किसान सरकारों से नाखुश क्यों...?
04-Jun-2018 09:01 AM 1234902
भारत में किसान और खेती-किसानी भले ही सरकारों की प्राथमिकता में हैं, लेकिन व्यवस्था हमेशा उनके लिए खलनायक बनी रहती है। यानी सरकार किसानों के उत्थान के लिए जो भी योजनाएं बनाती है वह किसान तक कमत्तर ही पहुंच पाती है। ऐसी स्थिति पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं........ कृषि प्रधान देश में किसान भूखे-प्यासे हैं। सरकार कोई भी हो मिलते बस झांसे हैं। राजनीति की चौपालों पर लाशें है। इक्का बेगम और गुलाम की तांशें हैं। एक प्रचलित कहावत है कि किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो। मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं। आखिर इस अन्नदाता का दोष क्या है? यही न कि वह अपने हाथ से इस देश की 135 करोड़ आबादी को निवाला खिला रहा है। जिस पालनहार की पूजा होनी चाहिए, इबादत होनी चाहिए, उसका स्वागत सम्मान होना चाहिए, उस किसान के पेट पर लात मारी जा रही है। आखिर कब तक चलेगा यह दौर? और क्यों चलेगा? शायद इसी का जवाब ढूंढने के लिए मध्यप्रदेश सहित देशभर के किसान एक जून से 10 जून तक गांव बंद आंदोलन पर जा रहे हैं। यानी इस दौरान किसान अपने उत्पाद लेकर शहर नहीं आएंगे। किसानों की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू की जाए साथ ही लागत के आधार पर स्वामीनाथन आयोग की सीटू रिपोर्ट को आधार मानकर फसल का लाभकारी मूल्य दिया जाए, 55 साल से अधिक आयु के किसानों को पेंशन, कर्ज माफी, किसानों के उत्पादों को बेचने के लिए उचित माध्यम हो, कृषि को उद्योग का दर्जा मिले, और किसानों की आमदनी बढ़ाई जाए। किसान गरीब क्यों? किसान गरीब क्यों? किसान परिवार में आत्महत्या क्यों? जवाब दशकों से ढूंढ़ा जा रहा है। बड़ी-बड़ी रिपोर्टें तैयार की गईं। लेकिन संकट गहराता जा रहा है। किसानों की आर्थिक हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। दरअसल, किसान हितैषी सरकारी योजनाओं का लाभ बैंकों, बीमा, बीज व यंत्र निर्माता कंपनियों, निर्यात कंपनियों, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को मिला है। पहले किसानों की आत्महत्या के कारणों की खोज के नाम पर रिपोर्ट बनाई जाती है और सरकार में लॉबिंग कर उसे लागू करवाया जाता है। इस रिपोर्ट को बनाने में सीएसआर फंड प्राप्त एनजीओ की बड़ी भूमिका होती है और हम भी किसान के बेटे हैं कहने वाले नौकरशाह और राजनेता अपने ही बाप से बेईमानी करते हैं। उत्पादन-वृद्धि के इन उपायों से किसानों का उत्पादन-खर्च बढ़ा है। साथ ही, उत्पादन बढऩे और मांग से आपूर्ति ज्यादा होने से फसलों के दाम घटे हैं। इससे नुकसान बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में किसानों की औसत मासिक आय 6426 रुपए है, जिसमें केवल खेती से प्राप्त होने वाली आय 3081 रुपए प्रतिमाह है। यह सत्रह राज्यों में केवल सत्रह सौ रुपए मात्र है। हर किसान पर औसतन सैंतालीस हजार रुपयों का कर्ज है। लगभग नब्बे प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं। पूरे देश के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर आंकलन करें तो खेती में काम के दिन के लिए औसतन सिर्फ 92 रुपए मजदूरी मिलती है। यह मजदूरी 365 दिनों के लिए प्रतिदिन 60 रुपए के आसपास पड़ती है। किसान की कुल मजदूरी से किराए की मजदूरी कम करने पर दिन की मजदूरी 30 रुपए से कम पड़ती है। मालिक की हैसियत से तो किसान को कुछ मिलता ही नहीं, खेती में काम के लिए न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े भी इसी बात की पुष्टि करते हैं। बाजार में किसान हमेशा कमजोर ही रहता है। एक साथ कृषि उपज बाजार में आना, मांग से अधिक की उपलब्धता, स्टोरेज का अभाव, कर्ज वापसी का दबाव, जीविका के लिए धन की आवश्यकता आदि सभी कारणों से किसान बाजार में कमजोर की हैसियत में ही खड़ा होता है। पूरी व्यवस्था किसान को लूटने के लिए बनाई गई है। खेती