राजनीति का काला जादू
21-May-2018 08:31 AM 1234909
देश के मशहूर शायर तिलोकचंद महरूम का एक शेर है.... मंदिर भी साफ हमने किए मस्जिदें भी पाक मुश्किल ये है कि दिल की सफाई न हो सकी। वाकई देश के सभी राजनीतिक दलों की स्थिति ऐसी ही है। वे सत्ता के लिए हर तरह का प्रपंच रचते रहते हैं। ताजा प्रपंच कर्नाटक में रचा जा रहा है। इस प्रपंच को राजनीति का काला जादू माना जा रहा है। वैसे भी कर्नाटक की राजनीति में काला जादू खूब चलता है। एक वक्त तो येदियुरप्पा खुलेआम कहा करते थे कि उन्हें मरवाने के लिए काला जादू किया जा सकता है। नाम भले ही इसका काला जादू हो, लेकिन ये पल-पल अपना रंग बदल रहा है। चुनावों से पहले इसके अलग रंग होंगे लेकिन वोटिंग के ऐन पहले ये कहीं हरा तो कहीं-कहीं गुलाबी रंग में भी देखा गया। वोटों के अलग-अलग बाजार में इसका रंग गिरगिट से भी तेज बदलता रहा। अब ये पर्दे के पीछे कमाल दिखा रहा है। फिलहाल तो यही लगता है कि ये काला जादू कुछ और नहीं बल्कि हर वो हथकंडा है जिसके जरिये मिशन को अंजाम दिया जा सके, मकसद उसका जो भी हो। कर्नाटक की राजनीति में भी इसी काले जादू का सहारा लेकर सरकार बनाने का दावा किया जा रहा है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बहुमत बेशक किसी पार्टी को नहीं मिला और इस मायने में किसी की जीत नहीं हुई। लेकिन हारने वाली पार्टी कौन है, इसे लेकर कोई शक नहीं है। 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 122 सीटें मिली थीं और प्रदेश में पांच साल तक कांग्रेस की बहुमत की सरकार चली। 2018 में उसकी सीटें घटकर 78 रह गई हैं। दो विधानसभा चुनावों के बीच, उसे 44 सीटों का नुकसान हुआ है। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की स्पष्ट हार हुई है। हालांकि वह इस बात पर संतोष कर सकती है कि उसे कर्नाटक में सबसे ज्यादा वोट मिले हैं और वोट प्रतिशत के लिहाज से वह बीजेपी से भी आगे है। लेकिन उसका वोट पूरे प्रदेश में फैला हुआ है। बीजेपी कम वोट पाकर भी इस चुनाव में सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी बनी। सरकार बनने के विवादों से परे एक और बात है, जिस पर नजर रखने की जरूरत है। हार के बावजूद, कांग्रेस इस बार कर्नाटक में वह कर रही है, जिसका अगले लोकसभा चुनाव पर गहरा असर हो सकता है। कांग्रेस ने चुनाव नतीजे आने के दिन सूरज डूबने से पहले ही घोषणा कर दी कि वह कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए जनता दल सेकुलर (जेडीएस) को बिना शर्त समर्थन देगी। जनता दल सेकुलर के 37 विधायक हैं। कांग्रेस ने जेडी-एस के नेता एचडी कुमारास्वामी को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देने की घोषणा की और साझा सरकार में शामिल होने की इच्छा भी नहीं जताई। कम विधायक वाली पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने का निर्णय करके कांग्रेस ने अपनी राजनीति और रणनीति में आए एक बड़े बदलाव को दर्ज किया है। दावे ने बनाया अनमोल बीजेपी के कुछ नेताओं द्वारा अपरिपक्व तरीके से जीत का दावा करने के कारण कर्नाटक विधानसभा चुनाव का मामला आखिरकार अनमोल वस्तु जैसा हो गया है। अगर भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलता, तो इस सवाल को लेकर किसी तरह की दुविधा या शक-सुबहा का मामला नहीं रह जाता। हालांकि, कर्नाटक विधानसभा में भाजपा कासबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बाद पार्टी की इस पोजीशन को धक्का नहीं लगा है कि पार्टी केंद्र में एक और कार्यकाल की खातिर जीत हासिल करने के लिए वोटरों का पसंदीदा विकल्प है। ऊंट किसी भी करवट बैठे, भाजपा का कर्नाटक विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरना निश्चित तौर पर उसके लिए एक सकारात्मक और फायदेमंद बात है। कर्नाटक विधानसभा के लिए जो नतीजे आए हैं, उनसे यह तो साफ है कि भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई है। लेकिन अपने बूते पर सत्ता पाने के लिए भाजपा जरूरी बहुमत के आंकड़े से पीछे रह गई है। यों तो यह मतदान के पहले ही कहा जा रहा था कि जनता दल (एस) त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में ‘किंगमेकर’ की भूमिका में रहने वाली है, लेकिन बदली परिस्थितियों में जद (एस) की अहमियत बढ़ गई है। कांग्रेस ने चली चाल सत्ता की दौड़ में पिछड़ी कांग्रेस ने जद (एस) के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया है। कांग्रेस व जद (एस) के एक साथ जाने के फैसले के बावजूद भाजपा भी अपनी सरकार बनाने को लेकर आश्वस्त दिखती है। इस दक्षिण भारतीय प्रदेश में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां कोई नई बात नहीं है। पहले भी जब भाजपा सत्ता में आई थी, तब वह 110 सीटों पर सिमट गई थी। हालांकि तब निर्दलीयों का सहारा उसको बहुमत की तरफ ले गया था। बेंगलूरु के म्युनिसिपल चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, लेकिन कांग्रेस व जद (एस) ने मिलकर बोर्ड बनाया। अब जो हालात बने हैं, उनमें कांग्रेस का मुख्य मकसद कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। इसीलिए वह तीसरे नंबर की पार्टी को भी मुख्यमंत्री पद सौंपने को तैयार है। जो खबरें आ रहीं हैं, उनके मुताबिक जद (एस) सुप्रीमो पूर्व पीएम एच.डी. देवगौड़ा ने कांग्रेस के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया है। अब सबकी निगाहें कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला की ओर हैं। सब जानते हैं कि वजूभाई वाला गुजरात में भाजपा के प्रमुख नेताओं में से रहे हैं। अभी जो खबर आई है, उसके मुताबिक राज्यपाल ने कांग्रेस नेताओं को मुलाकात का समय नहीं दिया। यों तो सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाने का स्वाभाविक दावा भाजपा के पास है, लेकिन गोवा व पूर्वोत्तर के अनुभवों को देखते हुए इस परिपाटी का ठोस आधार नहीं लगता। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्यपाल भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण देकर बहुमत साबित करने का मौका दें। बहुमत के आंकड़े से भाजपा जितनी दूर है, उससे खरीद-फरोख्त के बिना सब कुछ संभव हो पाएगा, ऐसी उम्मीद कम ही है। हालांकि राजनीति में कुछ भी हो सकता है, इसलिए फिलहाल कयासों के दौर ही रहने वाले हैं। कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के परिणाम यदि जद (एस) नेता कुमारस्वामी की ताजपोशी कराने में कामयाब हो जाते हैं तो इसे वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी होने वाले कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन की शुरुआत कहा जा सकता है। हो सकता है कि ऐसे गठबंधन का अस्तित्व लंबे समय तक नहीं रह पाए। मोदी ने बनाया माहौल कांग्रेस को चुनाव में इस तरह की शिकस्त मिलने का अंदाजा चुनाव प्रचार की शुरुआत में किसी को नहीं था। मई के आरंभ तक माना जा रहा था कि कांग्रेस व भाजपा में कांटे का मुकाबला है। लेकिन पहली तारीख से 10 मई के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनाव रैलियों ने भाजपा के पक्ष में काफी माहौल बनाया। राजनीतिक विश्लेषक यही अनुमान लगा रहे हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस बार दक्षिण कर्नाटक में भी भाजपा ने पैर जमाए हैं। दरअसल, कांग्रेस के पास भाजपा की आक्रामक प्रचार शैली का जवाब नहीं रहा। