02-Jul-2018 10:50 AM
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प्रभु की अनुकम्पा जिसके ऊपर हो जाती है उसका इह लौकिक और पारलौकिक दोनों का सुधार हो जाता है। यदि मानव मन, वचन और कर्म से छल छोड़कर सच्चाई का मार्ग अपना ले तो उसे प्रभु का आशीर्वाद मिल जाता है। फिर उसे सांसारिक उपचार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
करम बचन मन छाडि़ छल,
जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं,
किये कोटि उपचार।।
प्रभु के प्रेम में पागल होकर जो मानव आनन्द में रत हो जाता है, और मन, वचन व कर्म से जो आनन्द के लिए प्यासा हो जाता है उसके लिए सामान्य दिनचर्या कलह में किसी प्रकार की कलह और शोक का कोई स्थान नहीं होता है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव को मिले संस्कारों के अनुसार जो जीवन व्यतीत करता है वह सब के लिए आदर्श बन जाता है। मानस में राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन चारों भाइयों को मिले संस्कारों और उनके प्रभावों के सम्बन्ध में तुलसीदास बहुत भावपूर्ण शब्दों में वर्णन करते हैं। राम को राम और भरत को भरत बनाने वाले उनके संस्कारों ने उन्हें धरती पर हमेशा के लिए अमर बना दिया। जो मरणधर्मा मानव अपने कर्मों और जाति के कारण इस संसार में मृत्यु के भवपाश से नहीं बच पाता वे कर्म और जाति ही उसे कैसे अमरताÓ दिला सकते हैं इसे राम, भरत सहित अनेक अमरणधर्मा मानवों को देखकर हम समझ सकते हैं। संस्कारों के कारण ही जल की एक बूंद सीप के सम्पर्क में आकर मोती बनती है और धूल के सम्पर्क में आकर कीचड़ में बदल जाती है। कहने का भाव यह है कि मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाने वाले संस्कार ही होते हैं। वेद पढऩे वाला ब्राह्मण बन जाता है और विद्या से हीन व्यक्ति शूद्र कोटि में गिना जाता है। संत तुलसीदास कहते हैं-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा,
कीचहिं मिलइ नीच जलसंगा।
साधु असाधु सदन सुक सारीं
सुमिरहिं राम देहि गनिगारीं।।
संगति, विद्या, शिक्षा, अनुभव और चिंतन मानव को जहां सद्चरित्र मानव बनाते हैं वहीं पर उसे मोक्ष का अधिकारी भी बनाते हैं। श्रीराम का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक परम पावन रहा। काम, क्रोध, मद, लोभ और मत्सर उन्हें कभी सताये ही नहीं। ऐसे विलक्षण महामानव में मानव के सभी मूल्यों का होना निश्चित ही उन्हें वंदनीय और अभिनन्दनीय बनाता है। मानसकार कहते हैं
संत संग अपबर्ग कर,
कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद,
श्रुति पुरान सदग्रंथ।
परमानंद की अनुकम्पा से मानव अपनी उत्कृष्टता और परम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। लेकिन प्रभु कृपा मिले कैसे यह एक बड़ा प्रश्न है? मेरा चिन्तन कहता है जिस प्रकार से सूर्य की रश्मियों का लाभ लेने के लिए हमें घर से बाहर निकलना होता है और मनोवेग से सूर्यदेव की अनुकम्पा से हम तृप्त हो जाते हैं उसी प्रकार से परमानन्द की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए हमें अपनी छुद्र ऐषणाओं और वासनाओं से बाहर निकलकर उसको प्राप्त करने के लिए निरन्तर साधना करनी चाहिए।
मन में पवित्रता, शुभता, सत्यता, करुणा, अत्यन्त जिज्ञासा और छटपटाहट जैसी स्थिति बन जाए तो समझो बेड़ा पार हो गया। हम धन, पुत्र, माता-पिता, सहोदर और अन्य स्वार्थ से बंधे सम्बन्धियों के लिए तो रोते-गाते हैं लेकिन क्या कभी पवित्र भावना से अत्यन्त छटपटाहट के साथ ईश्वर को प्राप्त करने के लिए रोते-गाते हैं? जिस दिन हममें ऐसी स्थिति आ जाएगी उस दिन हम ईश्वर के हो जाएंगे और ईश्वर हमारा हो जाएगा। तुलसीदास मानस में कहते हैं-
