03-Jul-2018 08:19 AM
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जम्मू-कश्मीर में आठवीं बार गवर्नर रूल लागू हो चुका है। यही कश्मीर की किस्मत का सबसे कमजोर पक्ष है जो गुजरते वक्त के साथ फितरत का रूप हासिल करता जा रहा है। ये ठीक है कि जिन साझा फैसलों की स्थिति में महबूबा बाधक बनती रही होंगी वो सब अब नहीं रहा। अब न तो सीजफायर की तारीख बढ़ाने के लिए काउंसिलिंग करनी पड़ेगी और न ही किसी दहशतगर्द के एनकाउंटर में मारे जाने के बाद केंद्र की मोदी सरकार को असहज करने वाली कोई बात सुननी पड़ेगी। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद महबूबा के बयान का आशय कुछ ऐसा रहा कि उन्हें खबर होती तो वो वानी को बचाने की कोशिश जरूरत करतीं।
अब सेना और सुरक्षा बलों का ऑपरेशन भी बेधड़क चलता रहेगा और सेना के खिलाफ कोई एक्शन लेने से पहले राज्य की पुलिस भी दो बार सोचेगी, लेकिन वैसा तो बिलकुल ही नहीं कर पाएगी जैसा उसने लितुल गोगोई के साथ किया। अब कठुआ रेप जैसी घटनाओं पर वैसी राजनीति भी नहीं होंगी कि सरकार का एक धड़ा पीडि़त के साथ खड़ा हो और दूसरा आरोपियों के साथ। संभव है शुजात बुखारी के हत्यारे जल्दी ही पकड़ लिये जायें - और औरंगजेब को मार डालने वाले देश के दुश्मनों से भी जल्द से जल्द बदला ले लिया जाये। औरंगजेब की हत्या की जांच से जुड़े एक सीनियर अफसर ने इंडिया टुडे टीवी को बताया, सैनिकों की हिफाजत के तमाम तरीके बने हुए हैं, खास तौर पर जो जम्मू कश्मीर से हैं। कहीं कोई चूक जरूर लगती है।
मोदी सरकार का मिशन कश्मीर पहले से ही तैयार था। तीन साल दो महीने पुराना गठबंधन तोडऩे के साथ ही बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार अपने मिशन कश्मीर में जुट गयी है। पांच दिन बाद ही सही, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण भी पुंछ जाकर औरंगजेब के घरवालों से मिल आयी हैं। रक्षा मंत्री के ऐन पहले आर्मी चीफ बिपिन रावत पहुंचे ही थे। जाने को तो पहले भी
जाया जा सकता था, लेकिन महबूबा सरकार के रहते संभवत: सही संदेश देना मुमकिन न हो पा रहा होगा।
बीजेपी की बड़ी परेशानी पाकिस्तान से बातचीत के साथ-साथ अलगाववादियों और पत्थरबाजों से निपटने के तौर तरीकों पर महबूबा मुफ्ती के साथ चल रहा मतभेद रहा। ये धीरे-धीरे, रोज-रोज के मियां-बीवी के झगड़े का रूप लेता गया - और उसका आखिरी पड़ाव अलगाव ही बचा था। महबूबा से सियासी और गवर्नेंस का रिश्ता खत्म हो जाने के बाद अब बीजेपी की नीतियां बेधड़क रफ्तार भर सकती हैं। जाहिर है इसके चलते सुरक्षा बलों को भी फ्री हैंड मिलेगा और बीजेपी इसे चुनाव के दौरान पूरे देश में बतौर गौरव गाथा पेश कर सकेगी।
अगर जम्मू-कश्मीर में सरकार नहीं बन पायी होती तो अब तक कई बार गवर्नर रूल एक्सटेंड करना पड़ा होता या फिर चुनाव कराना पड़ता। बीजेपी को मालूम था आगे के चुनावों में जीत का पुराना नंबर दोहराया नहीं जा सकता था, इसलिए खींचतान कर साझी सरकार को इतने दिन ढोती रही। जब जरूरत पूरी हो गयी, मामला खत्म कर दिया। जैसे एक तरफा सीजफायर रहा हो। अब कम से कम बीजेपी को जम्मू-कश्मीर के खराब हालात का ठीकरा फोडऩे के लिए एक ऑब्जेक्ट तो है। अगर खुद ही को सब कुछ करना होता तो तय था कुछ भी ऐसा संभव न था - फिर पल्ला झाडऩे के लिए आखिर कौन होता? बीजेपी ने अपने हिसाब से पीडीपी के कंधे पर बंदूक रख पूरा फायदा उठाया और मतलब पूरा हो गया तो रास्ते से ही हटा दिया।
बीजेपी का पूरा रोड मैप तैयार है
बीजेपी के समर्थन वापसी की खबर सिर्फ उनके लिए चौंकाने वाली रही जो इस बेमेल रिश्ते को पक्का मान कर चल थे या वे लोग जो राजनाथ सिंह के जम्मू-कश्मीर दौरे को ठीक से पढ़ नहीं पाये या फिर वे जिन्हें बीजेपी की सूरजकुंड मीटिंग से कश्मीर पर चर्चा में कोई गंभीर बात समझ नहीं आयी। सच तो ये है कि बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर और उससे आगे 2019 के लिए पूरा रोड मैप तैयार करने के बाद ही महबूबा सरकार की बलि देने का फैसला किया। गठबंधन टूटने और सेना की कार्रवाई तेज होने से बीजेपी समर्थकों और मोदी के फैन जरूर खुश होंगे। खासकर वे जो इस बात में यकीन रखते हैं कि शठे शाठ्यम् समाचरेत जैसा जवाब सिर्फ मोदी ही दे सकते हैं। वैसे ये बातें मोदी के मुंह से ही अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं। मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी विरासत संभाल रहीं महबूबा मुफ्ती लोगों को अब तक यही समझाती रहीं कि बीजेपी के साथ हाथ कश्मीर के हित में मिलाया गया है। अब तो महबूबा के पास बताने के लिए सिफर ही है। सिवा कुछ दिन तक सरकार चलाने के बताने लायक तो कोई उपलब्धि है नहीं। बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती बोलीं, हमने 11 हजार नौजवानों के खिलाफ केस वापस करवाया। जोर जबर्दस्ती से जम्मू-कश्मीर में कोई पॉलिसी लागू नहीं होने दी। हमने यहां धारा 370 को महफूज रखा है। न तो एजेंडा ऑफ अलाएंस का कुछ लागू हुआ, न पाकिस्तान से बात हुई और न ही कश्मीरी नौजवानों के लिए कोई ऐसी व्यवस्था बन पायी जिसका आगे भी फायदा नजर आये।
-बिंदु माथुर