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश कर भाजपा के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश जरूर की, लेकिन भाजपा ने उल्टा दांव चल दिया। उसने इसे हिंदुओं को बांटने का मुद्दा बनाया। इन चुनावों में भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसकी संगठन क्षमता में नजर आई। भाजपा ने जिस तरह से बूथ प्रबंधन किया, वह भी इस चुनावी जीत का कारण बना। कांग्रेस के पास इस संगठनात्मक तैयारी का माकूल जवाब नहीं था। रहा सवाल जद (एस) का, तो कांग्रेस के वोटों में वह भी सेंध लगाने में कुछ हद तक सफल मानी जा सकती है। इसीलिए उसका प्रदर्शन इन चुनावों में उम्मीद से ज्यादा रहा। कहा तो यह भी जा रहा है कि कर्नाटक विधानसभा के इन चुनावों में राजनीतिक दलों ने पानी की तरह पैसा बहाया है। हर चुनाव में इस तरह के सवाल आते हैं, लेकिन मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि ज्यादा धन खर्च करने वाले नेता या दल को चुनाव में जीत हासिल होती है। बहरहाल कांगे्रेस, कर्नाटक का यह चुनाव हार गई है। उसके नेताओं ने भी यह बात मान ली है। कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेलकर कांग्रेस एक तरह से नरेन्द्र मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के अभियान को रोकने का प्रयास भी करेगी। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई भाजपा सरकार बनाए या फिर कांग्रेस के सहयोग से जद (एस) के नेता कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनें, यही सवाल अगले एक-दो दिन तक राजनीतिक परिदृश्य में छाया रहेगा। सारा दारोमदार कर्नाटक के राज्यपाल की भूमिका पर रहने वाला है। कांग्रेस का प्रदर्शन भी खराब नहीं हालांकि आंकड़ों को ध्यान में रखें, तो वोट शेयर के मामले में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब नहीं रहा है या फिर ऐसा नहीं है कि निवर्तमान (संभवत:) मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को जबरदस्त सरकार विरोधी लहर के कारण निर्णायक तरीके से सत्ता से बाहर कर दिया गया है। कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर जाहिर तौर पर कुछ पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आएंगी, जो पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी और राज्य नेतृत्व को लेकर सख्त होगी। वैसे, इस बार उन्होंने किसी तरह की गलती नहीं की और पार्टी नेतृत्व वैसे बड़बोले नेताओं का मुंह बंद रखने में सफल रहा, जो चुनाव प्रचार के ऐन वक्त पर पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले बयान देते रहते हैं, जबकि आम तौर पर वे चुनावी बहस और विमर्श से दूरी बनाए रखते हैं। यहां तक कि राहुल गांधी ने खुद सही समय पर सही तरह के बयान दिए। मोदी की करिश्माई छवि का जलवा बरकरार है कर्नाटक में कांग्रेस पर बीजेपी की बढ़त का उतना ज्यादा नहीं होना कई महत्वपूर्ण संकेतों और चीजों की तरफ इशारा करता है। इसमें सबसे अहम बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लगातार बरकरार रखना भी है। यह साफ है कि चुनाव प्रचार अभियान के आखिरी दौर में उनकी (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) सक्रियता ने चुनाव नतीजों को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाई और इस वजह से कांग्रेस को राज्य की कई विधानसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। कर्नाटक विधानसभा का चुनाव ऐसा मामला था, जहां अच्छे प्रदर्शन को लेकर कांग्रेस का भरोसा भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले ज्यादा पक्का था। हालांकि, चुनाव परिणाम बताते हैं कि नरेंद्र मोदी की निजी सक्रियता और भूमिका से कांग्रेस की जीत को किसी तरह से रोक दिया। इस बारे में शायद कांग्रेस नेता और राज्य के मौजूदा सीएम सिद्धारमैया को भी अंदाजा हो गया था, जिन्होंने अचानक से यह बयान दे दिया कि उन्हें दलित समुदाय के शख्स को राज्य का मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव का जनादेश इस शंका को भी दूर कर देता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपनी चमत्कारी क्षमता गंवा चुके हैं और अब वह चालाक चुनावी मैनेजर और रणनीतिकार नहीं रहे। एक समय में राजनीति की धुरी कांग्रेस थी कांग्रेस ने आजादी से पहले और आजादी के बाद तीस साल तक देश पर लगभग एकछत्र राज किया है। हालांकि 1967 में कई राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं, लेकिन यह चलन स्थायी साबित नहीं हो पाया। केंद्र मे पहली गैरकांग्रेसी सरकार 1977 में बनी लेकिन वह भी टिकाऊ नहीं हो पाई। 