परमानन्द कृपायतन,
न परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी,
देहु हमहि श्रीराम।।
यह है मूल्यों का प्रभाव। जिसे हम पढ़-लिखकर भी आजीवन नहीं समझ पाते हैं। आज के भौतिकवादी युग में जहां सब कुछ धन बल और पद बल से तय होता है। जहां सारे सम्बन्ध बाजार से तय होने लगे हैं ऐसे में रामचरितमानस का मूल्यवाद नई आशा की किरण लेकर आता है। मानस का मूल्यवाद यानी मानव मूल्यों की स्थापना का कार्य समाज, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, देश और मानव जाति के लिए अत्यन्त लाभकारी है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हमारी दृष्टि, विचार और कार्य पवित्र और परमार्थ से भरे हों। तुलसी कहते हैं
पर द्रोही पर दार रत,
पर धन पर अपबाद।
ते नर पांवर पापमय,
देह धरे मनुजाद।।
मानसकार एक ओर मानव को सावधान करते जाते हैं तो दूसरी ओर राम के उज्ज्वल और सर्वश्रेष्ठ चरित्र को दिखलाते जाते हैं। यानी बुराई से सावधान करते हुए अच्छाई की ओर निरन्तर आगे बढ़ते जाने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। मानसकार की ये प्रेरक पंक्तियां -सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक। गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।
मानस में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की विवेचना जिस भाव और प्रेरणा के साथ हुई है वह प्रत्येक मानस-प्रेमी को उसका दीवाना बना देती है। मूल्यों की स्थापना इन चारों पुरुषार्थों के साथ ही हुई है। आज वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के युग में जहां बाजार जीवन, परिवार, समाज और संस्कृति के प्रत्येक धड़कन में व्याप्त हो चुका है ऐसे में रामचरितमानस का मानव मूल्यों की स्थापना का कार्य विश्व कल्याण के लिए एक वरदान के समान है। आइए, हम जीवन को मूल्यों से संपृक्त कर लें और गिरती मानवता को संभालकर उसे नया जीवनदान देने में स्वयं को समर्पित करने के लिए संकल्पित हो जाएं।
पुत्र धर्म का जैसा निर्वाह मानस में वर्णित है वैसा विश्व के अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। तुलसी कहते हैं पितु-आज्ञा सभी धर्मों में सर्वोच्च है। राम ने माता-पिता की आज्ञा का निर्वाह जिस प्रकार वह अन्य कहीं नहीं मिलता। पितु आयसु सब धरमक टीकाÓÓ मानस की यह प्रसिद्ध पंक्ति।
जो पितु मातु कहेउ बन जाना,
तो कानन सत अवध समानाÓÓ। अपने अग्रजों के साथ यथायोग्य व्यवहार जैसा राम के जीवन में दिखलाई पड़ता है वैसा अन्य किसी भी के जीवन में नहीं दिखाई पड़ता है। यह मानव मूल्यों के प्रति आदर के कारण है। इसी को स्वधर्म पालन करना भी कहा जाता है। तुलसी कहते हैं राम धर्म के अवतार हैं। उनका जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही हुआ है। धर्म जीवन का हेतु है। इसलिए अधर्म का नाश करना धर्म के पालन के लिए अति आवश्यक है।
-मातु पिता गुरु स्वामि निदेसू,
सकल धरम धरनी धर सेसूÓÓ। भ्रातृधर्म का निर्वाह मानस में राम को लेकर ही नहीं दिखलाया गया है अपितु भरत, लक्ष्मण, शत्रुधन और अन्य अनेक भाइयों के व्यवहारों में मिलता है। हम मानस में मानव मूल्य की व्याख्याओं को धर्म के रूप में देखते हैं। शब्दों का मात्र परिवर्तन भर है।
-ओम