18-Jun-2018 09:43 AM
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भारतीय राजनीति में आने वाला दौर राजकुमारों का है। देश की कई पार्टियों के नेतृत्व की बागडोर (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष) राजकुमारों ने संभाल ली है। यही नहीं सभी अपनी सूझ-बूझ से भाजपा के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। राहुल-वरुण-प्रियंका गांधी ही नहीं, बिहार में लोगों की उम्मीद तेजस्वी-तेजप्रताप से बन रही है। सियासत लालू के बच्चों को राजनीति में स्थापित कराने के लिए है या, झारखंड में हेमंत, पश्चिम बंगाल में अभिषेक, ओडिशा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में अखिलेश- जयंत-आनंद, हिमाचल प्रदेश में अनुराग, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य, राजस्थान में सचिन, छत्तीसगढ़ में अमित जोगी- अभय-अजय-दुष्यंत, इसमें राहुल गांधी अकेले नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों में उनको असली चुनौती राजकुमारों की फौज से ही मिलने वाली है। जिनमें जम्मू कश्मीर से कर्नाटक, उत्तर प्रदेश से राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के उदाहरण भरे पड़े हैं।
उमर अब्दुल्ला हों या, मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, हिमाचल प्रदेश में धूमल के राजकुमार अनुराग ठाकुर से मुश्किल से कुर्सी हथिया पाए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर। पंजाब में राजा अमरिंदर सिंह को राजकुमार सुखबीर बादल से ही कड़ी चुनौती है। वरना कांग्रेस के बजाय शिरोमणि अकाली दल में ही पड़े मिलते। हरियाणा में देवीलाल के राजकुमारों के बीच जारी संघर्ष का लाभ बीजेपी को मिला है। उपचुनाव के नतीजों में तीन राजकुमारों के सिक्कों की चमक-धमक का पता लगा। उत्तर प्रदेश में फीके पड़ गए जयंत चौधरी कैराना में राष्ट्रीय लोकदल की जीत से चमक उठे हैं, तो अखिलेश यादव ने नूरपुर जीतकर गोरखपुर और फूलपुर से कायम धमक को बरकरार रखा है।
झारखंड में तो हेमंत सोरेन ने 2-0 से मैच जीतकर कमाल ही कर दिया। वो पिता शिबू सोरेन से ज्यादा सफल साबित हो रहे हैं। बिहार में सिंहासन पर पिता का खड़ाऊं रख राजनीति कर रहे राजकुमार तेजस्वी यादव का प्रदर्शन शानदार है। कर्नाटक में तो घर बैठे राजकुमार कुमारस्वामी के पास कांग्रेस कुर्सी लेकर पहुंच गई। आइए, महाराज सुशोभित कीजिए। राजाओं की दूसरी या तीसरी पीढ़ी। सियासत की काबिलियत गिरवी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कांग्रेस पार्टी की यह कहकर आलोचना करते हैं कि यह एक परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी है, लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है। कर्नाटक में अपने तूफानी चुनावी अभियान में मोदी ने कहा था कि वह कामदार नेता हैं जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक नामदार शख्स हैं। एक अन्य रैली में, प्रधानमंत्री ने दावा किया कि वंशवादी राजनीतिक के खात्मे और परिश्रमवादी राजनीति के उत्थान के कारण उनकी पार्टी काजनसमर्थन बढ़ा। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह- जो वंशवाद के खात्मे को अपनी पार्टी की उपलब्धियों में गिनाते हैं, समेत अन्य नेताओं ने भी इसी तरह का बयान बार-बार दोहराया।
यह विरोधाभास ही है कि मोदी को लगे ज्यादातर झटके वंशवादी राजनीति से ही मिले हैं, और झटका देने वाले इन लोगों में से कोई भी कांग्रेस पार्टी से नहीं है। इसके अलावा दो मामलों में जहां भारतीय जनता पार्टी को धूल चाटनी पड़ी, वहां मुकाबले में उसके खुद के खेमे में वंश परंपरा के ही लोग थे। उदाहरण के लिए नौ राज्यों की चार लोकसभा सीटों और दस विधानसभा सीटों पर हुए हालिया चुनाव को ही देख लीजिए।