1990 तक केंद्र में और ज्यादातर राज्यों में स्थिति यही थी कि कांग्रेस की या तो सरकार थी, या फिर वह मुख्य विपक्षी दल के तौर पर इंतजार करती थी कि फिर उसकी सरकार कब बनेगी। यह अक्सर हो भी जाता था। उस समय तक देश की राजनीति की धुरी में कांग्रेस थी। विपक्ष का मतलब गैरकांग्रेसवाद होता था। 1990 के बाद राजनीति एक और मोड़ लेती है। उत्तर प्रदेश में जहां से उस समय 85 लोकसभा सीटें आती थीं, वहां देखते ही देखते कांग्रेस तीसरे और फिर चौथे नंबर की पार्टी हो गई। बिहार में भी आगे चलकर ऐसा ही हो गया। तमिलनाडु में यह पहले ही हो चुका था, जहां डीएमके और एआईडीएमके की एक के बाद एक सरकारें बनती हैं। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस न तो सत्ताधारी दल है, न प्रमुख विपक्षी दल। किन कारणों से कांग्रेस पर भारी पड़ी बीजेपी? कर्नाटक में वास्तव में कांग्रेस और उसके नेताओं ने अच्छी तरह से काम किया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि किन कारणों से मोदी और उनकी टीम का प्रदर्शन बेहतर रहा! मिसाल के तौर पर चुनाव आयोग की वेबसाइट पर कांग्रेस के बदलते वोट शेयर पर विचार कीजिए। पार्टी के वोट शेयर का ग्राफ अधिकतम ऊंचाई के मामले में 38 फीसदी पर गया, जबकि नीचे गिरने के मामले में यह आंकड़ा 36 फीसदी के आसपास रहा। अगर इसका औसत मामला तैयार किया जाए और अगर फाइनल वोट शेयर में नाटकीय बदलाव नहीं देखने को मिले (इसकी संभावना बेहद सीमित है) तो इस ट्रेंड को कांग्रेस पार्टी के लिए खराब प्रदर्शन नहीं माना जाएगा। 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 36.5 फीसदी वोट मिले थे। ऐसे में अगर दोनों चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन की तुलना की जाए तो जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन उतना बुरा नहीं रहा है। इसके बजाय यह हुआ है कि बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया है। 2013 में भारतीय जनता पार्टी का वोट शेयर 19.89 फीसदी रहा था, लेकिन उस वक्त लिंगायत समुदाय की मजबूत शख्सियत बीएस येदियुरप्पा और आदिवासी नेता बी श्रीरामुलू दोनों पार्टी से बाहर थे। साल 2013 के विधानसभा चुनाव में दोनों नेताओं ने बीजेपी को भारी नुकसान पहुंचाने के मकसद से अलग इकाई के तौर पर काम किया और जाहिर तौर पर वे अपने इस अभियान में सफल रहे। येदियुरप्पा की पार्टी कर्नाटक जनपक्ष को पिछले राज्य विधानसभा चुनाव में 9.79 फीसदी वोट मिले और इस पार्टी ने राज्य की 6 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की, जबकि श्रीरामुलू के संगठन बंदावारा श्रमिकरा रायतरा कांग्रेस पार्टी ने 2013 के विधानसभा चुनाव में 2.69 फीसदी वोट हासिल किया और उसे चार सीटें मिलीं। अगर तीनों (बीजेपी और दोनों नेता) अलग नहीं होते, तो उस वक्त भी कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ अलग होते। तीनों को मिलाकर 32.39 फीसदी वोट के जरिये बीजेपी को और ज्यादा सीटें जीतने में मदद मिलती। पिछले चुनाव में तीनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ते हुए कुल मिलाकर 50 सीटों पर जीत हासिल की थी। कुमारास्वामी किंगमेकर कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस द्वारा जेडीएस को बिना शर्त समर्थन दिए जाने के बाद पार्टी के नेता कुमारास्वामी के सीएम बनने के आसार बन गए हैं। चुनाव में सिंगल लारजेस्ट पार्टी बनकर उभरी बीजेपी 104 सीटों के बावजूद बहुमत के लिए जरूरी संख्या से आठ कम है। कांग्रेस और जेडीएस मिलकर आसानी से बहुमत हासिल करते दिख रहे हैं। ये कुमारास्वामी के लिए किस्मत वाली ही बात कही जाएगी कि जिन्हें सभी राजनीतिज्ञ किंगमेकर के तौर पर देख रहे थे चुनाव नतीजे आने के बाद असली