02-Jul-2018 11:04 AM
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जिगर मुरादाबादी का एक शेर है...
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास
दर्द होता है या नहीं होता
...जी हां, कुछ ऐसा ही हाल है हमारे माननीयों का। जनता का दुख-दर्द हरने, जनता की समस्याओं का निराकरण करने, विकास की योजनाओं को धरातल पर उताने की नैतिकतापूर्ण बात करने वाले माननीयों को जब मौका मिलता है तो वे नैतिकता को भूल अनैतिकता पर उतर जाते हैं। ऐसा ही नजारा मप्र विधानसभा के मानसून सत्र में देखने को मिला। चुनावी साल में पांच दिनी मानसून सत्र पांच घंटे भी नहीं चला। दो दिन में करीब चार घंटे चले मानसून सत्र में जहां कांग्रेस हंगामें पर उतारू रही, वहीं सत्तारूढ़ भाजपा बजट और बिल पास कराने में तुली रही। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जनता ने इसीलिए इन माननीयों को अपना बहुमूल्य वोट देकर भेजा है। वैसे यह पहला सत्र नहीं है जब विधानसभा का सत्र कम दिनों में सिमट गया, बल्कि पिछले 15 साल में यही देखने को मिला है।
किसी भी लोकतंत्र में सदन ही सर्वोच्च होता है। वहां लोकतंत्र के भाग्य का फैसला होता है लेकिन मध्यप्रदेश की विधानसभा में जो कुछ होता है, उसे माननीयों का सम्मेलन तो कतई नहीं कहा जा सकता। बहस होती है, आरोप प्रत्यारोप भी होते हैं। विधानसभा अध्यक्ष शांति स्थापना के लिए सदन को कुछ देर के लिए स्थगित कर दें यह भी उचित है परंतु एक बात कभी समझ में नहीं आती कि सदन को अगले दिन तक के लिए स्थगित क्यों कर दिया जाता है। इसके अलावा एक और अजीब सी बात नजर आती है। कांग्रेस वाले बाहर निकलकर कहते हैं कि सरकार जल्दी से जल्दी सदन समाप्त करना चाहती है।
चार घंटे का सत्र
मप्र के इतिहास में 25 जून से 30 जून तक आयोजित किया गया मानसून सत्र अब तक का सबसे छोटा सत्र रहा। यह सत्र दो दिन में मात्र चार घंटे ही चल सका। सत्र में अनुपूरक बजट के अलावा जो 17 विधेयक पेश होना थे, वो भी बिना चर्चा के पारित कर दिए गए। भाजपा विधायक नीलम मिश्रा ने सरकार को मुश्किल में डाल दिया। नीलम ने मंत्री राजेंद्र शुक्ला पर गंभीर आरोप लगाए। मानसून सत्र के लिए 1,376 प्रश्नों पूछे गए थे। ध्यानाकर्षण के 236, स्थगन प्रस्ताव के 03, अशासकीय संकल्प के 17, शून्यकाल के 36 तथा याचिकाओं की 15 सूचनाएं सदन को मिली थीं। जिन पर कोई चर्चा नहीं हो सकी। कुल मिलाकर जनता से जुड़े एक भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर सदन में चर्चा नहीं हो सकी।
यही नहीं मानसून सत्र में सत्तापक्ष-विपक्ष के बीच मर्यादाएं तो तार-तार हुई हीं, साथ ही विधानसभा अध्यक्ष की कार्यशैली पर भी सवाल खड़े हुए। नाराज कांग्रेस विधायक डॉ. गोविंद सिंह ने अध्यक्ष की आसंदी के पास जाकर सदन संचालन के लिए बने नियमों की प्रतियां फाड़ दी। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने अध्यक्ष पर एकपक्षीय काम करने का आरोप लगाया। सरकार ने जवाब में कहा कि विपक्ष सदन को चलाना ही नहीं चाहता, इसलिए हंगामा कर रहा है। बहरहाल, लगातार सदन की कार्यवाही स्थगित होने के बाद अध्यक्ष ने विधानसभा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया। इस दौरान तमाम विधेयक और अनुपूरक बजट पारित कर सरकार ने अपना हित साध लिया।
लोकतंत्र हल्लातंत्र में परिवर्तित
