03-Jul-2018 08:37 AM
1234782
2019 के आम चुनाव को लेकर तमाम राजनीतिक दल अपनी बिसात बिछाने में जुटे हुए हैं। एक तरफ जहां भाजपा अपने रूठे साथियों को मना उन्हें अपने साथ लाने में जुटी है। तो वहीं दूसरी ओर कांग्रेस तमाम विपक्षी पार्टियों को एक साथ लाने की कोशिश में लगी हैं। हालांकि इन दोनों पार्टियों के बिना तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट भी गाहे बेगाहे सुनाई दे जाती है। हालांकि वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाएं तो लगता है कि 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस को ठेंगा दिखा बाकी विपक्षी दल एक महागठबंधन बना सकते हैं, और अगर वाकई ऐसा होता है तो यह स्थिति कांग्रेस के लिए काफी कठिन होने वाली है।
अब यदि पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर गौर करें तो, दिल्ली के क्रांतिकारी मुख्यमंत्री ने एक बार फिर से क्रांतिकारी रुख अख्तियार करते हुए उपराज्यपाल के यहां सोफे पर ही धरना दे बैठे। हालांकि कांग्रेस को तो इसमें नौटंकी नजर आयी मगर तीसरे मोर्चे के संभावित दलों के नेताओं को यह अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का बेहतर मौका दिखा। तभी तो चार राज्यों के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, पिनाराई विजयन और एच डी कुमारस्वामी ना केवल खुलकर सामने आए बल्कि उनसे मिलने उनके आवास पर भी पहुंच गए। कह सकते है कि कांग्रेस इस मौके को अपने राजनीतिक हित के लिहाज से भुना नहीं सकी। इसके अलावा कांग्रेस के लिए असली मुसीबत की खबर उत्तर प्रदेश से आ रही है। समाजवादी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को लेकर ज्यादा इच्छुक नहीं है। इससे पहले बहुजन समाजवादी पार्टी की ओर से भी ऐसी खबरें आयी थीं कि वो कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर असमंजस की स्थिति में है, और अभी एक दिन पहले ही बसपा के राज्य नेतृत्व की ओर से भी ऐसा बयान आया है कि बसपा मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में भी अकेले ही लडऩे के मूड में है। मतलब कांग्रेस कोई गठबंधन बनाने से पहले ही अलग थलग दिखाई दे रही है और अगर सपा बसपा का यही रूख रहा तो 80 लोकसभा सीट वाले राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बात जब 21वीं सदी के ऐसे प्रमुख नेताओं की होती है जो पीएम मोदी के विरोध में सबसे आगे हैं तो तीन नाम हमारे सामने आते हैं- पहला कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी, दूसरे सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और तीसरे आम आदमी पार्टी के संस्थापक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। ये तीनों ही तीन अलग दलों के नेता हैं। स्वाभाव से तीन अलग किस्म के लोग हैं। तीनों की विचारधारा से लेकर राजनीति करने का तरीका सब अलग है मगर ये पीएम मोदी और भाजपा का विरोध ही हैं जो इन्हें एक साथ एक प्लेटफॉर्म पर लाता है। तो आइए जानें कि 21वीं सदी के इन तीनों ही नेताओं में कौन कहां है और कैसे वो मोदी विरोधी राजनीति को अंजाम दे रहा है।
अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी 48 साल के हो गए हैं और बात अगर इनकी राजनीतिक उम्र की हो तो 2004 में हिंदुस्तान की सक्रिय राजनीति में कदम रखने वाले राहुल गांधी ने इसी साल यानी 2004 में अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से चुनाव लड़ा और अपना पहला ही चुनाव तकरीबन एक लाख मतों से जीता। राजनीतिक उम्र के लिहाज से 14 साल के राहुल गांधी के बारे में ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि इनका शुमार देश के उन नेताओं में है जो अलग-अलग लेबलों से नवाजे गए हैं और लगातार इनके राजवंश पर हमला हो रहा है। 2007 में पार्टी के महासचिव फिर 2017 में पार्टी अध्यक्ष के पद तक आते-आते भले ही राहुल को 10 साल का समय लगा हो। मगर ये अपने आप में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस लम्बे वक्त में भी राहुल गांधी अपने को सिद्ध नहीं कर पाए और आज भी वहीं खड़े हैं जहां से इन्होंने अपने राजनीतिक भविष्य की शुरुआत की थी। इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक का उदाहरण ले सकते हैं। उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमों अखिलेश यादव से हाथ मिलाने के बावजूद राहुल कुछ विशेष नहीं कर पाए और इनसे जुडऩे के कारण अखिलेश को भी सूबे की जनता ने सिरे से खारिज कर दिया। वहीं गुजरात में भी पार्टी का हाल वही ढाक के तीन पात जैसा था। जहां पार्टी ने जो भी हासिल किया वो हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की बदौलत ही किया। इन दोनों राज्यों के अलावा कर्नाटक में भी राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी खतरे के निशान से कुछ ऊपर दिखी। इन सारी बातों के बाद कहना गलत नहीं है कि राहुल ने 14 साल के राजनीतिक भविष्य में अब तक जो भी हासिल किया वो उन्हें केवल उनके उपनाम के कारण मिला है। यदि राहुल से उनका उपनाम ले लिया जाए तो राजनीति की दौड़ में वो केवल एक हारा हुआ घोड़ा हैं।
