 5000 स्वीकृत पदों के मुकाबले केवल 3000 चिकित्सक ही सेवाएं दे रहे है । 40 फीसदी चिकित्सा अधिकारी के रिक्त पद होने से ग्रामीणों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नीम हकीम एवं झोला छाप डाक्टरों पर निर्भर रहना होता है।
वैसे भी स्वास्थ्य विभाग में 80 फीसदी कर्मचारी संविदा पर कार्य कर रहे है, एनएचएम मप्र के तहत एमबीबीएस, आयुष विभाग से लेकर नर्सिंग, पैरामेडिकल, मैनेजमेंट आदि सभी व्यवस्थाएं संविदा में कार्यरत कर्मचारियों पर है।
महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के 5000 पद खाली
ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा विशेषज्ञों एवं चिकित्सा अधिकारियों के आधे से ज्यादा पद पहले से ही रिक्त हैं। ग्रामीणों को उप स्वास्थ्य केन्द्रों पर कार्यरत महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का ही सहारा होता है। वैसे भी तीन हजार की ग्रामीण आदिवासी आबादी एवं पांच हजार की सामान्य ग्रामीण आबादी पर एक उप स्वास्थ्य केन्द्र होता है, जहां महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता स्वास्थ्य सेवायें प्रदान कराती है। अभी महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता के 5 हजार पद खाली हैं। इनमें से 2 हजार पदों पर स्वास्थ्य विभाग नियमित नियुक्ति कर रहा है, जबकि दो हजार पद राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा संविदा से भरे जाना है ।
-रजनीकांत पारे