श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई
18-Jun-2018 06:53 AM 1236299
सत्य मानव जीवन का आधार है। मानस में सत्य का प्रतिपादन पदे-पदे किया गया है। राम सत्य के अनुचर और सत्य के प्रतीक हैं। मानसकार कहते हैं-धर्म न दूसर धर्म समाना, आगमनिगम पुरान बखाना। धर्म सभी सद्गुणों का मूल है। और धर्म का पालन बिना श्रद्धा के नहीं किया जा सकता। तुलसी कहते हैं-श्रद्धा बिना धर्म नहिं होईÓÓ। तुलसी के मानव मूल्यों के वर्णन में धर्म को व्याख्यायित किया गया है। धर्म सब का आधार है। अयोध्याकाण्ड में गुरु वशिष्ठ ने धर्म को सूत्र रूप में भरत को समझाने का प्रयास किया है-सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना, तज निज धरमु बिषय लयलीना।। तुलसी दास ने राजा, पति, अतिथि, मित्र और नारी के धर्म सूत्र को भी समझाने का प्रयास विविध प्रकार से किया है। सोचिअ नृपति जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना। सोचिअ बयसु कृपन धनवानु, जो न अतिथि सिव भगति सुजानू। मानसकार आगे कहते हैं- सोचिअ पति बंचक नारी, कुटिल कलहप्रिय इच्छाधारी। जिस धर्म (मानव मूल्य) की बात तुलसी मानस में करते हैं वह धर्म व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और सम्पूर्ण मानव समाज का पालक है। रामचरितमानस में इसका अत्यंत व्यावहारिक वर्णन किया गया है सब विधि सोचिअ पर अपकारी, निज तनु पोषक निरदय भारी। सोचनीय सबही बिधि सोई, जो न छाडि़ छलु हरि जन होईÓÓ। जिन मूल्यों की स्थापना के लिए संत तुलसी ने रामचरितमानस की रचना की वे मूल्य आज भी प्रासंगिक और उपयोगी हैं। ये मूल्य परिवार, समाज, देश-जाति में निभाये जाने वाले धर्म हैं। एक उदाहरण स्त्री का धर्म राम की दृष्टि में क्या है, मानस की निम्न पंक्तियों में एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा, सादर सास-ससुर पद पूजाÓÓ। इसी प्रकार राजनीति के मूल्य यानी राजधर्म का वर्णन मानस में इस प्रकार किया गया है-राज नीति बिनु धन बिनु धर्माÓÓ। राजनीति बिना धर्म के पंगु और लूली है। वह बिना धर्म के गंूगी और अंधी है। धर्म अर्थात् मूल्य सभी वर्गों के लिए अनिवार्य हैं। महाभारत में वेदव्यास कहते हैं-धारणाद् धर्म मित्याहुर्धर्मो धारयति प्रजा:। धर्म को जो धारण करता है धर्म उसे धारण करता है। कहने का भाव यह है कि जिसका जीवन धर्म से सम्पृक्त है उसका जीवन सफल हो जाता है। मानसकार कहते हैं-राज कि रहइ नीति बिनु जानें।ÓÓ यह है राजनीति में मूल्यों के महत्व की सार्थकता। तुलसी कहते हैं-जीवन मूल्य, समाज मूल्य और मानव मूल्य की स्थापना के बिना एक आदर्श, सर्वोत्तम और सुखी समाज की स्थापना नहीं की जा सकती है। जिस मानव की चेतना जागृत रहती है वह कभी पतित नहीं हो सकता। मानस में इसका पग-पग पर वर्णन किया गया है। राम के प्रति अन्यय प्रेम रखने वाला मानव कभी युग-धर्म से प्रभावित नहीं होता है। क्योंकि राम का जीवन चरित्र युग-धर्म की द्वंद्वात्मक विश्रृंखलाओं से पूरी तरह रहित है। काल धर्म नाहिं व्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाहीÓÓ। मानस में युगानुरूप धर्म के चार चरणों का वर्णन किया गया है। वे हैं,-सत्य, दया, तप और दान। इन चार चरणों की व्याख्या मानस मर्मज्ञ अपनी