सामंती सरकार
03-Jul-2018 08:23 AM 1234838
वसुंधरा राजे सरकार पानी नाक तक आने के बाद ही जागती है। हालात को समय रहते नहीं भांपने का खमियाजा आज राजस्थान के आमजन को भुगतना पड़ रहा है। थोड़ा सा पीछे चलते हैं। समूचे प्रदेश में तकरीबन 3 महीने चली डाक्टरों की हड़ताल आखिरकार खत्म हो गई। सरकार की ओर से सभी मांगें माने जाने के बाद वे काम पर लौट आए। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि जब सरकार को डाक्टरों की मांगें माननी ही थीं तो 3 महीने तक प्रदेश के मेडिकल इंतजाम को किस के भरोसे छोड़ा गया? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब वसुंधरा सरकार की सुस्ती की वजह से बेवजह आंदोलन लंबा खिचा हो। बीते एक साल का यह तीसरा बड़ा आंदोलन था, जिसने सरकार की सुस्ती की वजह से तूल पकड़ा और आखिर में वह उसके लिए सिरदर्द बन गया। बेवजह की हठ राज्य के सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे डाक्टरों का संगठन अपनी 33 मांगों को लेकर 3 महीने तक काम छोड़ कर बैठा था। इस बीच सरकार ने 4 नवंबर, 2017 को संगठन के पदाधिकारियों को बातचीत के लिए बुलाया। इस बैठक में चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ और चिकित्सा सचिव की मौजूदगी में चिकित्सा महकमे के अतिरिक्त निदेशक के डाक्टरों के खिलाफ टिप्पणी करने से माहौल बिगड़ गया। संगठन के पदाधिकारी न सिर्फ बैठक बीच में ही छोड़ कर आ गए, बल्कि प्रदेश के सभी डाक्टरों ने अपने इस्तीफे भी सरकार को भेज दिए। अगले दिन चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ ने डाक्टरों को बातचीत के लिए तो बुलाया लेकिन संगठन के पदाधिकारियों के बजाय अपने चहेते डाक्टरों को न्योता दिया। इस बैठक के बाद सराफ ने बयान दिया कि सरकार ने डाक्टरों की सभी मांगें मान ली हैं, लेकिन उनके संगठन के पदाधिकारी समझौते पर दस्तखत करने नहीं आ रहे। दरअसल, डाक्टरों के संगठन के पदाधिकारियों को यह डर हो गया कि सरकार समझौता करने के बजाय फूट डालो और राज करोÓ की चाल पर काम कर रही है। इसमें उलझने के बजाय वे 6 नवंबर, 2017 से हड़ताल पर चले गए। इससे समूचे प्रदेश की मेडिकल व्यवस्था चरमरा गई। इस दौरान सरकार पूरी तरह से भरम में नजर आई। कभी डाक्टरों को बातचीत के लिए बुलाया गया तो कभी उन्हें राजस्थान आवश्यक सेवा कानून यानी रेसमा का डर दिखाया गया। इसी तरह सीकर में हुए किसान आंदोलन और गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के ऐनकाउंटर की सीबीआई जांच की मांग को लेकर हुए आंदोलन से भी सरकार समय रहते नहीं निपट पाई। इन तीनों आंदोलनों की गंभीरता को न तो सरकार का खुफिया तंत्र भांप पाया और न ही इनको खत्म करने के लिए सरकार समय रहते कारगर नीति बना पाई। इसका अंजाम यह हुआ कि ये आंदोलन बड़े पैमाने पर फेल गए और इनसे आम जनजीवन पर भी असर पड़ा। आखिरकार सरकार को आंदोलनकारियों की मांगों के सामने झुकते हुए समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा। आनंदपाल सिंह के ऐनकाउंटर की सीबीआई जांच के लिए हुए आंदोलन से निपटने में भी सरकार की लेटलतीफी सामने आई थी। इस कुख्यात गैंगस्टर का ऐनकाउंटर 24 जून, 2017 को हुआ था। आनंदपाल के परिवार वालों और राजपूत समाज के नेताओं ने ऐनकाउंटर को फर्जी बताते हुए सीबीआई जांच की मांग की। परिवार वालों ने सीबीआई जांच के आदेश नहीं होने तक अंतिम संस्कार नहीं करने की जिद पकड़ ली। इसके बावजूद सरकार टस से मस नहीं हुई। काले कानून से फजीहत सरकारी मुलाजिमों को बचाने वाले बिल सीआरपीसी संशोधन विधेयक, 2017 को लेकर भी वसुंधरा राजे सरकार को मुंह की खानी पड़ी। विधानसभा के अंदर और बाहर भारी विरोध के बावजूद राजस्थान सरकार ने इस बिल को विधानसभा में पेश किया था। गौरतलब है कि राजस्थान सरकार के इस विवादित अध्यादेश को कांग्रेस ने काला कानून बताते हुए जोरदार विरोध किया था। इस बिल के खिलाफ कांग्रेस ने जहां सदन से वाकआउट किया, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की अगुआई में विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया गया। प्रशासन ने कांग्रेस के विरोध मार्च की इजाजत नहीं दी तो कांग्रेस ने गिरफ्तारियां दीं। सचिन पायलट ने इसे काला कानून बताते हुए कहा कि जब तक यह बिल वापस नहीं होगा तब तक हम चैन से नहीं बैठेंगे। इस बिल को राजस्थान हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। एडवोकेट एके जैन ने याचिका दायर कर दंड विधि राजस्थान संशोधन अध्यादेश, 2017 में अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन बताते हुए इसकी वैधता को चुनौती दी। नीति और नीयत में खोट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने राज्य की भाजपा सरकार पर चुनावी वादे पूरे नहीं करने का आरोप लगाया है। -जयपुर से आर.के. बिन्नानी
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