दलित की बैसाखी
03-Jul-2018 08:12 AM 1234781
मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के बीच गठबंधन होने की संभावना कम दिख रही है। यहां विधानसभा चुनाव होने में अभी 5 महीने बाकी हैं और कांग्रेस ने दलित कार्ड खेलते हुए उप-मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान कर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि पार्टी ने इस पद के लिए दलित नेता सुरेंद्र चौधरी का नाम आगे बढ़ाया है, जबकि मुख्यमंत्री के नाम पर अभी सस्पेंस बरकरार है। कांग्रेस ने इस नाम का ऐलान तब किया है जब हाल में बीएसपी प्रमुख मायावती ने मध्य प्रदेश में गठबंधन के सवाल को सिरे से खारिज कर दिया। मायावती ने गठबंधन की संभावना से इनकार करते हुए कहा कि कांग्रेस के साथ उनकी कोई बात नहीं चल रही और अगले विधानसभा चुनाव में बीएसपी सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य प्रदेश में कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन होता है तो इसे खेल बदलने वाली रणनीति मान सकते हैं क्योंकि इससे दोनों पार्टियां मिलकर दलित वोटों को आसानी से गोलबंद कर सकेंगी। एक तरफ मायावती का ऐकला चलो का ऐलान और दूसरी तरफ कांग्रेस का किसी दलित नेता को डिप्टी सीएम के लिए तैयार करना, विधानसभा चुनावों से पहले किसी अलहदा सियासी गणित की आहट के तौर पर देखा जा रहा है। डिप्टी सीएम के लिए सुरेंद्र चौधरी के नाम का ऐलान किसी और ने नहीं बल्कि प्रदेश पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रभारी दीपक बाबरिया ने खुद किया है। उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर दलितों को तरजीह दी जाएगी। इस आधार पर सुरेंद्र चौधरी इस पद के लिए बेहतर उम्मीदवार होंगे। बाबरिया ने एक कार्यक्रम में कहा कि जमुना देवी जिस तरह मध्य प्रदेश में डिप्टी सीएम बनाई गई थीं, उसी तरह प्रदेश में अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो सुरेंद्र चौधरी डिप्टी सीएम हो सकते हैं। जमुना देवी आदिवासी समुदाय से थीं जिन्हें मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता विपक्ष का ओहदा दिया गया था। बाबरिया ने न्यूज 18 से यह भी कहा कि ये कांग्रेस पार्टी ही है जिसने देश को दलित राष्ट्रपति और दलित मुख्यमंत्री (मध्य प्रदेश) दिया। कांग्रेस के इस ऐलान के साथ ही बीजेपी ने उस पर हमला बोला। पार्टी प्रवक्ता डॉ. हितेश वाजपेयी ने कहा, कांग्रेस ने दलितों का कितना अपमान किया है जो डिप्टी सीएम के लिए नाम की घोषणा की। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद के लिए किसी दलित के नाम का ऐलान क्यों नहीं किया? मप्र में कांग्रेस के गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकराकर बसपा कर्नाटक फॉर्मूले पर सरकार बनाने की जुगत में जुट गई है। इसके लिए राज्य के 15.62 फीसदी दलित वोटरों को साधने के लिए मायावती पूरी तरह से चुनावी मैदान में घुसने की तैयारी कर रही हैं। सवाल उठता है कि क्यों मायावती गठबंधन के बजाय चुनाव में पूरी तरह से उतरना चाहती हैं। ऐसी क्या ताकत है बसपा के पास जिसको लेकर वो इतने आत्मविश्वास से भरी है। दरअसल, मायावती का ज्यादातर वोटर गरीब और दबा-कुचला वर्ग है। इस वर्ग की एकता अलग होती है और उनका सबसे महत्वपूर्ण सरोकार सम्मान से जुड़ा होता है। इस सम्मान के लिए जो नेता खड़ा होता है उसका वो दिल से समर्थन करते हैं। मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं और इस दौरान उन्होंने बाकायदा दलितों के सम्मान की लड़ाई लड़ी। मायावती खुद दलित वर्ग से आती हैं ऐसे में उनका वोटर अपने सपने को मायावती के जरिए पूरा होता देखता है। यही वजह है मायावती का वोटर बाकायदा अपने नेता के प्रति वफादार है। मप्र में भी मायावती यही माहौल बनाने जा रही हैं। मध्यप्रदेश में बसपा ने 1990 में पहली बार चुनावी कदम रखा था। हालांकि 28 साल बाद भी वो मध्यप्रदेश में तीसरी मजबूत पार्टी नहीं बन पाई थी। लेकिन बसपा ने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू कर दिया था। बसपा ने 1990 में साढ़े तीन फीसदी वोटों के साथ अपना सफर शुरू किया था। वह दो सीटें हासिल करने में सफल रही थी। इसके बाद 1993 और 1998 में वो धीरे-धीरे 7.02 और 6.04 फीसदी वोट हासिल कर 11-11 सीटें उसने हासिल की। साल 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर और भाजपा के जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद बसपा दो सीटों पर सिमटी, लेकिन उसने वोट फीसदी बढ़ाकर 7.26 कर लिया। इसके बाद 2008 में 7 सीटें जीती और 8.72 फीसदी वोट तक पहुंच गई। मध्यप्रदेश विधानसभा के 2013 के चुनाव में भी बसपा को करीब 6.5 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ चार सीटें मिलीं थीं। प्रदेश में तीसरे दल की संभावना मध्यप्रदेश की सत्ता कांग्रेस और भाजपा के बीच में उछल-कूद करती है। हालांकि 2003 में कांग्रेस की सबसे बुरी हार हुई है। उसके बाद से प्रदेश में भाजपा की सरकार रही लेकिन 15 साल की भाजपा की सरकार को कांग्रेस चुनौती दे रही है। कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान बसपा के चुनाव मैदान में होने से होता है। कांग्रेस के इस परंपरागत वोटर को तोडऩे की कोशिशें कांशीराम के जमाने से चल रही हैं। यही वजह थी कि इस बार कांग्रेस गठबंधन पर विचार कर रही थी लेकिन बसपा ने कांग्रेस की कोशिशों पर पानी फेर दिया। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती अपने कोर वोट बैंक की वजह से ही अपनी शर्तों पर अड़ती हैं। मध्यप्रदेश में 15.62 फीसदी दलित वोटर है जो कि सारी पार्टियों में बंटे हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा की 230 सीटें हैं। सरकार बनाने के लिए 116 सीटों की जरूरत होती है। मायावती की बीएसपी की कोशिश है कि वो 50-55 सीटों पर जीत हासिल करे। अगर वो ऐसा करने में सफल हो गई तो कर्नाटक के फॉर्मूले के हिसाब से अगली सरकार बीएसपी की बनेगी। - भोपाल से अरविंद नारद
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