सुविधानुसार करते हैं। लेकिन मेरा चिन्तन कहता है कि ये मानव को सम्पूर्णता दिलाने वाले मूल्य हैं जिसकी आवश्यकता प्रत्येक युग में प्रत्येक मानव को होती है। रामराज में इन चारों चरणों की विद्यमानता थी। इसलिए रामराज को स्वर्ग का राज कहा जाता है जहां निवास करने के लिए देवता भी आतुर रहते हैं। मानस की ये पंक्तियाँ.. प्रकट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हे, दान करइ कल्यानÓÓ। मानव मूल्यों की स्थापना प्रत्येक युग में राम जैसे युगपुरुष करने के लिए जन्म लेते हैं। वह चाहे राम हों कृष्ण हों या दयानन्द हों। जब-जब होइ धरम कै हानी, बाड़हि असुर अधम अभिमानी। तब-तब प्रभु धरि विविध शरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीराÓÓ। धर्म की स्थापना मानव मात्र के कल्याण के लिए होता है। इसे मूल्य दर्शन में हम इस प्रकार कह सकते हैं- मूल्य मानव जीवन के आधार हैं। जिस प्रकार से बिना नींव के कोई भवन नहीं निर्मित हो सकता है उसी प्रकार से बिना मानव मूल्य के मानव-रूपी भवन का निर्माण नहीं हो सकता है। धर्म के पालन यानी मूल्यों के ग्रहण करने से मानव के सभी तरह के दुख, विसंगति, शोक, प्रमाद, क्रोध, हिंसा करने की प्रवृति, अज्ञानता, विषाद और अति काम की प्रवृति का नाश हो जाता है। मानसकार कहते हैं- धरम तें बिरति जोग तें ज्ञाना, ज्ञान मोच्छप्रद वेद बखानाÓÓ। धर्म का पालन करने वाले लाखों में कोई एक होता है इसी प्रकार मूल्यों को जीवन का आधार बनाने वाला भी कोई एक होता है। राम उन लाखों मानवों में से एक हैं जिन्होंने धर्म का सम्यक् पालन किया। जिनका सारा जीवन ही धर्ममय है। मूल्य जिनके जीवन के आभूषण हैं। मानसकार कहते हैं-नर सहस्त्र में सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्म व्रत धारीÓÓ। मानव मन के आदर्श, मर्यादा, नियम, संयम और मूल्य मानस की विशेषताएं हंै। रामचरितमानस में जिस राम को अवतारी बताने के लिए तुलसी ने अपनी ओर से अनेक अलंकारों, व्यंजनाओं, रूपकों, मिथकों और प्रतीकों का सहारा लिया वे कहीं न कहीं मानव मूल्य से जुड़ते हैं। रामचरितमानस का स्वाध्याय करते हुये हमारी चेतना यदि खुली हुई है तो हम निश्चित ही राम को ईश्वर नहीं अपितु एक आदर्श मानव समाज का युगीन चेतना का सर्वोच्च मानव के रूप में देख सकेंगे। मानव के विभिन्न व्यवहारों, सम्बन्धों, भावों और मर्यादाओं में धर्म अर्थात् मूल्य का स्थान सर्वोपरि है। मूल्यों से रहित कोई भी व्यवहार, सम्बन्ध, भाव और मर्यादा निर्मित नहीं हो सकते हंै। उदाहरण के रूप में मैत्री तभी निभाई जा सकती है जब मित्रता के मूल्य यानी धर्म को सत्यता के साथ निभाया जा सके। जे न मित्र दुख होहि दुखारी, तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी। विपत्ति काल में जो निष्ठा के साथ मित्रता का निर्वाहन करे वही सच्चा मित्र है। राम ने सुग्रीव, हनुमान, बिभीषण, अंगद आदि के साथ इस मित्रता का सम्यक् निर्वाहन किया था। बिपत्ति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन ऐहाÓÓ।। धर्म सगे-सम्बन्धों, मर्यादाओं और व्यवहारों को ही नहीं व्याख्यायित करता अपितु जीवन की समग्रता को भी व्याख्यायित करता है। -ओम
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