मप्र में पिछले 14 साल से देखा गया है कि विधानसभा सत्र के दौरा सत्तापक्ष और विपक्ष सदन में चर्चा करने की जगह हंगामें पर अधिक जोर देते रहे। इस संदर्भ में विधानसभा अध्यक्ष सीतासरन शर्मा कहते हैं कि इस बार सदन में जो कुछ हुआ वह अच्छी परिस्थिति नहीं कही जा सकती। हम भी चाहते थे कि सदन पूरे समय चले और चर्चा हो। लोकतंत्र हल्ला तंत्र में परिवर्तित हो रहा हैं। मैंने अनुरोध किया था कि प्रश्नकाल हो जाने दिए जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उधर, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह समेत कांग्रेस विधायकों और कार्यवाहक अध्यक्ष जीतू पटवारी का कहना है कि हमेशा संसदीय कार्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष प्रश्नकाल न चलने का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते थे, जबकि सरकार ही नहीं चाहती है कि सदन चले।
वैसे जब भी कोई सत्र पूरा नहीं चलता है तो दोनों पार्टियों के नेता एक-दूसरे पर आरोप मढ़कर अपने को निर्दोष बताते हैं, लेकिन इसके लिए वे सभी 230 विधायक दोषी हैं जिन्हें वेतन जनता के पैसों से मिलता है। जिस कार में वे सवार हैं, उसका ईंधन भी जनता अपना पेट काटकर देती है। नोक-झोंक, रोक-टोक, आकस्मिक व्यवधान, व्यंग्य-विनोद, हाजिर जवाबी और तर्क चातुर्य ऐसी विधाएं हैं, जो लोकसभा और विधानसभा की कार्यवाही को जीवंत बनाती हैं। ये मौलिक बहस का सृजन और साथ ही माननीयोंं की तत्क्षण स्फूर्त बोलने की क्षमता का निर्माण करती हैं। यह तभी संभव है, जब संसद निर्धारित अवधि पर मिले, पर्याप्त बैठकें हों, वैचारिक उदारता हो और सबसे बड़ी बात है कि सदन सुचारू रूप से चले। लेकिन 14वीं विधानसभा में मप्र के माननीयों में ऐसा भाव कभी नहीं दिखा कि वे सदन चलाने को उत्सुक हैं।
प्रति वर्ष औसतन 30 बैठकें
मध्यप्रदेश विधानसभा की बैठकों में पिछले डेढ़ दशक से धीरे-धीरे हर साल कमी हो रही है। इसके लिए मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार को दोषी ठहराया है। पिछले 15 साल में विधानसभा की प्रति वर्ष औसतन 30 बैठकें ही हुई हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष सीतासरन शर्मा इस पर चिंता जाहिर करते हुए इसके लिए मुख्य रूप से सदन में हो रहे हंगामे को जिम्मेदार ठहराया और इसमें सुधार की अपील की। हालांकि, कांग्रेस ने इन बैठकों के कम होने के लिए सरकार पर आरोप लगाया। मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय सिंह कहते हैं कि वर्तमान में विधानसभा की कम बैठकें होने के लिए भाजपा सरकार जिम्मेदार है। कांग्रेस की सरकार के दौरान विधानसभा की बैठकें वर्तमान भाजपानीत सरकार के मुकाबले करीब दोगुनी हुआ करती थी। भाजपा किसी भी मुद्दे पर कभी भी चर्चा की अनुमति देने में दिलचस्पी नहीं लेती है, जिससे सरकार को परेशानियों होती है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले तीन दशक में विधानसभा की बैठकें धीरे-धीरे कम हो रही हैं। पिछले 15 साल में हर साल औसतन 30-31 बैठकें ही हुई हैं। विधानसभा की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भाजपा के शासनकाल के दौरान पिछले 15 वर्ष में विधानसभा की बैठकें काफी कम हुई हैं। भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल में वर्ष 2003 से 2008 के बीच विधानसभा की केवल 158 बैठकें हुईं, दूसरे कार्यकाल में वर्ष 2008 से 2013 के बीच केवल 167 बैठकें, जबकि तीसरे कार्यकाल वर्ष 2013 से 2018 के बीच अब तक 136 बैठकें हुई हैं। शर्मा कहते हैं कि विधानसभा की बैठकें विभिन्न कारणों से कम हुई हैं। विधायक एवं आमजन ऐसा मानने लगे हैं कि सदन में हंगामा करने से विधायक सरकार से अपना कार्य करवा लेंगे और इसके साथ-साथ उनको पब्लिसिटी भी मिलेगी। इस धारणा को बदलने की जरूरत है। वह कहते हैं कि असलियत में इस हंगामे की बजाय जनकल्याण से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर सकारात्मक चर्चा होनी चाहिए। इसके लिए हम सेमिनार आयोजित करेंगे, ताकि जनप्रतिनिधियों पर सदन में हंगामा न करने के लिए जनता का दबाब बनाया जा सके। अगर विधायकगण सदन में हो-हल्ला नहीं करें तो विधानसभा की प्रति वर्ष कम से कम 42 से 45 बैठकें हो जाती।
