18-Jun-2018 09:10 AM
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मप्र के विधानसभा चुनाव में इस बार चुनावी चूल्हे पर किसान होगा। यानी इस बार चुनाव किसान और खेती-किसानी को मुद्दा बनाकर लड़ा जाएगा। इसका संकेत 6 जून को मंदसौर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिया, फिर 8 अप्रैल को इंदौर में केंद्र और राज्य सरकार की उपलब्धियों के प्रति आभार जताने के लिए निकाली गई भाजपा की किसान यात्रा से मिला। यात्रा के सूत्रधार बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की यह यात्रा पूरी तरह किसानों के रंग में रंगी थी। यही नहीं इसी दिन मंदसौर में राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के तत्वावधान में दलौदा में गोलीकांड में मृत किसानों को श्रद्धांजलि दी गई। श्रद्धांजलि सभा में राष्ट्रीय किसान परिषद के पदाधिकारियों ने कहा कि किसान का एक बेटा खेत में काम करता है और दूसरा बेटा सीमा पर देश की रक्षा करता है, लेकिन दोनों ही स्थानों पर सरकार की गलत नीतियों के कारण किसान की मृृत्यु हो रही है। कार्यक्रम में पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिंहा, शत्रुघ्न सिंहा, प्रवीण तोगडिय़ा ने भी कक्काजी के साथ मंच साझा किया। वहीं 20 जून को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मंदसौर में किसानों को सौगात बांटेंगे। यह सारे संकेत इस बात के हैं कि इस बार मप्र विधानसभा के चुनावी चूल्हे पर किसान होगा। दरअसल प्रदेश में खेती-किसानी से जुड़े किसानों और श्रमिकों का प्रदेश की 157 सीटों पर दबदबा है। लेकिन किसान ने कभी भी अपने दबदबे का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश नहीं की है। हालांकि इस बार कुछ किसान संगठनों ने किसानों के नाम पर 10 दिनों तक भारत बंद का ऐलान कर किसानों के महत्व को बता दिया है। यही कारण है कि मध्यप्रदेश में होने वाले चुनाव में किसानों का महत्व सबसे अधिक बढ़ गया है।
कांग्रेस का जोरदार इवेंट
प्रदेश में इस बार के चुनाव में किसान कितना महत्वपूर्ण होगा इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मंदसौर में 6 जून, 2017 को पुलिस फायरिंग में 6 किसानों की मौत को भुनाने के लिए कांग्रेस ने जोरदार इवेंट आयोजित कर डाला। इस इवेंट में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किसानों के मन में सुलग रही आग में घी डालने का काम किया। किसान समृद्धि संकल्प रैली नामक इस इवेंट में राहुल गांधी ने भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार को जमकर कोसा।
राहुल गांधी मंदसौर ऐसे वक्त पहुंचे जब सूबे के किसान पहले से ही आंदोलन कर रहे हैं। देश भर में चल रहे किसान आंदोलन के छठे दिन अपनी रैली से पहले राहुल गांधी ने पुलिस फायरिंग में मारे गये किसानों परिवारवालों से मुलाकात की और एक ट्वीट में कहा भी - अपने परिजनों को खोने का दर्द मैं जानता हूं। रैली में राहुल गांधी ने पहले तो पूरी भूमिका बनायी और फिर धीरे-धीरे इरादे जाहिर करने लगे। निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रख राहुल गांधी ने अपने और उनके बीच फर्क समझाने की कोशिश की - लेकिन बातों-बातों में खुद ही भूल गये और वही करने लगे जो न करने का वादा किया था। पलक झपकते ही दुख दर्द बांटने की जगह मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की बातें होने लगीं। देखा जाये तो चुनावी मुहिम शुरू करने का इससे बेहतरीन वक्त क्या हो सकता है? सो राहुल ने इस इवेंट का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश की।
