19-Jul-2018 08:37 AM
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गीता में भगवान ने शरीर को क्षेत्र और जीव को क्षेत्रज्ञ कहा है। तेरहवें अध्याय का प्रथम श्लोक है...
इदं शरीरं कौन्तेय,
क्षेत्रिमित्य थधीमते,
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु,
क्षेत्रज्ञ इति तदविद:।
यानी शरीर एक खेत की तरह है। जीवात्मा इसे अज्ञानवश अपना मानता है। खेत चाहे कितना ही बड़ा हो, लेकिन फसल वह जहां बोएगा जितनी बोएगा उतनी ही काटेगा। एक नौकर दुकान में भले ही सेठ से ज्यादा काम करता है पर अपने को सेठ नहीं मानता, क्योंकि उसे ज्ञान है कि वह स्वयं क्या है।
शरीर के अच्छे बुरे कर्म है जैसा करते हैं वैसा ही भोगना पड़ता है। जीवन अगर संसार को अपना न माने भले संसार में रहे। परमात्मा को अपना मानें तो जनम मरण का बंधन छूट जाता है। कर्मों के कारण ही उसे मनुष्य, देवता, पशु योनी मिलती है। कई योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलता है तो इसीलिए कि यहां ज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की जाए। गीता बंधन खोलने वाली कुंजी है। ताला ऊपर से हथोड़ा मारकर नहीं खुलता। चाबी ताले के अंदर जाकर उसके मर्म को टटोलती है और ताला खुल जाता है। हम ऊपर से भले ही कीर्तन कर चिल्लाते रहे, प्रभु को भजते रहे, लेकिन हम अपने अंदर से परमात्मा को पाने के लिए कितने तैयार है खुद अपने मर्म को टटोले तो बंधनों से हम मुक्त हो सकते हैं।
गीता में कहा गया है कि...
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य
विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।
यानी अपनी प्रकृति को वश में करके जो प्रकृति के वश में होने के कारण परतंत्र हैं, उन सब भूतसमुदाय को पुन:-पुन: उत्पन्न करता हूं। यानी जो भी कर्म हम करते हैं, उसका लेखा-जोखा हमारे चित्त में इक_ा हो जाता है, क्योंकि कर्म हमने किया है, तो उसका फल भी हमें ही भोगना पड़ता है, भले समय कितना भी लग जाए, काल कितने भी बीत जाएं, लेकिन जीव अपने कर्मफलों के आधार पर उनको भोग लेने के लिए ही फिर से जन्म लेता है।
जब तक चित्त संस्कारों से भरा होता है, तब तक जीव परतंत्र है, लेकिन चित्त की सफाई होते ही जीव स्वतंत्र हो जाता है। भगवान कह रहे हैं कि अपनी प्रकृति को वश करके जो प्रकृति के वश में भूत समुदाय हैं, उन सभी को, उनके कर्मों के आधार पर मैं बार-बार उत्पन्न करता रहता हूं। यह जन्म-मरण, कर्मों के आधार पर ऑटोमेटिक मोड की तरह होता रहता है।
श्रीमद भगवद्गीता का यह अद्भुत प्रेरक मंत्र हैै...
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।।
शारीरिक अस्वस्थता में मन नहीं गिरे, यह ध्यान रखें। मनोबल ऊंचा बना रहे। दृढ़ विचार शक्ति, ऊंचा मनोबल अपने साथ मित्रता है। कमजोर मानसिकता, लडखड़ाई हुई नकारात्मक सोच, अपने साथ शत्रुता! यानी अपने आप से अपने आपको उठाओ, अपने को गिराओ नहीं। शारीरिक बीमारी प्राय: तन और मन दोनों को गिरा देती है। अस्वस्थ होने पर कुछ तो शरीर गिरता है, लेकिन मन की नकारात्मक सोच व निराशा और अधिक डगमगा देती है। ऐसी स्थिति में श्री गीता जी का यह श्लोक याद आ जाना चाहिए। जब-जब मन लडखड़ाने, डगमगाने, घबराने या उकताने लगे, तब-तब इस श्लोक को सामने लाओ।
भक्तचरिता में एक गृहस्थ संत की कथा आती है। संत को भोजन करवाने के लिए किसी ग्राम साहूकार से उसने उधार राशन लिया। साहूकार ने कहा, तू पैसे दे नहीं पाएगा, बाहर मैंने खेतों में एक कुआं बनवाना है। इसके बदले खुदाई कर दे।ÓÓ बात मान ली। कुएं की खुदाई प्रारंभ की। एक दिन सायंकाल खुदाई करते-करते वह स्वयं उसमें गिर गए और आधे से ज्यादा शरीर उस में दब गया। अंधेरा हो चला था। दूर-दूर तक कोई आवाज सुनने वाला था नहीं।
तभी गीता जी के इसी भावानुसार मन को संभाला, शरीर गिरा लेकिन मन को नहीं गिरने दिया। मन ही मन भगवान का स्मरण किया। यह विचार बनाया कि प्रभु तो यहां भी साथ हैं। उत्साह और विश्वास को जगाया। ऊंचे स्वर से भगवान के नाम का कीर्तन प्रारंभ कर दिया। रात्रि के समय आवाज दूर तक गूंजी। एक राजा शिकार खेलकर कहीं दूर वहां से निकल रहा था। भगवन्नाम का दिव्य स्वर कान में पड़ा। सैनिकों को भेजा। जब पता चला कि कुएं में गिरा, मिट्टी में दबा कोई व्यक्ति नाम संकीर्तन में मस्त है। राजा स्वयं गए, अद्भुत भाव दृश्य, सैनिकों को आज्ञा देकर बाहर निकलवाया और अपने साथ अपने राज्य में ले आए।
विचार करें- शरीर गिरा, यदि मन भी यह सोच कर गिर जाता कि अब प्राण बचने संभव नहीं तब कुछ भी हो सकता था। मन को नहीं-गिरने दिया। स्वयं से स्वयं को उठाया-परिणाम कितना अच्छा! आओ, पक्का करें कि मन को नहीं गिराएंगे। भगवान कृपा करें शरीर भी स्वस्थ रहे, शरीर भी न गिरे, लेकिन यदि कुछ लगने लगे, तभी मन को संभालो, मन को शरीर की अस्वस्थता से नहीं, भगवान से जोड़ो। यही अपने साथ मित्रता है, मन का भी गिर जाना यह स्वयं के साथ शत्रुता है, हर समय मनोबल गिराकर जीना, क्या स्वयं से स्वयं का नुक्सान नहीं। आओ, विचार विश्वास और मनोबल ऊंचा उठाकर अपने मित्र बनें, शत्रु नहीं।
वस्तुत: यहां गिरना और उठना शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति है।
गिरते हैं जब ख्याल,
तो गिरता है आदमी।
जिसने इन्हें संभाला,
वो खुद संभल गया।।
अर्जुन के साथ यही तो था। रथ में भगवान से भी ऊंचे आसन पर था, लेकिन जब मन गिरा तो शरीर भी इसके पिछले भाग में जा गिरा। त्वचा जलने लगी और शरीर लडखड़ाने लगा, सिर चकराने लगा। श्री गीता का यह श्लोक बहुत मजबूत प्रेरणा है स्वयं को गिरने से बचाने के लिए तथा यदि शरीर अस्वस्थता में गिरा रहा है या गिर रहा है तो उसे फिर उठाने के लिए आओ प्रेरणा लें और उठाएं अपने आपको।
-ओम