से जुड़ी हर गतिविधि में उसे लूटा जाता है। उनके लिए किसान एक गुलाम है जिसे वे उतना ही देना चाहते हैं जिससे वह पेट भर सके और मजबूर होकर खेती करता रहे। शिवकुमार शर्मा मौजूदा केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि पाकिस्तान से शक्कर बुलाई जा रही है और राष्ट्रवाद की बातें करते हैं। मध्य प्रदेश के गन्ना किसानों को 400 करोड़ रुपए का भुगतान बीते 7 माह से नहीं हुआ है, ऐसे मिल संचालकों को सरकार संरक्षण दे रही है। मंत्रियों ने मिलों को गोद ले रखा है। सरकार द्वारा किसानों के खाते में हजारों करोड़ों रुपए डाले जाने के बावजूद किसान आंदोलन के औचित्य पर हुए सवाल पर वह कहते हैं कि पिछले 5 साल से जो धान और गेहूं पर 100-100 रुपए का बोनस मिलता था उसे बंद कर दिया और अब 200 रु. दे रहे हैं, 300 रु. का डाका तो डाला ही है। भावांतर योजना फेल हो चुकी है किसान हलाकान है। दूसरे क्यों तय करें कीमतें किसानों के आक्रोश की एक वजह यह भी है कि उसके उत्पादों की कीमत दूसरे क्यों तय करते हैं। जिस जमीन पर किसान खेती कर रहा है, उसका लगान सरकार तय करती है। जिस बीज को किसान बो रहा है, उसकी कीमत बीज कंपनी तय करती है, जिस खाद को किसान प्रयोग कर रहा है, उसकी कीमत खाद कंपनी तय करती है, जिस ट्रैक्टर से किसान खेत जोत रहा है, उस ट्रैक्टर की कीमत ट्रैक्टर कंपनी तय करती है, उसमें पडऩे वाले डीजल की कीमत सरकार तय करती है, ट्यूबवेल, बिजली की कीमत बिजली विभाग तय करता है, खेती में काम आने वाले अन्य उपकरणों जैसे फावड़ा, कुदाल, थ्रेसर, चारा मशीन, ट्रैक्टर ट्राली आदि उन सबकी कीमत निर्माता कंपनी तय करती है। मगर विडंबना यह है कि किसान की फसलों की कीमत कोई और तय करता है। यह अधिकार किसान को क्यों नहीं है? वह इस अधिकार से वंचित क्यों है? जो किसान दूसरों के मनमाने तरीके से तय कीमतों के अनुसार बीज, खाद, पानी का भुगतान अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई से करता है, उस किसान को अपनी फसल की कीमत स्वयं निर्धारित करने का अधिकार क्यों नहीं है? जब जूता बनाने वाली कंपनी अपने जूते की कीमत 399 रुपये 99 पैसे निर्धारित कर सकती है और उसमें से एक नया पैसा भी कम नहीं करती है, तो फिर किसान बेचारा भगवान भरोसे क्यों हैं? बाकी सब तो अपने-अपने भरोसे हैं। वहीं दूसरी ओर, जिस फसल को किसान अपनी जान से भी अधिक सहेजकर रखता है, न दिन देखता है, न रात देखता है, न सर्दी देखता है, न गर्मी देखता है, न बरसात देखता है, न तूफान देखता है, न धूप देखता है, न छांव देखता है, घड़ी और घंटा देखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। दिन-रात, चौबीस घंटे, बीवी और बच्चों व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ जुटा रहता है खेत खलिहान पर! इतने अथक परिश्रम के बाद जब वह फसल को देखता है तो देखते ही देखते उसके सपने तार-तार हो जाते हैं। वातानुकूलित कक्षों में बैठने वाले किसान की मेहनत की कीमत तय करते हैं, उनकी नजर में एक गेहूं का दाना बोओ तो सौ गेहूं उगेंगे, ऐसी हवाई सोच रखने वाले गेहूं की कीमत क्या जाने? जानता तो वह है जो उसे पैदा करता है। तो फिर पैदावार करने वाले को कीमत निर्धारित करने का अधिकार क्यों नहीं? आखिर क्यों इस अधिकार से किसान को वंचित किया जा रहा है? कृषि को उद्योग का दर्जा क्यों नहीं जब हमारा देश कृषि प्रधान देश है, अर्थात इस देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है। फिर भी कृषि को उद्योग का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है। वह इसलिए कि यदि कृषि को उद्योग का दर्जा दे दिया गया तो किसान को अपनी फसल की कीमत स्वयं निर्धारित करने का अधिकार होगा। फिर इन आढ़तियों के पल्लेदारों व सरकार के पल्लेदारों का क्या होगा? उनके अरमान कैसे पूरे होंगे? उन अफसरानों का क्या होगा जिन्हें आज किसान के पसीने से बदबू आती है। किसान के अंदर प्रवेश करते ही उन्हें बाहर बैठने