कैलाश ने भरा दम
राहुल गांधी की मंदसौर सभा के तुरंत बाद भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने इंदौर में किसान सम्मान रैली निकालकर जमकर चुनावी हुंकार भरी। करीब 3000 ट्रेक्टरों का काफिला पूरे इंदौर शहर में घूमा और इस दौरान यह जताने की भरपूर कोशिश की गई कि मप्र सरकार से बड़ा किसान हितैषी कोई नहीं है। यहां आयोजित सभा में कैलाश विजयवर्गीय ने न केवल मप्र सरकार बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसान हितैषी नीतियों का जमकर उल्लेख किया।
चुनावी वर्ष में किसानों के लिए सरकार ने अपना खजाना पूरी तरह खोल दिया है। राहुल गांधी की मंदसौर जिले में हुई सभा के बाद माहौल को भाजपा के पक्ष में करने के लिए शिवराज सिंह चौहान किसान महासम्मेलन करने जा रहे हैं। शिवराज सिंह चौहान भी उसी जगह यानि पिपलिया मंडी में 20 जून को एक महासम्मेलन करेंगे, इसके लिए प्रदेश की
भाजपा सरकार खास तैयारियों में जुट गई है।
इस मौके पर सीएम शिवराज किसानों को
प्याज और लहसुन के भावांतर राशि का भुगतान कर सकते हैं।
चुनाव आते ही किसानों की याद आने लगी
दरअसल भारत में परंपरा रही है कि चुनाव आते ही सरकारों को किसान यादे आने लगते हैं। लेकिन इस बार तो सभी राजनीतिक पार्टियों को किसान भाने लगे हैं। मध्य प्रदेश में दाल और महाराष्ट्र में प्याज किसान का भी यही हाल हुआ। इसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के किसान भी सड़कों पर टमाटर फेंकने को मजबूर हो गए। गुजरात चुनाव के बाद मोदी सरकार भी यह समझ गई कि अब परंपरागत तरीके से राजनीति नहीं हो सकती, क्योंकि किसानों की मौजूदा नाराजगी और आंदोलन के पीछे पहली बार न तो कोई राजनीतिक दल है और न ही कोई नेता। यह स्वत: स्फूर्त है और यही कारण है कि पूरे देश की सरकारें आज इस बात पर नजर रख रही हैं कि किसान की उपज का अधिकाधिक मूल्य खाली घोषणाओं में न सिमटकर रह जाए, बल्कि अमल में भी लाया जाए।
अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो यहां कुकुरमुत्तों की तरह अचानक से उगे आंदोलनकारियों ने सरकार को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया है, जिसके कारण सरकार ने किसानों पर खजाना लुटाना शुरू कर दिया है। सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदी से लेकर बोनस राशि एवं भावांतर योजना के जरिए पैसा सीधे खाते में डाल रही है। सवाल यह उठता है कि विधानसभा में सरकार ने 218 करोड़ का पूरक बजट पास कराया और अब 25 सौ करोड़ रुपए बांट रही है। यह पैसा आया कहा से क्योंकि पिछले 25 दिन से ट्रेजरी का सर्वर बंद है। ऐसे में लेपटॉप के लिए भी राशि कहां से आई।
सरकार दबाव में कर रही काम
आंदोलनकारी किसानों के रुख को देखकर सरकार जिस तरह खजाना लुटा रही है उसे देखकर आम जनता का कहना है कि मुख्यमंत्री इतने डरे सहमें क्यों हैं? वह हमारी कमाई के टैक्स का पैसा किसानों और आंदोलनकारियों पर क्यों लुटा रहे हैं। वहीं इस संदर्भ में पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच का कहना है कि सरकार की नीतियों के कारण किसान आंदोलन करने को मजबूर हुआ है। अगर सरकार की योजनाएं सही समय पर और सही ढंग से क्रियान्वित हुई रहती तो आज यह नौबत नहीं आती। वह कहती हैं कि सरकार ने किसानों के लिए घोषणाएं तो तमाम की हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ है। जिस प्रदेश में किसान कमजोर और दुखी होगा उस प्रदेश का विकास और समृद्धि भी रुक जाएगी।
