बाघों की फिक्र नहीं
18-Jun-2018 09:24 AM 1234785
प्रदेश में बाघों की लगातार हो रही मौत सरकार और पशुप्रेमियों के लिए चिंता का विषय है। कभी लोगों के बीच अपनी दहाड़ से दहशत पैदा कर देने वाले बाघ आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। आज बाघों की आठ में से पांच प्रजातियां ही बची हैं। वल्र्ड वाइल्ड लाइफ नामक संस्था का अनुमान है कि 2022 तक बाघ जंगल से विलुप्त हो जाएंगे। बढ़ते शहरीकरण और सिकुड़ते जंगलों ने जहां बाघों से उनका आशियाना छीना है, वहीं मानव ने भी बाघों के साथ क्रूरता बरतने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, जिसका परिणाम हमारे सामने है। राष्ट्रीय बाघ सर्वेक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में 115 बाघों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इनमें बत्तीस मादा और अ_ाईस नर थे। बाकी बाघों की पहचान नहीं हो सकी। 2017 में बाघों की मौत के मामले में मध्यप्रदेश अव्वल रहा। वहां उनतीस बाघों की मौत हुई। इसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड और असम हैं। चौरासी प्रतिशत बाघों की मौत इन्हीं पांच राज्यों में हुई। आंकड़ों के अनुसार देखें तो साल 2016 में 120 बाघों की मौत हुई थी, जो साल 2006 के बाद सबसे अधिक थी। साल 2015 में अस्सी बाघों की मौत की पुष्टि हुई थी। इससे पहले साल 2014 में यह संख्या 78 थी। आज दुनिया में केवल 3,890 बाघ बचे हैं। अकेले भारत में दुनिया के साठ फीसद बाघ पाए जाते हैं। लेकिन भारत में बाघों की संख्या में बीते सालों में काफी गिरावट आई है। एक सदी पहले भारत में कुल एक लाख बाघ हुआ करते थे। यह संख्या घट कर आज महज पंद्रह सौ रह गई है। ये बाघ अब भारत के दो फीसदी हिस्से में रह रहे हैं। गति और शक्ति के लिए पहचाने जाते बाघों की संख्या में इस गिरावट के पीछे कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि निरंतर बढ़ती आबादी और तीव्र गति से होते शहरीकरण की वजह से दिनोंदिन जंगलों का स्थान कंकरीट के मकान लेते जा रहे हैं। यों कहें कि जंगलों में जबरन घुसे विकास ने जानवरों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाना शुरू कर दिया है। वनोन्मूलन के कारण बाघों की रिहाइश में कमी आ रही हैं, जिससे उनकी संख्या घटती जा रही है। वहीं दूसरा कारण बाघों की तस्करी है। बाघों के साम्राज्य में डिजिटल कैमरे की घुसपैठ और पर्यटन की खुली छूट के कारण तस्कर आसानी से बाघों तक पहुंच रहे हैं। चीन में कई देसी दवाएं और शक्ति वद्र्धक पेय बनाने में बाघ के अंगों के इस्तेमाल के बढ़ते चलन की वजह से भी बाघों की तस्करी की जा रही है। अन्य देशों के कुछ लोग अपने लालच के चलते बाघों की तस्करी और शिकार करके उनके अंगों को चीन भेज रहे हैं। विशेषज्ञों ने एशिया में बाघों की आबादी की बढ़ोतरी के लिए 42 वनक्षेत्रों को मुफीद पाया है, लेकिन कई देशों में इन वनक्षेत्रों की हालत में सुधार नहीं आने के कारण बाघों की वंशवृद्धि नहीं हो पा रही है। इन वनक्षेत्रों पर भूमाफियों की कुदृष्टि भी बाघों की घटती संख्या के लिए बड़ा कारण साबित हो रही है। बाघों को बीमारियों से भी खतरा बढ़ रहा है। नीतियों की भरमार फिर भी जा रही जान बाघ को बचाने के लिए सरकार ने योजना व नीतियां बनाने में कोई कसर नहीं रखी है। लेकिन इतने इंतजाम के बाद भी बाघों की संख्या निरंतर कम क्यों होती जा रही है? सच तो यह है कि राज्य सरकारों के उदासीन रवैए और घूस की प्रवृत्ति ने संरक्षण के नाम पर बाघों तक पहुंचने वाले लाभ को बीच में ही निगल लिया है। इस कारण बाघ संरक्षण के सरकारी इंतजाम सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। सरकार ने वन्यजीव संरक्षण के लिए कई कानून बना रखे हैं। वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत बाघ को मारने पर सात साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन लचर स्थिति के कारण विरले ही किसी को सजा हो पाती है। इन हालात में आवश्यकता इस बात की है कि जंगल टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए और उसे पुलिस के समकक्ष अधिकार दिए जाएं। वन्यजीवों व जंगल से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना और सूखे व किसी भी आपदा जैसे कि आग वगैरह पर तुरंत और प्रभावी कार्रवाई के लिए आपदा प्रबंधन टीमों का गठन होना चाहिए। -बृजेश साहू
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