2012 से 2017 तक उत्तर प्रदेश जैसे विशाल सूबे का मुख्यमंत्री रहने वाले अखिलेश उम्र में भले ही 44 साल के हों और राहुल गांधी से 4 साल छोटे हों। मगर बात जब राजनीति की आती है तो ये राहुल से कहीं ऊपर हैं। 2000 में अपने राजनीतिक भविष्य की शुरुआत करने वाले अखिलेश यादव ने 2000 में 13वीं लोक सभा के लिए उत्तर प्रदेश के कन्नौज से उप-चुनाव लड़ा और उसे जीता। इस दौरान अखिलेश खाद्य, नागरिक आपूर्ति और सार्वजनिक वितरण समिति के सदस्य भी थे। अखिलेश यादव का चाल, चरित्र और चेहरा देखकर ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि ये आने वाले वक्त में पीएम मोदी के लिए एक टेढ़ी खीर साबित होंगे। साथ ही ये भी कि वर्तमान में जो अखिलेश का राजनीतिक कद है उसे देखकर इस बात का भी अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि भविष्य में इनका व्यक्तित्व और अधिक मजबूत होगा।
कांग्रेस महागठबंधन की कवायद में
कांग्रेस के रणनीतिकार भी इन सुगबुगाहटों के बीच अपने आप को अलग नहीं रखना चाहते तभी तो कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले और सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात की। कांग्रेस को ये बात भली भांति पता है कि ममता दीदी तीसरे मोर्चे के दलों को साथ लाने में काफी अहम किरदार में हैं, ऐसे में कांग्रेस उनको अपने पाले में रखने की कोशिश में है। हालांकि इन कोशिशों के अलावा कांग्रेस का भविष्य इन बातों पर भी निर्भर करेगा कि कांग्रेस मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कैसा प्रदर्शन करती है। अगर कांग्रेस इन चुनावों में बेहतर प्रदर्शन कर पाती है जैसी कि उम्मीद भी जताई जा रही है, तो निश्चित रूप से यह 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए कई दलों को कांग्रेस के साथ आने में मदद कर सकती है। वहीं इन चुनावों में भी अगर कांग्रेस खराब प्रदर्शन करती है तो फिर शायद कांग्रेस को 2019 के रण में अकेले ही भारतीय जनता पार्टी और तीसरे मोर्चे का सामना करना पड़ सकता है। देश के राजनीतिक मूड पर एक थिंक टैंक द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण ने बीजेपी विरोधी खेमे को बहुत उत्साहित कर दिया है। यह सर्वे बताता है कि पिछले कुछ महीनों में नरेंद्र मोदी की रेटिंग में तेज गिरावट आई है, जबकि राहुल गांधी ने अपनी लोकप्रियता में सुधार किया है। नरेंद्र मोदी को लेकर पैदा हुई निराशा मध्य भारत में अधिक स्पष्ट है। ऐसा लगता है कि प्रौढावस्था में प्रवेश कर चुके लोग और मध्यम वर्ग, वादे और अब तक किए गए काम के बीच के अंतर को लेकर सबसे अधिक परेशानी महसूस कर रहे हैं। हालांकि, यह नहीं मालूम है कि ये फीडबैक कैसे प्राप्त हुआ है।
केजरीवाल दे सकते हैं बड़ा दर्द
आम आदमी पार्टी के संस्थापक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। 2011 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन या फिर अन्ना आंदोलन में सुर्खियां बटोरने वाले केजरीवाल ने उस वक्त लोगों को हैरत में डाल दिया था जब इन्होंने राजनीति से इंकार के बाद 2012 में अपनी पार्टी आम आदमी पार्टी बना ली थी। राहुल और अखिलेश के मुकाबले उम्र में बड़े केजरीवाल राजनीतिक रूप से 6 साल के हैं मगर जब उनके इन 6 सालों का अवलोकन किया जाए तो मिलता है कि केजरीवाल ने इन 6 सालों में जो भी किया वो कई मायनों में नामुमकिन है। बात जब मोदी विरोध की आती है तो ऐसे कई मौके आए हैं जब केजरीवाल ने अलग-अलग मंचों से पीएम मोदी और उनकी नीतियों की तीखी आलोचना की है। ये शायद केजरीवाल की राजनीतिक सूझबूझ ही थी जिसके चलते आज केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। मोदी विरोध के मद्देनजर दिल्ली के मुकाबले किसी अन्य राज्य में केजरीवाल एक नाकाम राजनेता हैं। चाहे गोवा हो या फिर पंजाब ज्यादातर जगहों पर केजरीवाल को जनता ने सिरे से खारिज कर दिया था। पहले तमाम तरह के आरोप लगाकर माफी मांगने वाले केजरीवाल को आज भले ही लोग राजनीति में गंभीरता से नहीं लेते मगर जिस तरह अभी हाल फिलहाल में उनकी रैली में चंद्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी, एचडी कुमारस्वामी ने शिरकत की कहना गलत नहीं है कि ये सब बातें आने वाले वक्त में पीएम मोदी को बड़ा सिर दर्द दे सकती हैं।
-दिल्ली से रेणु आगाल