मौजूदा समय में बीजेपी ने कई सहयोगियों का साथ ले रखा है, जिनमें से कई वंशवाद के सहारे चल रहे हैं। पंजाब में सुखबीर बादल काफी समय पहले ही शिरोमणी अकाली दल पर पूर्ण नियंत्रण कर चुके हैं। बीजेपी से असहज रिश्ते रखने के बावजूद शिवसेना अभी भी केंद्र सरकार में पार्टनर है और राजनीति में देरी से प्रवेश करने के बावजूद उद्धव ठाकरे को मिला दर्जा इस कारण है, क्योंकि भतीजे पर बेटे को वरीयता दी गई। बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी एक प्रमुख साझीदार है और उनके बेटे चिराग पासवान को समय आने पर उनकी जगह लेने के लिए तैयार किया जा रहा है। हिमाचल प्रदेश में एक और वंशज अनुराग ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं, हालांकि इन दिनों बाप-बेटे दोनों के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। यहां तक कि मोदी के अपने राज्य की बीजेपी सरकार में मंत्री जयेश राधडिय़ा लोकसभा सदस्य विठ्ठलभाई राधडिय़ा के बेटे हैं।
मेघालय में भी बीजेपी वंशज कोनार्ड संगमा की सरकार में साझीदार है। एन. चंद्रबाबू नायडू, जिन्होंने हाल ही में अचानक नाराज होकर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) से नाता तोड़ लिया, वो भी वंशवादी परंपरा से आए नेता माने जाएंगे, क्योंकि राजनीति में उनका प्रवेश मुख्यत: अपने ससुर एनटी रामाराव के कारण हुआ था। यह अलग बात है कि बाद में दोनों की राहें जुदा हो गईं और नायडू ने अपना रास्ता खुद बनाया। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी ने भाई-बहन विजय बहुगुणा और रीता बहुगुणा जोशी को पार्टी में लिया, जो स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा की संतानें हैं।
एकाध राज्यों की बात छोड़ दें तो हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल में वंशवाद के सिद्धांत से उत्तराधिकार तय होता है। इनमें से कई तो बड़ी पार्टियों से टूट कर बनी हैं, क्योंकि एक ऐसे देश में जहां राजनीति एक कारोबार और आजीविका का मुख्य साधन है, इनके नेता अपनी खुद की राजनीतिक कंपनीÓ बनाना चाहते थे।
वंशवाद की राजनीति
देश में वर्तमान समय में वंशवाद की राजनीति चरम पर है। नजर उठाकर देखिए, तो राहुल गांधी अकेले नहीं बल्कि राजकुमारों की पूरी फौज नजर आएगी। राजकुमारों के बीच ही सियासत के सिमटते कारोबार का नजारा मिलेगा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक शायद ही कोई ऐसा कोना है जहां राजनेताओं की अगली पीढ़ी के राजकुमार सत्ता पर दमदार दावेदारी नहीं पेश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि कम्युनिस्ट और विचारधारा से प्रभावित दलों को छोड़कर करीब-करीब हर राजनीतिक दल वंशवाद को बढ़ावा देता है। इस बात पर ध्यान देना होगा कि जनसंघ में शुरू में वंशवाद नहीं देखने को मिलता है और यही बात बीजेपी में लंबे समय तक देखने को मिली, जब तक कि इसका विस्तार सीमित था।
पिछले कुछ चुनावों में नए वंशों से मिली है बीजेपी को हार
बीजेपी की समस्या तीन गैर-कांग्रेसी परिवारों के वंश हैं- अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और इस लिस्ट में शामिल नए मेहमान तेजस्वी यादव। इनमें से दो यादव वंश की दूसरी पीढ़ी के हैं, जबकि चौधरी जयंत चरण सिंह द्वारा स्थापित वंश की तीसरी पीढ़ी से हैं। कैराना की चुनौती का सामना करने के लिए बीजेपी ने भी सांसद हुकुम सिंह, जिनके निधन के कारण यहां चुनाव हो रहे थे, की वंश परंपरा में उनकी बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतारा। कुछ समय पहले उन्हें राजनीति में उतारा गया था और 2017 में बीजेपी प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे और हार जाने के बाद अनौपचारिक रूप से उन्हें उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। बिजनौर की नूरपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी प्रत्याशी अवनी सिंह परंपरागत अर्थों में वंशज नहीं कहीं जा सकतीं, लेकिन वह विधायक लोकेंद्र सिंह की विधवा हैं, जिनकी फरवरी में सड़क हादसे में मौत के बाद इस सीट पर उपचुनाव कराना पड़ा। कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी के सरकार नहीं बना पाने में एक और वंशज एचडी कुमारस्वामी की बड़ी भूमिका थी, जिन्होंने कांग्रेस से गठबंधन करके तीसरी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाई। इस साल पहले भी हुए उप चुनावों में बीजेपी राजस्थान में एक और वंशज सचिन पायलट द्वारा जनता को लगातार आंदोलित करने की कोशिशों के चलते बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी। यानी वंशवाद का विरोध करने वाली भाजपा उन्हीं से हार रही है।
-इन्द्र कुमार