02-Aug-2018 06:26 AM
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जीवन में मित्रता का क्या महत्व है इसका जवाब रामचरित मानस में मिलता है। रामचरितमानस में तुलसीदास जी राम के मुंह से सुग्रीव से कहलवाते हैं
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
यानी जो लोग मित्र के दु:ख से दु:खी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते। बल्कि इसलिये दुखी होते हैं कि अगर वे मित्र के दुख से दुखी न हुये तो वे लोग उनका मुंह देखना बंद कर देंगे क्यों उससे उनको भयंकर पाप लगेगा। मित्र के दुख से अधिक लोगों को अपनी चिंता रहती है। लोग सोचते हैं कि मित्र के दुख से दुखी हो जाओ बवाल कटे। लेकिन रामराज में मित्रता के लिये संकट की स्थिति पैदा हो गयी थी। रामराज में किसी को कोई कष्ट था ही नहीं। तुलसीदास लिखते हैं:
नहिं दरिद्र कोऊ, दुखी न दीना।
नहिं कोऊ अबुध न लच्छन हीना॥
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा।
रामराज नहिं काहुहिं व्यापा॥
जीवन में अगर कोई हमारा सच्चा हितैषी होता है वह एक मित्र ही होता है। विपत्ति के समय सबसे पहले मित्र ही हमारे साथ खड़ा होता है। हमारे धर्म ग्रंथों में ही सच्चे मित्रों के अनेक किस्से पढऩे व सुनने को मिलते हैं। जब हम किसी दुविधा में फंस जाते हैं तो मित्र ही हमें सही रास्ता दिखाते हैं। यदि आपका मित्र दुष्ट प्रवृत्ति का है तो वह आपके लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है। दुष्ट मित्र अपना हित साधने के लिए आपको गलत सलाह दे सकता है या फिर आपको शारीरिक रूप से भी नुकसान पहुंचा सकता है। एक गलत सलाह और शारीरिक नुकसान दोनों ही रूप में दुष्ट मित्र साक्षात मृत्यु के समान ही है। अत: ऐसे मित्रों से बचकर रहना चाहिए।
तुलसीदास जी लिखते हैं...
जिन्ह कें असि मति
सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारी सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।।
यानी जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मुर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलाये। उसके गुण प्रगट करे और अवगुणों को छिपाये।
तेजी से बदलती दुनिया में उसी तेजी से हमारे आसपास रहने वाले लोग भी बदल रहे हैं और बदल रहे हैं हम खुद। सुख-दुख जैसे बदलते हैं वैसे ही आज हमारा व्यवहार बदल जाता है। आज शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति मिले जिसके जीवन में दुख, विपत्ति या परेशानियां ना हो। तो ऐसे समय के लिए श्रीरामचरित मानस के अरण्यकांड में एक चौपाई है:
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी।
अत: विपत्ति का ही वह समय होता है जब हम अपने धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा कर सकते हैं। सुख में तो सभी साथ देते हैं। जो दुख में साथ दे वही हमारा सच्चा हितेशी है। कलयुग में थोड़ा ही दुख पहाड़ के समान दिखाई देता है और दुख के वश अधिकांशत: धर्म और धीरज का साथ छूट जाता है और धर्म और धीरज का साथ छूटते ही शुरू होता है और भी ज्यादा बुरा समय। ऐसे में दुख के भंवर में फंसे उस व्यक्ति के मित्र और उसकी पत्नी साथ दे दे तब ही वह बच सकता है। परंतु ऐसा होता बहुत ही कम है। अत: यह समय ही परीक्षा का समय होता है उस दुखी व्यक्ति के धर्म और धीरज की परीक्षा और परीक्षा उसके मित्र और पत्नी की।
दुख या विपत्ति के समय हमें यह देखना चाहिए कि हम किसी भी तरह अधर्म के मार्ग पर ना जाए। अधर्म का मार्ग अर्थात् रिश्वत, बेइमानी, दुराचार, व्यभिचार आदि। हमें इन जैसे अधार्मिक और नैतिक पतन के मार्ग पर चलने से बचना चाहिए।
हमारा धीरज ही हमें समाज में मान-सम्मान के शिखर तक पहुंचा सकता है। कोई परेशानी यदि आती है तो ऐसे में धैर्य धारण करते हुए सही निर्णय लेना चाहिए ना कि गुस्से में अन्य लोगों पर दोषारोपण किया जाए।
मित्र ही होते है जो आपको किसी भी मुश्किल से आसानी से निकाल सकते हैं। मित्र ही सुखी और खुशियों भरा अमूल्य जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। आपत्ति के समय जो मित्र सहयोग करते हैं वे ही सच्चे मित्र होते हैं। रामायण में राम ने कहा है हमें मित्रों के छोटे से दुख को पहाड़ के समान समझना चाहिए और हमारे स्वयं के दुख को धूल के समान। ऐसा कहा जाता है कि पत्नी अगर अच्छी हो तो वह पति को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचा सकती है और इसके विपरित बुरी पत्नी राजा को भी भिखारी सा जीवन जीने पर मजबूर कर सकती है। अत: विपरित परिस्थिति में भी जो पत्नी पति के हर कदम पर साथ चले और उसका मनोबल ना टूटने दे, गरीबी के समय भी पति को यह एहसास ना होने दे कि उसे किसी भी प्रकार दुख है। ऐसी पत्नी पूजनीय है।
-ओम