शरणार्थियों का संकट
02-Jul-2018 11:01 AM 1234783
यूरोप में घमासान मचा है। यूरोपीय एकता की दीवारें दरक रही हैं। यूरोपीय संघ के अस्तित्व पर सवाल उठ रहे हैं। और इसकी सबसे बड़ी वजह हैं मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों से आने वाले आप्रवासी, जो अपनी जिंदगी और बेहतर भविष्य की आस में हजारों लाखों की तादाद में यूरोप की तरफ चले आ रहे हैं। संकट इस कदर गंभीर है कि शरणार्थियों का खुले दिल से स्वागत करने वाली जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल न सिर्फ यूरोपीय संघ के स्तर पर लगातार हमले झेल रही हैं, बल्कि उनकी अपनी सरकार पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। उनकी गठबंधन सरकार में गृह मंत्री हॉस्र्ट जेहोफर उन्हें आंख दिखा रहे हैं और जर्मनी में आने वाले शरणार्थियों की संख्या पर हर हाल में पाबंदियां लगाना चाहते हैं। बात यहां तक हो रही है कि अगर जेहोफर की बात नहीं मानी गई तो उनकी पार्टी सीएसयू मैर्केल की सीडीयू पार्टी से अलग हो जाएगी जिसके बाद सरकार का गिरना तय है। सीएसयू अगर सीडीयू के साथ अपना 70 साल से ज्यादा पुराना गठबंधन तोडऩे के बारे में सोच सकती है, तो समझ लीजिए मामला कितना अहम है। दूसरी तरफ पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया और चेक रिपब्लिक, ये चारों देश शरणार्थियों के मुद्दे पर झुकने को तैयार नहीं हैं। यूरोपीय संघ चाहता है कि सभी सदस्य देश शरणार्थी संकट का बोझ मिलजुल कर उठाएं। इसके लिए एक कोटा योजना के तहत सभी सदस्य देशों को निर्धारित संख्या में अपने यहां शरणार्थियों को बसाना है। लेकिन पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया और चेक रिपब्लिक को यह बिल्कुल मंजूर नहीं। इन देशों ने उस बैठक का भी बहिष्कार करने का ऐलान किया जो यूरोपीय आयोग के प्रमुख जॉ क्लोद युंकर और जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने आप्रवासी नीति पर चर्चा करने के लिए बुलाई है। 2015 के शरणार्थी संकट के बाद से ही ये देश इस मुद्दे पर यूरोपीय संघ में बागी तेवर अपनाए हुए हैं। अब इनमें कुछ और आवाजें मिल गई हैं। मिसाल के तौर पर ऑस्ट्रिया के युवा चांसलर सेबास्टियन कुत्र्स भी कड़ी आप्रवासन नीति की वकालत कर रहे हैं। उनका कहना है कि यूरोपीय संघ के सदस्यों को इस बात के लिए बाध्य नहीं नहीं किया जा सकता कि वे अपने यहां शरणार्थियों बसाएं। कुत्र्स 31 साल के हैं और उन्होंने पिछले साल ऑस्ट्रिया की सत्ता संभाली है। वह खुद कंजरवेटिव हैं और धुर दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं। कुत्र्स के नेतृत्व में ऑस्ट्रिया यूरोपीय संघ के लिए सिर दर्द बन रहे पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया और चेक रिपब्लिक के करीब जा रहा है। इन बागी आवाजों में सबसे ताजा स्वर इटली का मिला है, जहां पिछले दिनों धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने मिल कर सरकार बनाई है। इटली के नए गृह मंत्री मातेओ सालविनी शरणार्थी विरोधी तेवरों के लिए जाने जाते हैं। सालविनी चुनावों में जनता से किए गए वादे के प्रति गंभीर दिखाई देते हैं। यह वादा था इटली की धरती से एक लाख शरणार्थियों को जल्द से जल्द डिपोर्ट करना। और यह काम शुरू भी हो चुका है। पिछले हफ्ते इटली की सरकार ने एक शिप को वापस लौटा दिया जिस पर 630 लोग सवार थे। बाद में यह शिप स्पेन पहुंचा, जिसने शरणार्थियों को लेने की इजाजत दी थी। इटली में पिछले कुछ सालों में नौकाओं पर सवार होकर लगभग दर्जनों देशों के लगभग छह लाख लोग पहुंचे हैं। इनमें से कुछ लोग चकमा देकर दूसरे यूरोपीय देशों में भाग गए हैं। लेकिन ज्यादातर इटली में ही मौजूद हैं और वहीं उन्होंने शरण के लिए आवेदन दिया है। इस तरह के लगभग 1.33 लाख आवेदन पेंडिंग पड़े हैं। यूरोप पर बढ़ता दबाव बेहतर जिंदगी और बेहतर भविष्य की तलाश में इंसान हमेशा से भटकता रहा है। इसलिए आप्रवासन नया नहीं है। लेकिन मध्य पूर्व और अफ्रीका में चल रहे संकटों ने जिस तादाद में लोगों को यूरोप की तरफ धकेला है, वह अभूतपूर्व है। इसलिए यूरोप के शरणार्थी संकट की जड़ अफ्रीका और मध्य पूर्व में है। जब तक वहां हालात बेहतर नहीं होंगे, यूरोप को राहत नहीं मिलेगी। सैकड़ों-हजारों लोगों को लेकर समंदर में हिचकौले खाती नौकाएं यूरोप की तरफ आती रहेंगी। इसलिए जरूरत मध्य पूर्व और अफ्रीका में सघन कूटनीतिक पहल की है, जो फिलहाल दिखाई नहीं देती। यूरोपीय संघ के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल इटली ने सात हजार से ज्यादा लोगों को अपने यहां से निकाला है। -अक्स ब्यूरो
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