18-Jun-2018 09:53 AM
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किसी भी पार्टी या उसके नेतृत्व के लिए लगातार चार चुनावों में हार का मुंह देखना चिंता का विषय हो सकता है। अपराजेय नरेंद्र मोदी और उनकी ही तरह अति-आत्मविश्वासी योगी आदित्यनाथ इस बात के अपवाद नहीं हो सकते हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश के अलावा अगर किसी और जगह ऐसी हार का मुंह देखना पड़ता तो शायद ये इतनी बड़ी बात न होती। क्योंकि बीजेपी ने साल 2014 और 2017 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में ऐसा शानदार प्रदर्शन किया था जिसकी वजह से मोदी को दमदार छवि मिली।
दो महीने पहले जब फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में बीजेपी के हाथों से ये दोनों सीटें निकल गईं तब मोदी इसे एक अपवाद के रूप में देखने के लिए तैयार थे। क्योंकि गोरखपुर सीट सीएम योगी आदित्यनाथ और फूलपुर सीट डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की लोकसभा सीट थी और इस प्रदर्शन के लिए लोगों को आसानी से जिम्मेदार ठहराया जा सकता था। लेकिन जब बीती 31 मई को कैराना लोकसभा सीट और नूरपुर विधानसभा सीट बीजेपी के हाथ से निकल गई तो ये स्वाभाविक था कि मोदी की अपराजेय छवि पर सवाल उठाए जाएं क्योंकि उन्होंने ही बीजेपी को देश के कोने-कोने में पहुंचाया है।
कैराना और उसके आस-पास के क्षेत्र (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) को बीजेपी की हिंदुत्व वाली राजनीति की लैबोरेटरी समझा जाता है। ऐसे में कैराना जैसी अहम लोकसभा सीट पर हार का मुंह देखना बीजेपी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए एक धक्का था। ऐसे में 2019 के आम चुनावों से पहले इन लगातार मिलती हारों का गहरा विश्लेषण किया जाना लाजमी था। इसलिए बीते दिनों अमित शाह ने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बुलाया। क्योंकि उन पर ही बीजेपी को हिंदुत्व का गढ़ बनाए जाने की जिम्मेदारी दी गई है। ऐसा नहीं है कि भगवा चोला पहनने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने गोरखनाथ मंदिर न्यास के रूप में अपनी भूमिका जारी रखी है, ने सांप्रदायिक आधार पर जनता का ध्रुवीकरण करने में कोई कसर छोड़ी हुई है।
हालांकि, उनके काम में जो चीज सबसे बड़ी रोड़ा बनी वो ये थी कि लंबे समय तक एक-दूसरे की विरोधी रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अप्रत्याशित ढंग से एक साथ आ गई है। मायावती और अखिलेश के बीच का दोस्ताना हिंदुत्व के सामने मजबूती से खड़ा दिखाई दे रहा है। इसके साथ ही बीजेपी को लव जिहाद, घर वापसी और गौ हत्या जैसी विभाजनकारी रणनीतियों से पहले काफी फायदा मिलता रहा है लेकिन अब इससे उन्हें कुछ फायदा नहीं मिला है। ऐसे में बीजेपी के अंदर से ही विरोध के स्वर फूटना लाजमी थे। दो बीजेपी विधायकों श्याम प्रकाश और सुरेंद्र सिंह ने विरोध दर्ज कराने की जो शुरुआत की थी वो एक सहयोगी पार्टी के मंत्री राजभर द्वारा योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाए जाने पर
सवाल उठाने तक पहुंच चुकी है।
श्याम प्रकाश और सुरेंद्र सिंह ने योगी आदित्यनाथ पर अपनी नाक के नीचे होते भ्रष्टाचार को रोकने में विफल रहने पर भी सवाल उठाए हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष राजभर ने योगी आदित्यनाथ पर अपने मंत्रियों को दरकिनार करने का आरोप लगाकर अपनी ओर से पहला वार कर दिया था। लेकिन अब उन्होंने आधिकारिक रूप से कहा है कि बीजेपी ऊंची जातियों के समर्थन और ओबीसी-विरोधी बर्ताव कर रही है। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा है कि बीजेपी की चार उपचुनावों में इसलिए हार हुई है क्योंकि बीजेपी ने केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री न बनाकर पिछड़ों को धोखा दिया है और मौर्य साल 2017 में मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे
उचित ओबीसी उम्मीदवार होने चाहिए थे। उधर, तमाम आरोप-प्रत्यारोप के बीच भाजपा आलाकमान असमंजश में है कि वह अब क्या करे।
भाजपा से छिटकता ओबीसी वर्ग
बीजेपी और संघ ने योगी की हिंदुत्व छवि को मौर्य की ओबीसी छवि से ज्यादा अहमियत दी। बीजेपी में ओबीसी तबके में ये चर्चा जारी है कि सपा और बसपा ने जिस असंभव काम को कर दिखाया है वो ये काम करने में सफल न होती अगर बीजेपी के मुख्यमंत्री के रूप में एक ऊंची जाति ठाकुर का मुख्यमंत्री न होकर ओबीसी मुख्यमंत्री होता। अगर बीजेपी से जुड़े सूत्रों की मानें तो मोदी ने गत दिनों मीटिंग में शाह से इस बारे में विचार-विमर्श करने को कहा है। मायावती और अखिलेश के साथ आने के बाद बीजेपी को जिस तरह हार के बाद हार मिल रही है वो मोदी के लिए चिंता का सबब बन चुका है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरा था और एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश से भारी समर्थन की जरूरत है। ऐसे में मोदी के लिए देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में जो चल रहा है वो निश्चित ही अहम होगा।
-मधु आलोक निगम