02-Jul-2018 11:08 AM
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नौ दिन उपराज्यपाल के कार्यालय में सोफा धरना करने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दस दिन के लिए बेंगलूरु चले गए। बताया गया है कि नौ दिन के सोफा धरने के कारण केजरीवाल के शरीर में शुगर बढ़ गई थी। अपने मधुमेह का इलाज कराने के लिए मुख्यमंत्री साहब प्राकृतिक चिकित्सा के लिए बेंगलूरु पहुंचे हैं। अरविंद के खराब स्वास्थ्य के कारण आईएएस अधिकारियों के साथ उनकी बैठक भी लटक गई है। दिलचस्प यह है कि केजरीवाल जब बेंगलुरु से लौटेंगे तो वो फिर एक आंदोलन में व्यस्त हो जाएंगे। गौरतलब है कि 1 जुलाई से आम आदमी पार्टी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की मांग को लेकर आंदोलन करने वाली है। आप ने 1 जुलाई को इस विषय पर महा-सम्मेलन बुलाने का निर्णय किया है। यदि आम आदमी पार्टी इसी प्रकार धरने और आंदोलनों में व्यस्त रहेगी तो दिल्ली की समस्याओं पर काम कैसे होगा?
मुख्यमंत्री होने के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने किसी भी विभाग का कार्यभार नहीं लिया हुआ है। इस तथ्य से यह अंदाजा लग सकता है कि दिल्ली की समस्याओं के निवारण के लिए वह कितने चिंतित होंगे। जब किसी व्यक्ति के पास किसी विभाग का कार्यभार ही नहीं होगा तो कोई उस पर काम पूरा न करने का आरोप ही नहीं लगा पाएगा। उस व्यक्ति की कोई जवाबदेही ही नहीं होगी। ऐसे व्यक्ति के काम का कैसे मूल्यांकन होगा? कहावत है- खाली दिमाग शैतान का घर जो दिल्ली के मुख्यमंत्री पर ठीक बैठती है। जिस व्यक्ति के पास कोई काम नहीं होगा, वह हर समय धरने और आंदोलन करने के बारे में ही सोचता रहेगा।
वर्तमान में दिल्ली के कई क्षेत्र पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं। पानी के लिए शहर में हत्याएं हो रही हैं। शहर में प्रदूषण की समस्या दिन प्रतिदिन विकराल रूप लेती जा रही है। दिल्ली सरकार के पास प्रदूषण से लडऩे की कोई रणनीति नजर नहीं आ रही है। समय के साथ-साथ डीटीसी की बसें पुरानी होती जा रही हैं पर उनके स्थान पर नई बसें वर्षों से नहीं आई हैं। दिल्ली के यातायात मंत्री कई वर्षों से नई डीटीसी लाने की बात कर रहे हैं, पर वह केवल खोखले आश्वासन ही प्रतीत होते हैं। शहर में सीलिंग का मुद्दा जस का तस लटका पड़ा है। दिल्ली सरकार के अनेक मोहल्ला क्लीनिक व्यवस्था के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। इतनी सारी ज्वलंत समस्याओं का समाधान करने के बजाए दिल्ली सरकार के मंत्री और स्वयं मुख्यमंत्री उपराज्यपाल से लडऩे में ही अपनी सारी शक्ति लगा रहे हैं। तीन सालों से दिल्ली की जनता अपने मुख्यमंत्री से यह उम्मीद लगाकर बैठी है कि वह शहर की समस्याओं का निदान करेंगे। अभी तक तो दिल्ली वालों को निराशा ही हाथ लगी है। काम की अपेक्षा करना, शायद अरविंद केजरीवाल से कुछ ज्यादा की उम्मीद करना है। लोक सभा चुनाव में अब एक साल से भी कम का वक्त बचा है। पिछले तीन साल के तमाशे से यह साफ लगता है कि दिल्ली को एक और साल इस तमाशे को झेलना होगा।
कभी-कभी किस्मत वाली व्यवस्था सही लगने लगती है। जो लोग किस्मत में यकीन रखते हैं उन्हें संविधान द्वारा निजता के अधिकार के तहत हक हासिल है। ऐसा ही हक वे भी जताते हैं जो सस्ते पेट्रोल-डीजल के लिए खुद को किस्मत वाला बताते हैं और बढ़ते गैस, डीजल, पेट्रोल के दाम के लिए दुनिया भर की दुश्वारियां गिनाने लगते हैं।
आखिर ये सामूहिक किस्मत नहीं तो और क्या है भला? सीरिया से अफगानिस्तान तक। वैसे इतनी दूर जाने की जरूरत भी क्या है? ऐसी बातों के लिए फिलहाल तो कोई भी नहीं कहेगा कि दिल्ली दूर है। दिल्ली का भी दम वैसे ही घुट रहा है - प्रदूषण का स्तर आउट ऑफ कंट्रोल हो चुका है। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है और बिजली का क्या मर्जी की मालिक है। जब मर्जी आयी, जब मन किया चल दी। हालांकि, ये हालत सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है, दिल्ली से सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और उससे आगे भी हालात तकरीबन एक जैसे ही हैं। समझने के लिए दिल्ली बेहतरीन उदाहरण जरूर है।
विपक्षी एकता में भी दिखी दरार
आप के विरोध का समर्थन करने वालों के लिए बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सामने आया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल एंड टीम से अपनी एकजुटता व्यक्त की। दिल्ली में मुख्यमंत्रियों द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस ने केजरीवाल के विरोध को जनता के बीच स्थापित कर दिया और लोगों की नजरों में ला दिया। हर कोई यही सवाल पूछ रहा है कि आखिर क्यों कांग्रेस ने केजरीवाल का समर्थन नहीं किया है। कुछ लोगों ने दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अजय माकन को इसके लिए दोषी ठहराया। भले ही उन्होंने माकन को दोषी ठहराने के चक्कर में राहुल गांधी द्वारा इस विरोध पर ध्यान न देने को अनदेखा कर दिया। सवाल यह है कि विपक्षी एकता को हमेशा कांग्रेस की सुविधा के अनुसार ही देखा जाता है? वैसे, लोगों को जल्दी भूलने की आदत है। नहीं तो क्या किसी को भी याद है कि 2013 में जब कांग्रेस बहुमत से चूक गई थी तो कैसे तुरंत उसने आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया था? क्या कोई अन्य इस तरह अपमानित करने वाली पार्टी को बिना शर्त समर्थन देगी? अभी के लिए बात बस ये है कि केजरीवाल द्वारा माफी मांगने से ही काम बन सकते हैं। आखिर आप के इस खुद खड़े किए गए संकट के लिए कोई दूसरा उनके समर्थन में क्यों खड़ा हो? कांग्रेस में कई गलतियां हैं। लेकिन फिर भी इसे क्षेत्रीय दलों के कहने में आकर भाजपा के साथ सीधी टक्कर नहीं लेनी चाहिए। जो भी उदार बुद्धिजीवी आम आदमी का समर्थन कर रहे हैं उनके लिए आगे एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा है और जिसका जवाब आम आदमी पार्टी को देना होगा।
- कुमार राजेंद्र