आंदोलन या पब्लिसिटी स्टंट
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार किसान आंदोलन को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रही है। पिछले हफ्ते केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों द्वारा सड़कों पर फसलों को फेंके जाने को पब्लिसिटी स्टंट करार दिया और कहा कि इन आंदोलनों को बड़े किसान संगठनों का समर्थन हासिल नहीं है। वहीं, विपक्षी दल कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों मंदसौर में मारे गए किसानों के पीडि़त परिवार से मुलाकात कर मध्य प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के अभियान की शुरुआत की। किसानों को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के साथ धोखा किया है। वह यह वादा कर सत्ता में आए थे कि किसानों को उनके उत्पादन का उचित दाम मिलेगा, लेकिन उद्योगपति और अपने कारोबारी मित्रों को खुश रखना ही उनकी प्राथमिकता है।
किसान संगठनों की बड़ी भूमिका
दरअसल, 2014 में सत्ता हासिल करने से पहले नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह सरकार बनाने के बाद किसानों की आय दोगुनी कर देंगे। यही वजह है कि ग्रामीण इलाकों के किसानों में फसलों के गिरते हुए दामों को लेकर रोष बढ़ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के डाटा के मुताबिक, 1995 से अब तक कर्ज में दबे करीब 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विशेषज्ञों की मानें तो भारत की कृषि व्यवस्था का तब तक समाधान नहीं निकलेगा जब तक लंबी अवधि की नीति न बनाई जाए और देश के हर कोने के किसान को इसका फायदा मिले। भारत की 130 करोड़ की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा आज भी कृषि पर निर्भर करता है। हालांकि जीडीपी में इसका महज 17 फीसदी योगदान है। शहरों की तरफ तेजी से जा रही आबादी के बावजूद ग्रामीण इलाकों में आधी से अधिक आबादी रहती है जो आगामी चुनावों में तय करेगी कि सत्ता की चाबी किसे सौंपी जाए। किसान संगठनों का उग्र होता प्रदर्शन चुनावों की दिशा तय करने में बड़ी भूमिका निभाएगा।
कर्जमाफी के चक्कर में किसान
किसान आंदोलन के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा मंदसौर में किए गए कर्जमाफी के ऐलान के बाद किसान का मन तेजी से बदल रहा है। राहुल के दौरे के बाद सत्ता-संगठन के बाद किसानों से जुड़ा जो फीडबैक आया है, उसके बाद से सरकार उलझन में पड़ गई है। अब राहुल गांधी के कर्जमाफी का तोड़ तलाशा जा रहा है। साथ ही कांग्रेस की सरकार बनने से पहले ही उसे झूठा साबित करने के लिए भाजपा तय रणनीति के तहत कांग्रेस पर हमला करने की तैयारी में है। भाजपा संगठन से जुड़े सूत्रों के अनुसार राहुल गांधी की 6 जून को मंदसौर में आयोजित सभा के बाद से मालवा-निमाड़ समेत प्रदेश के दूसरे हिस्से के किसानों के बीच कर्जमाफी लेकर चर्चाओं का माहौल गर्म है। जबकि इस बीच मप्र सरकार द्वारा किसानों को विभिन्न योजनाओं के जरिए उनके खातों में सीधे पैसा जमा कराया है। लेकिन किसानों के बीच उसकी चर्चा नहीं है। हाल ही में सरकार एवं संगठन ने अपने स्तर पर अलग-अलग सर्वे कराया है। जिसके जरिए जो फीडबैक आया है, उससे सरकार बेहद चिंतित है। संगठन पदाधिकारी ने बताया कि फिलहाल ऐसा लग रहा है कि किसान राहुल के जालÓ में फंस सा गया है।
छवि को धूमिल करने की रणनीति