किंग बनते वही दिखाई दे रहे हैं। जिन नेताओं के किंग बनने की भविष्यवाणी की गई थी वो अब किंगमेकर कुमारास्वामी के आस-पास भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। ये कुमारास्वामी के लिए सुखद संयोग है कि जिस कांग्रेस से चुनाव के पहले तक तीखी बयानबाजियां चल रही थीं उसी ने बीजेपी को पूर्ण बहुमत न मिलते देख बिना शर्त समर्थन का ऑफर दे दिया। लेकिन भारतीय धर्मशास्त्रों में ऐसा कहा जाता है कि पिता की किस्मत बेटे से जुड़ी होती है। शायद कुमारास्वामी के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। करीब 22 साल पहले कुमारास्वामी के पिता एचडी देवेगौड़ा भी ठीक इस तरीके से देश के प्रधानमंत्री बने थे। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि क्या अपने पिता की तरह कुमारास्वामी के साथ भी ऐसा कुछ गुल खिलेगा कि वे मुख्यमंत्री बन सकेंगे। फिलहाल शायद ही भाजपा ऐसा होने दे। अब मप्र, छग और राजस्थान में दिखेगा बीजेपी का ग्राउंड गेम कर्नाटक विधानसभा के नतीजे बहुतों के लिए दिल तोडऩे वाले साबित हुए। सोचा तो यही जा रहा था कि कम से कम कर्नाटक में कांग्रेस इस हालत में है कि कोई उसे डिगा नहीं सकता। ऐसा सोचने वालों में कुछ वो भी थे जो कांग्रेस समर्थक वोटर तो नहीं लेकिन जो बीजेपी की विचारधारा से परहेज रखते हैं या फिर डरते हैं। कुछ गैर-कन्नड़भाषियों का दिल भी चुनाव के नतीजों की तरफ लगा हुआ था और उन्हें भी निराशा हुई है। दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि देश नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सही दिशा में बढ़ रहा है और ऐसे लोग खुशी मनाएंगे कि एक और सूबे की जनता ने उनकी राय पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है। शुरुआती तौर पर तो यही लगता है कि चुनाव के नतीजे वैसे ही हैं जैसा कि उम्मीद की जा रही थी। साल 2014 के चुनावों में बीजेपी ने बहुत बढिय़ा प्रदर्शन किया था और 28 में से 17 सीटें उसकी झोली में गई थीं। साल 2018 में बीजेपी ने कमोबेश वही प्रदर्शन दोहराया है और इससे जाहिर होता है कि जिस सूबे में कांग्रेस बढ़त पर थी वहां भी बीजेपी ने अपनी लोकप्रियता बरकरार रखने में कामयाबी पायी और इस चुनाव ने इस बात को साबित किया है। कर्नाटक में जिस ग्राउण्ड गेम से भाजपा ने सफलता हासिल की है अब यह मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी देखने को मिलेगा। इन तीनों राज्यों में इस साल के अंतिम महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऊपरी तौर पर तो तीनों राज्यों में भाजपा के खिलाफ एंटीइनकमबेंसी है। लेकिन भाजपा का ग्राउण्ड गेम कभी भी पासा पलट सकता है। भाजपा के ग्राउण्ड गेम का ही असर है कि कर्नाटक में कांग्रेस का वोट शेयर तकरीबन बीजेपी के बराबर ही है तो भी कांग्रेस चुनाव हार गई? कांग्रेस ने ही शुरू किया था गठबंधन का दौर 1996 लोकसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी और कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है। लेकिन कांग्रेस ने इस चुनाव के बाद एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारें चलाईं। कांग्रेस ने इन सरकारों को बाहर से समर्थन दिया। वहीं, बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस जूनियर पार्टनर के तौर पर नीतीश कुमार की सरकार में शामिल होती है। 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों के बाद 20 राज्यों में बीजेपी या समर्थक दलों की सरकार है। अब गैर-कांग्रेसवाद जैसी किसी राजनीति की गुंजाइश नहीं है। यह भारतीय राजनीति का नया दौर है और अब विपक्ष की राजनीति का प्रभावी तत्व गैर-भाजपावाद है। कांग्रेस को यह समझने में और इस नई सच्चाई के मुताबिक खुद को ढालने में समय लग गया। लंबे समय तक उसे यही लगता रहा कि बीजेपी नहीं तो कांग्रेस और कांग्रेस नहीं तो बीजेपी।
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