का हुक्म दे दिया जाता है। बस यही कुछ ऐसे चंद पहलू हैं जो कृषि को उद्योग का दर्जा मिलने में बाधक हैं। अब इन नुमाइंदों से कौन पूछे कि जब किसान को इनकम होगी, तभी तो वह टैक्स देगा। न बदन पर कपड़ा है, न पैर में जूते हैं, कृषकाय शरीर लिए किसान बेचारा पहले से ही कर्ज के बोझ से दबा हुआ है। यही सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी, सात पीढिय़ों से चला आ रहा है। वह चाहे महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का सवा सेर गेहूं वाला किसान हो या फिर आज का ट्रैक्टर वाला किसान हो, मगर दोनों की कहानी एक ही है। तब भी किसान के पेट पर लात मारी जा रही थी और आज भी किसान के पेट पर लात मारी जा रही है। किसानों के साथ भेदभाव पूरे देश में एक जैसा है। सरकारें किसानों का हमदर्द बनने का दिखावा करती हैं, लेकिन बन नहीं पाती हैं। किसान चुनावी मुद्दा इस देश में किसान हमेशा से चुनावी मुद्दा रहा है। आने वाले समय में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसलिए इन राज्यों में चुनाव की पूरी सियासत किसानों की दुर्दशा के इर्द गिर्द सिमट रही है। अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो सवाल यह है कि जो राज्य 10 साल से खेती में निर्विवाद रूप से नंबर वन है, अगर वहां किसानों की हालत इतनी खराब है तो बाकी देश में किसानों का क्या होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि अच्छी खेती का मतलब खुशहाल किसान रह ही न गया हो। मध्यप्रदेश में खेती-किसानी के लिए सबसे अधिक काम हुआ है। सरकार ने अपना पूरा खजाना किसानों के लिए खोलकर रख दिया है। उसके बाद भी मध्यप्रदेश का किसान खुशहाल नहीं है। प्रदेश में इस साल नवम्बर में विधानसभा चुनाव होने हैं और अभी से साफ हो गया है कि इन चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा किसान होंगे। भाजपा और कांग्रेस ने अभी से किसानों को चुनावी मुद्दा बना लिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 30 मई को मंदसौर में खेतिहर मजदूरों की बड़ी सभा कर किसानों की बदहाली के लिए कांग्रेस को कोसा है वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी 6 जून को मंदसौर में अब तक की सबसे बड़ी किसान रैली का ऐलान कर चुके हैं। वहीं 130 से अधिक किसान संगठन एक जून से 10 जून तक हड़ताल पर जा रहे हैं। यानी आने वाला समय केवल किसानों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। सरकारी दावे के अनुसार मध्यप्रदेश का किसान सबसे अधिक खुशहाल है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि किसानों द्वारा आयोजित बंद को लेकर सरकार इतनी घबराई क्यों है। पुलिस के लिए 15,000 नए डंडे खरीदे जा रहे हैं। क्या बूढ़ा और क्या जवान, हर किसान से हिंसा न करने के बॉन्ड भरवाए जा रहे हैं। किसान आंदोलन के दौरान ज्यादा दिक्कत न हो इसके लिए सब्जी से लेकर दूध तक का स्टॉक रखने की तैयारी चल रही है और सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सब्जी बेचने वालों को हथियारबंद जवानों के पहरे में लाया जाएगा, ताकि उन्हें कोई नुकसान न पहुंचाया जा सके। क्या ये सारी बातें उस राज्य के लिए असामान्य नहीं हैं, जिसे पिछले 10 साल से निर्विवाद रूप से देश में खेती-किसानी में अव्वल माना जा रहा हो। जब पूरे देश की कृषि विकास दर 2 फीसदी के लिए तरस रही हो, तब उस राज्य में कृषि विकास दर कभी 10 फीसदी से नीचे ही नहीं आई। जो राज्य चुनिंदा फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही बोनस भी देता रहा हो। जिस राज्य का मुख्यमंत्री नीति आयोग में देश की कृषि नीति तय करने वाली कमेटी का मुखिया हो। ऐसे राज्य में सामान्य मानसून के पूर्वानुमान के बावजूद किसानों की दुर्दशा अगर चुनावी मुद्दा बन जाए तो सोचना पड़ेगा कि देश ने खेती के बारे में कहीं गलत रोल मॉडल तो नहीं चुन लिया।
FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^