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की यूएसपी है- किसान पुत्र की छवि। यह छवि सिर्फ राजनैतिक ही नहीं, अपितु वास्तविक है। शिवराज सिंह चौहान किसान परिवार से आते हैं। उन्होंने खेतों में अपना जीवन बिताया है। इसलिए उनके संबंध में कहा जाता है कि वह खेती-किसानी के दर्द-मर्म और कठिनाइयों को भली प्रकार समझते हैं। किसानों के प्रति उनकी संवेदनाएं ही हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही किसानों की खुशहाली के लिए नीति बनाना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल रहा है। वह पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने किसानों की आय दोगुनी करने का विचार दिया और उस पर नीतिगत प्रस्ताव बनाने की पहल भी प्रारंभ की। उनके इस प्रयास को वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी आगे बढ़ाया है। कृषि के क्षेत्र में मध्य प्रदेश में हुए कामों को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ही 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के मध्य प्रदेश सरकार के रोड-मेप को विस्तार और साकार करने की जिम्मेदारी दी है।
कांग्रेस यह भली प्रकार समझती है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को हराना है, तो उनकी किसान पुत्र की छवि को ही तोडऩा जरूरी है। इसलिए इस विधानसभा चुनाव में उतरने से पहले कांग्रेस किसानों को ही अपनी राजनीति के टूल की तरह उपयोग कर रही है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि विधानसभा चुनाव-2013 किसान पुत्र विरुद्ध महाराज की पृष्ठभूमि में लड़ा गया था। एक तरफ सहज-सरल व्यक्तित्व के धनी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे और दूसरी ओर कांग्रेस चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष एवं सिंधिया राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया थे। किसान पुत्र की छवि ने ही मध्य प्रदेश में शिवराज और उनकी सरकार का परचम बुलंद किया था। आगामी चुनाव में कांग्रेस किसी भी सूरत में भाजपा को जीतने नहीं देना चाहती, इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री और सरकार को किसान विरोधी सिद्ध करने की रणनीति बनाई है। पिछले वर्ष से ही कांग्रेस ने इस पर काम करना भी प्रारंभ कर दिया है। जबकि शिवराज सरकार लगातार किसानों की खुशहाली के लिए प्रयत्नशील है।
चौसर पर किसान या राजनीतिक पार्टियां
ंसरकार के इन प्रयासों के बाद भी यह कयास लगाए जा रहे हैं कि 2018 की चुनावी चौसर पर एक बार फिर किसान रहेगा या अब की बार राजनीतिक पार्टियां? आजादी के सात दशक के दौरान राजनीतिक पार्टियां किसानों को चुनावी चौसर पर गोंटियों की तरह फेरती रही हैं। लेकिन इस बार किसान आंदोलन में जिस तरह किसानों ने राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है की अबकी बार चौसर पर किसान पार्टियों को घुमाएंगे। किसान नेता शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्का जी कहते हैं कि किसानों की समस्याओं में राजनीतिक दलों की महज इतनी दिलचस्पी है कि किसानों के कंधों पर अपनी राजनीति किस तरह से आगे बढ़ाई जाए? जहां कोई दल सत्ता में है तो वह किसानों को अपने साथ बांधे रखने के लिए, किसानों के लिए योजनाएं जैसी गलियां तलाशता नजर आता है तो जो सत्ता विरोधी खेमे में बैठा है वह किसानों को अपनी ओर करने के लिए कर्ज माफी जैसी चुनौती उछाल रहा है। किसान संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुनीलम कहते हैं कि किसानों में भी एक क्रीमी लेयर तैयार हो गई है जो वास्तविक परेशान किसानों की आड़ में अपने हित साध रही है। लंबे समय से खराब फसल के मुआवजे से लेकर कर्ज लेने और कर्जमाफी तक के फायदे तक इस क्रीमी लेयर ने जमकर उठाए हैं। छोटे किसान तो इज्जत की खातिर अपने लोन समय पर चुकता कर देते हैं और वास्तव में पैसा नहीं होने पर ही डिफाल्टर बनते हैं लेकिन क्रीमी लेयर वाले कर्जमाफी को लेकर इतने आश्वस्त रहते हैं कि वे कभी किश्ते ही नहीं चुकाते हैं।