वर्ष 1993 से वर्ष 2003 तक मध्यप्रदेश में रही कांग्रेस सरकार में विधानसभा की भाजपा नीत सरकार के मुकाबले विधानसभा की काफी ज्यादा बैठकें हुई। कांग्रेस की उस सरकार के दौरान वर्ष 1993 से 1998 तक विधानसभा की कुल 282 बैठकें हुईं, जबकि वर्ष 1998 से 2003 तक कुल 288 बैठकें हुईं। गौरतलब है कि जनवरी 2016 में अहमदाबाद में वैधानिक समिति के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में पास कराये गये प्रस्ताव के अनुसार बड़े राज्यों में विधानसभा की कम से कम 60 बैठकें और छोटे राज्यों में कम से कम 30 बैठकें होनी चाहिए।
जनहित के मुद्दों में रुचि नहीं
देखा जाए तो पिछले दो दशक में मप्र सहित देशभर में विधायिका की साख लगातार गिरती जा रही है। कभी महीनों चलने वाले विधानसभा के सत्र अब घंटे और मिनटों में सिमट कर रह गए हैं। जनहित के मुद्दों पर तार्किक बहस कराने में सत्तापक्ष की तो कभी रुचि रही ही नहीं है, अब विपक्ष भी सिर्फ खानापूर्ति तक सिमट गया है। मप्र में हर विधानसभा में बैठकों की संख्या घट रही है। 2003 के बाद तो विधानसभा के सत्रों की अवधि आधी रह गई है। हालात ये हो गए हैं किविधायक विधानसभा से दूर होते जा रहे हैं।
चुनाव के दौरान सदन में आम आदमी के हक की लड़ाई का दावा करने वाले जनप्रतिनिधि जीतने के बाद जनता की आवाज नहीं बन पाए। मप्र की चौदहवीं विधानसभा के करीब 16 सत्रों की कार्रवाई के आंकड़े कुछ यही बताते हैं। यह स्थिति तब देखने को मिल रही है जबकि बीते 5 वर्षों में 180 दिन के लिए सत्र निर्धारित हुए और इसकी निमित्त 133 बैठकें हुई भी। बावजूद इसके सेवा और सदन में क्षेत्रीय जनता की आवाज बनने के नाम पर कई जनप्रतिनिधियों ने जहां प्रश्न लगाकर औपचारिकता निभाई वहीं कुछ ने तो इसकी जरूरत नहीं समझी है। यह स्थिति तब सामने आई है जबकि आम आदमी से माननीय बनने के बाद यह लगभग सवा लाख रूपए प्रतिमाह सरकार से वेतन-भत्तों के रूप में प्राप्त कर रहे हैं। यहां बता दें कि मप्र की 14वीं विधानसभा अपना कार्यकाल लगभग पूरा हो कर रही है। निर्वाचन आयोग आगामी नवंबर-दिसंबर में संभावित विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट गया है। ऐसे में लोकदेश ने विधानसभा के लिए चुने गए सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की सदन में सक्रियता को जानने का प्रयास किया। लेकिन सामने आई वस्तुस्थिति चौकाने वाली रही। वह इसलिए भी कि जनता के लिए बोलने और सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले लोगों में गिने-चुने ही नाम अमूमन प्रत्येक सत्र में सामने आए। सत्ता रूढ़ भाजपा और विपक्ष की जिम्मेदारी निभा रही कांग्रेस के सदस्यों के यह नाम हाथ की उंगलियों में गिने जा सकते हैं। वहीं दूसरे महज कार्रवाई में शामिल होने के नाम पर औपचारिता निभाते ही नजर आए हैं। यह स्थिति अब तक हुए सभी 16 सत्रों की कार्रवाई में सामने आई है। जबकि सोमवार से शुरू हो रहे 5 दिवसीय इस 17वें सत्र को 14 विधानसभा का अंतिम सत्र माना जा रहा है। अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन 16 सत्रों में साढ़े सात करोड़ आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे इन 230 माननीयों के 53 हजार 718 सवालों में से सिर्फ 1259 सवाल ही सदन में उठ पाए हैं। जो कुल सवालों का करीब ढाई फीसदी है। इनमें 29 हजार 148 तारांकित और 24 हजार 570 अतारांकित थे। लेकिन इनमें 6 हजार 52 सवाल अग्राहÞय हो गए। जबकि प्रश्नों के साथ स्थगन, ध्यानकर्षण जैसे माध्यमों से जनता की बात सीधे तौर पर रखी जा सकती है। लेकिन लगता है कि सदन की कार्रवाई के लिए निर्धारित 180 दिन भी इसके लिए कम पड़ गए। इस अवधि में स्थगन के माध्यम से लोकमहत्व के 96 विषय ही उठ पाए हैं। माननीयों का यह प्रदर्शन निश्चित रूप से चिंताजनक है।