वादों का वफा बाकी
04-Jun-2018 08:51 AM 1234857
26 मई 2014, देश में 25 साल के बाद एक अकेले दल को बहुमत मिला। न भूतो, न भविष्यति की तर्ज पर शोर-शराबे के साथ भाजपा की सरकार आई। चुनाव पूर्व किए गए सैकड़ों वादों और भारत की तस्वीर बदल देने के इरादों की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने पहले ही साल से घोषणाओं और योजनाओं की झड़ी लगा दी। अब, इस सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं। सरकारी वादों और दावों की पड़ताल करने पर यह तथ्य सामने आ रहा है कि चुनाव पूर्व किए गए वादों और सरकार बनने के बाद किए गए दावों पर खरा उतरना अभी बाकी है। समय की तुलना मु_ी से फिसलती रेत से क्यों की गयी है, इसका अहसास फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा से बेहतर शायद किसी और को नहीं हो सकता। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में विजय रथ पर सवार होकर केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुए मोदी और भाजपा को शायद अब अहसास हो रहा होगा कि चार साल कब गुजर गये, पता ही नहीं चला। तीन दशक बाद लोकसभा में अकेलेदम पर बहुमत हासिल करने वाली भाजपा का ग्राफ बेशक इन चार सालों में अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ा है, लेकिन सत्ता की चौथी वर्षगांठ से सप्ताह भर पहले ही कर्नाटक में मिली मात से उसकी सीमाएं एक बार फिर उजागर हो गयी हैं। भाजपा के लिए यह सचेत होने का समय है। दरअसल 26 मई को पूरा हुआ केंद्रीय सत्ता का यह चार साल का सफर अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ ही जन आकांक्षाओं से भी भाजपा की बेवफाई की दास्तान भी है। कभी समान नागरिक संहिता, धारा 370 और राम मंदिर भाजपा की राजनीतिक प्रतिबद्धता की पहचान थे, जिन्हें सत्ता की खातिर पूरी तरह भुलाया जा चुका है। यहां सवाल इन मुद्दों के सही-गलत होने का नहीं, भाजपा की वैचारिक बेईमानी का है। नब्बे के दशक में सत्ता की दहलीज पर पहुंच भाजपा ने एक और नारा उछाला था। भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति। इन आधुनिक राक्षसों में से किससे किसको मुक्ति मिली, जनता से बेहतर कौन जानता है। अब तो केंद्र समेत तीन-चौथाई देश में भाजपा और उसके मित्र दलों की ही सरकारें हैं। फिर भला क्यों कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं? क्यों खाद्यान्न भंडार गृहों में सड़ रहा है और लोग भुखमरी से मर रहे हैं? क्यों भ्रष्टाचार की जोंक अभी भी आम आदमी का खून चूस रही है? नक्सल से आतंकवाद तक का नासूर तो मोदी सरकार को विरासत में मिला है, पर उसके अलावा भी घर-बाहर आम आदमी सुरक्षित नहीं है। खुद भाजपा विधायकों पर जब बलात्कार के आरोप लगें तो बेटी बचाओ जैसे नारे क्रूर मजाक ज्यादा लगते हैं। अब जरा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के वायदों-सपनों पर भी नजर डाल लें। वायदों-सपनों की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, पर लब्बोलुआब यह था कि कांग्रेसनीत संप्रग शासन से आजिज आम आदमी के ‘अच्छे दिन आयेंगे’ का सपना दिखाया गया था। जाहिर है, उसमें भय, भूख, भ्रष्टाचार से मुक्ति का वायदा भी शामिल था, और विदेशों में जमा अकूत कालाधन लाकर हर नागरिक के बैंक खाते में 15 लाख रुपये जमा कराने का प्रलोभन भी, पर जो हुआ, वो सबके सामने है। 15 लाख खाते में जमा कराने को तो खुद अमित शाह ने चुनावी जुमला बता दिया, 100 दिनों में लाया जाने वाला विदेशों में जमा कालाधन चार साल बाद भी मृग मरीचिका ही बना हुआ है। महंगाई संप्रग की तरह राजग शासन में भी बेलगाम बनी हुई है तो पेट्रोल-डीजल के दामों ने तो उपभोक्ता का दम ही निकाल दिया है। नोटबंदी को हर मर्ज की दवा बताकर आम आदमी की तो आपातकालीन बचत भी निकलवा कर बैंकों में जमा करवा ली, पर बैंकों के हजारों-करोड़ रुपये लेकर चंपत हो गये विजय माल्या और नीरव मोदी सरीखे शातिर आज भी पहुंच से बहुत दूर हैं। देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती के बड़े दावे किये जाते हैं, पर सच यह है कि पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी ने छोटे-मझौले उद्योगों की कमर तोड़ दी है। ऐसे में हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का भाजपा का वायदा छलावा बनकर रह गया है तो आम आदमी का बजट बुरी तरह चरमरा गया है। स्मार्ट सिटी के सपने से लेकर विश्व राजनय में बढ़ती भूमिका तक के दावे अगर सच भी हों तो जिंदगी की जद्दोजहद में फंसे आम आदमी के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते। जनता की आकांक्षाएं कल भी रोटी, कपड़ा, मकान तक सीमित थीं, आज भी हैं। हां, बढ़ती जागरूकता के बीच उनमें ससम्मान और सुरक्षित जीवन का अधिकार अवश्य जुड़ गया है, जिसका वायदा भी कभी मोदी और भाजपा ने किया था और सच फिर यही है कि ऐसे तमाम वायदों का वफा होना अभी बाकी है। स्टार्टअप इंडिया योजना की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था स्टार्टअप इंडिया के जरिए हमारी कोशिश देश के युवाओं को जॉब सीकर से जॉब क्रिएटर बनाने की है। अफसोस कि स्टार्टअप को लेकर देखा गया प्रधानमंत्री का सपना टूट रहा है। हाल में आई संसदीय समिति की रिपोर्ट कहती है कि 6 फरवरी 2018 तक डीआईपीपी यानि औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने 6981 स्टार्टअप्स चयनित किए थे, लेकिन उनमें से मात्र 99 स्टार्टअप्स को फंड और मात्र 82 को कर्जमाफी के सर्टिफिकेट आवंटित किए गए हैं। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा को रोजगार का प्रमुख माध्यम माना जाता था, लेकिन आज यह योजना पूरी तरह से मृतप्राय होती जा रही है। साल-दर-साल इस योजना के जरिए सौ दिन का रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या घटती जा रही है। 2013-14 में इस योजना के द्वारा पूरे 100 दिनों का रोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या 46,59,347 थी, जो 2016-17 में 39,91,169 और 2017-18 में 27,38,364 हो गई। गौर करने वाली बात यह भी है कि एक तरफ काम मांगने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ काम में कमी आती जा रही है। प्रधानमंत्री ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था। उन्होंने कहा था कि किसानों को उनकी फसल की लागत का कम से कम दोगुना लाभ दिया जाएगा। लेकिन अभी तक यह वादा, वादा ही बना हुआ है। इस बीच किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण कर्ज का बोझ है, जो फसल की बर्बादी की वजह से बढ़ता जाता है। फसल की बर्बादी की वजह से किसानों पर पडऩे वाले कर्ज के बोझ को हल्का करने के लिए मौजूदा सरकार ने 13 जनवरी 2016 को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के नाम से एक नई योजना की शुरुआत की। इस योजना का मकसद किसानों पर प्रीमियम का बोझ कम करना था। सरकार की तरफ से यह भी दावा किया गया कि इस योजना के तहत बीमा दावे के निपटान की प्रक्रिया को तेज और सरल किया जाएगा और इस योजना को केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर लागू करेंगी। आज स्थिति यह है कि देश का किसान अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलन की राह पर है। आंकड़ों में रौशनी, जमीन पर अंधेरा 15 अगस्त 2015 को लालकिले से देश को संबोधित करते हुए, जब प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की कि वे आगामी 1000 दिनों में देश के 18 हजार से ज्यादा गांवों तक बिजली पहुंचा देंगे, तो लगा था कि अब सच में पूरे भारत को अंधेरे से मुक्ति मिल जाएगी। 1 मई 2018 तक 18,452 अविद्युतीकृत गांवों तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य न तो ज्यादा बड़ा था और न ही कठिन, क्योंकि सरकारी आंकड़े ही कहते हैं कि मोदी से पहले के कई प्रधानमंत्रियों ने विद्युतीकरण को लेकर इससे ज्यादा बड़ा लक्ष्य हासिल किया है। मोदी सरकार को करीब तीन सालों में देश के 18 हजार गांवों को रौशन करना था, जबकि इससे पहले केवल 2005-06 में देश के 28 हजार से ज्यादा गांवों में बिजली पहुंचाई गई, वहीं इंदिरा गांधी ने तो अपने कार्यकाल में प्रतिवर्ष 20 हजार से ज्यादा गांवों को विद्युतीकृत किया था। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का यह लक्ष्य इस मायने में खास था कि इसके पूरा हो जाने से देश से पूरी तरह अंधेरा खत्म हो जाता। 1000 दिन से पहले ही प्रधानमंत्री ने यह घोषणा भी कर दी कि हमारी सरकार ने समय से पहले देश से अंधेरा मिटाने का लक्ष्य हासिल कर लिया है। लेकिन प्रधानमंत्री की इस घोषणा के अगले दिन ही देश के कई हिस्सों से अंधेरे में जीवन गुजार रहे कई गांवों की ऐसी तस्वीरें सामने आईं, जिन्होंने सरकारी आंकड़ों की कलई खोल दी। बेरोजगारी बनी न्यू इंडिया की नई पहचान 6 फरवरी को राज्यसभा में सरकार की तरफ से बताया गया कि वर्तमान समय में बेराजगारी दर 5 फीसदी को पार कर रही है, जो 2013 में 4.9 फीसदी, 2012 में 4.7 फीसदी और 2011 में 3.8 फीसदी थी। सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों में नौकरियों का अकाल है। इसी साल आई कॉरपोरेट मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि 31 जनवरी 2018 तक 17 लाख कंपनियां रजिस्टर्ड थीं, जिनमें से अब तक 5 लाख 38 हजार कंपनियां बंद हो चुकी हैं। इन 5 लाख 38 हजार में से 4 लाख 95 हजार कंपनियों ने बिजनेस न मिलने को बंद का कारण बताया। केवल 2017 में करीब 3 लाख कंपनियों ने अपना कारोबार समेट लिया। इधर, प्रधानमंत्री स्वरोजगार पर बल दे रहे हैं। बजट सत्र में 7 फरवरी को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘आज का मध्यमवर्गीय नौजवान नौकरी करने के बजाय नौकरी देने वाला बन रहा है।’ लेकिन मुद्रा योजना के तहत अब तक के लोन वितरण के आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि दिए गए लोन में से 92 फीसदी शिशु श्रेणी के, 6.7 फीसदी किशोर श्रेणी के और मात्र 1.4 फीसदी तरुण श्रेणी के लोन हैं। जिस शिशु श्रेणी के तहत 92 फीसदी लोन वितरित किए गए, उनका भी औसत काफी कम है। -धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया
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