किसानों को रास नहीं आई समाधान योजना
सहकारी बैंकों से कर्ज लेकर उसे न चुकाने वाले किसानों के लिए शुरू की गई प्रदेश सरकार की ऋण समाधान योजना पूरी तरह से फ्लाफ हो गई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में मौजूदा समय में करीब 16 लाख किसान डिफाल्टर हैं। इनमें से सिर्फ 59 हजार किसानों ने ही फायदा उठाया है। हालांकि करीब पांच लाख किसानों ने 15 जून तक कर्ज लौटाने का सहमति पत्र दिया है, जबकि करीब 11 लाख किसानों ने इससे पूरी तरह से दूरी बना रखी है। दरअसल किसानों को उम्मीद है कि विस चुनाव के चलते सरकार महाराष्ट्र और कर्नाटक की तरह उनका कर्ज भी माफ कर सकती है। चुनावी साल होने की वजह से सरकार किसानों से कर्ज की वूसली के लिए सख्ती नहीं कर पा रही है तो वहीं खराब आर्थिक स्थिति के चलते वह कर्ज माफी करने की स्थिति में भी नहीं है। इस स्थिति के चलते सहकारी बैंकों की भी आर्थिक सेहत काफी खराब होने लगी है। मौजूदा समय में चल रहे किसान आंदोलन में भी कर्ज माफी बड़ा मुद्दा है। ऐसे में सरकार ने फिलहाल डिफाल्टर किसानों से वसूली रोक रखी है। इस योजना में नकद ऋण की जगह खाद बीज के लिए केसीसी ऋण दिया जाएगा। इन शर्तों के कारण किसान डूबत का कर्ज चुकाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। बैंक और समितियां डिफाल्टर किसानों से वसूली करने के लिए चक्कर लगा रही थी। फिलहाल किसान आंदोलन के बाद बैंकों ने अपनी वसूली रोक दी है। इसके चलते इस योजना में सिर्फ वही किसान शामिल हो रहे हैं जिन्होंने या तो अनुबंध पर भरा है या फिर समर्थन मूल्य मेें लाखों रुपए का अनाज समितियों को बेचा है।
देश में पहली बार किसान एक दबाव समूह के रूप में उभरा
देश के 68 साल के प्रजातंत्र में पहली बार किसान एक दबाव समूह के रूप में उभरा है। अभी तक मंचों से किसान भाइयोंÓ कहकर नेता अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिया करते थे। इस राजनीतिक उनींदेपन का नतीजा यह हुआ कि पिछले 25 साल से लगातार हर 36 मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता रहा और इसी अवधि में हर रोज 2,052 किसान खेती छोड़ते रहे। इस बीच कोई किसान दबाव समूह नहीं बन पाया। अगर कभी कोशिश हुई भी तो वह जाति समूह में ही बांट दिया गया और राजनीतिक दल उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने की जगह उन्हें और उनके बच्चों को आरक्षण दिलाने के सब्जबाग दिखाकर वोट लेने लगे। समाज बंटता गया और राजनीतिक वर्ग सत्ता सुख भोगता गया। एक उदाहरण देखें। वर्ष 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र के पृष्ठ 44 में कृषि, उत्पादकता और उसका पारितोषिक शीर्षक चुनावी वादे में कहा गया है कि ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिससे कृषि क्षेत्र में लाभ बढ़े और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि लागत का 50 प्रतिशत लाभ हो, लेकिन चुनाव के कुछ ही महीने बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 20 फरवरी, 2015 को अपने हलफनामे में कहा किसानों को उत्पाद की लागत का 50 प्रतिशत अधिक देना संभव नहीं है, क्योंकि बाजार में इसके दुष्प्रभाव नजर आएंगे।