बुआ और भतीजा निशाने पर
03-Jul-2018 08:39 AM 1234846
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद भाजपा को सपा-बसपा की दोस्ती किसी भी तरह से हजम नहीं हो रही है। भाजपा को अखिलेश यादव और मायावती के बीच दोस्ती की उम्मीद नहीं लग रही थी, पर उन दोनों नेताओं ने जिस तरह से बहुत सारे विवादों को किनारे कर के दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया है, वह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव की नजर से उत्तर प्रदेश सबसे अहम राज्य है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को वहां की कुल 80 सीटों में से 72 सीटें मिली थीं। 2 उपचुनाव हार कर यह तादाद अब 70 हो गई है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को तकरीबन 42 फीसदी वोट मिले थे। इस चुनाव में सपा को 22 और बसपा को 20 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को तकरीबन 7 फीसदी वोट हासिल हुए थे। ऐसे में सपा-बसपा और कांग्रेस के गठबंधन का वोट फीसदी मिलाकर 49 फीसदी हो जाता है। इससे उत्तर प्रदेश से भाजपा का सूपड़ा साफ हो सकता है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा भले हो, पर मोदी मैजिकÓ असरकारक नहीं रहेगा। पिछले 4 साल के दौरान शाह-मोदीÓ की जोड़ी ने भाजपा के अंदर भी लोकतंत्र को खत्म कर दिया है। ऐसे में विरोध की आवाजें वहां भी उभरने लगी हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दलित, अतिपिछड़ा और सवर्णÓ समीकरण के साथ हिंदुत्व का सहारा लेकर कामयाबी हासिल की थी। तब दलित और अतिपिछड़ा वर्गÓ हिंदुत्व के नाम पर अपनी पुश्तैनी पार्टियों से किनारा करके भाजपा में शामिल हो गयी थी पर नवहिंदुत्व का शिकार हुए इस तबके को चुनाव के बाद कुछ हासिल नहीं हुआ। यही वजह है कि इन जातियों के नेता अब भाजपा के खिलाफ मुखर होने लगे हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तकरीबन एक साल बाकी है। इस बीच भाजपा को कई तरह की चुनौतियों से निपटना है। भाजपा को अपनी पार्टी के दलित और अतिपिछड़ा तबके के नेताओं के असंतोष को खत्म करना है। पार्टी के मूल कैडर में भी बाहरी नेताओं को अहमियत दिए जाने से नाखुशी है। उत्तर प्रदेश और केंद्र में भाजपा मंत्रिमंडल का विस्तार कर इन तबकों के नेताओं को साधने की कोशिश होगी। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली हार उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए बानगीभर है। इस तरह के नतीजों से भाजपा के दलित नेताओं के होश उड़ गए हैं। वे भी चुनाव करीब देखकर विरोध करने लगे हैं। सपा-बसपा की दोस्ती से भाजपा को दोहरा डर है। एक तो उसे यह लग रहा कि सपा-बसपा की दोस्ती से लडऩा पड़ेगा। दूसरे, उसे अपनी पार्टी के दलित नेताओं के बयानों को भी रोकना है। ऐसे में भाजपा अनुसचित जाति मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष सांसद कौशल किशोर कहते हैं, भाजपा की केंद्र सरकार बाबा साहब के मिशन को पूरा करेगी। वह गरीबी के खिलाफ लड़ रही है। साल 2022 तक हर गरीब के पास अपना मकान होगा। उसके पास अपना रोजगार होगा। समाज में दलित गरीब और पिछड़ा वर्ग तभी भेदभाव मुक्त रह पाएगा जब वह माली तौर पर मजबूत होगा।ÓÓ भाजपा अपने बचाव में 2 बातें कह रही है। एक तो यह कि उसके किए गए कामों का असर साल 2022 में दिखेगा। दूसरा, सपा-बसपा निजी फायदे की दोस्ती करके उस को कुर्सी से हटा कर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देगी। सपा-बसपा की हिंदुत्व से लड़ाई नई नहीं है। साल 1990 के बाद जब रामलहर में चुनाव हो रहे थे तो भाजपा ने हिंदी बोली वाले प्रदेशों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान में अपनी सरकार बना ली थी। उसके बाद उत्तर प्रदेश में सपा बसपा ने एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला किया था और साल 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर कर दिया था। सपा के मुलायम सिंह यादव और बसपा के कांशीराम के बीच हुई इस दोस्ती को मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्रीरामÓ के नारे से बधाई दी गई थी। 23 साल के बाद बसपा और सपा में नई पीढ़ी आ चुकी है, जिसने गैस्ट हाउस कांडÓ के बारे में केवल सुना है। गैस्ट हाउस कांडÓ की शिकार खुद मायावती भी इस कांड को भूल कर आगे बढ़ चुकी हैं। राज्यसभा चुनाव में यह साफ देखने को मिला। मायावती की चुनावी रणनीति मायावती साल 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर तालमेल करना चाहती हैं जबकि कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन के आधार पर सीटों का समझौता करना चाहती है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी, पर कांग्रेस के पास 2 सीटें थीं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें बसपा की सीटों के मुकाबले आधी ही थीं। अपनी मांग को मजबूती से रखने के लिए दोनों ही दल समझौते की शर्त अपने मुताबिक रखना चाहते हैं। कांग्रेस का मानना है कि जब चुनाव लोकसभा के हैं तो आधार लोकसभा चुनाव ही होना चाहिए। कांग्रेस का पेंच सपा के लिए भी हल करना जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस और सपा का समझौता विधानसभा चुनाव में हो चुका है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच आपसी तालमेल है। मायावती दोनों के बीच कैसे जगह बना पाएंगी, यह देखने वाली बात होगी। -मधु आलोक निगम
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