कर्नाटक-फॉर्मूला
04-Jun-2018 07:41 AM 1234828
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम और उसके बाद के घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई है कि यदि भाजपा को स्वयं के बल पर आगामी विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिलता है तो आपस में लड़ते विपक्षी दल भी एक होकर भाजपा के सामने खड़े हो जाएंगे। कर्नाटक चुनाव में प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने जनता दल (सेक्युलर) को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ीं थी। जनता दल (सेक्युलर) को जनता दल संघ परिवार कहा, तथा भाजपा की बी टीम तक कह दिया। जब चुनाव के नतीजे सामने आए और कांग्रेस की संख्या 122 से गिरकर 78 पर आ गई तो राहुल गांधी ने उसी जनता दल संघ परिवार को सर आंखों पर बिठा लिया। दरअसल, पिछले 4 सालों में भाजपा ने देश के अधिकांश राज्यों में सरकार बना ली है। भाजपा की इस सफलता ने कई राज्यों में प्रादेशिक राजनीतिक दल और कांग्रेस के अस्तित्व पर सवाल पैदा कर दिए हैं। भाजपा की सफलता से एनडीए के कुछ साथी भी परेशानी महसूस कर रहे हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर हों या शिव सेना के उद्धव ठाकरे - भाजपा के साथ होते हुए भी भाजपा का विरोध करने से नहीं चूकते हैं। वह इसलिए क्योंकि वह जानते हैं कि जैसे-जैसे भाजपा मजबूत होती जाएगी, वैसे-वैसे भाजपा के लिए उनका महत्व घटता जाएगा। जब किसी राजनीतिक दल के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे तो वह किसी भी दल के साथ गठबंधन करने को तैयार हो जाएगा। उसका पहला प्रयास अपने दल को जीवित रखने का होगा। उस समय विचारधारा मायने खो देगी। कुछ ऐसा ही कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हुआ है। कांग्रेस को पता था कि यदि चुनावों में भाजपा उससे कर्नाटक छीन लेगी तो वह एक प्रादेशिक दल बन कर रह जाएगी। दूसरी तरफ जनता दल (सेक्युलर) यदि और पांच साल सत्ता से बाहर रहती तो शायद अगली बार तक समाप्त हो जाती। यह रणनीति 2019 लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिलेगी। यदि भाजपा की अपनी 225 लोक सभा सीटें नहीं आईं और एनडीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो बाहर से कोई अन्य दल आकर उसे समर्थन नहीं देने वाला है। भाजपा के साथ एक और समस्या है। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की परिभाषा में भाजपा एक सांप्रदायिक दल है। सांप्रदायिक दल के खिताब के कारण अन्य दल बड़ी आसानी से भाजपा को अस्पृश्य घोषित कर देते हैं। देश को भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति से बचाने के नाम पर सब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल अपनी-अपनी विचारधारा त्याग करके एक होने में बिल्कुल समय नहीं लगाते हैं। कोई नहीं जानता की एक साल बाद एनडीए के कितने दल भाजपा के साथ रहकर चुनाव लड़े। इन कारणों से यह साफ है कि 2019 की लड़ाई भाजपा को अकेले अपने बाल पर ही लडऩी होगी। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार के बाद जेडीएस के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने में मिली कामयाबी से कांग्रेस फ्रंटफुट पर आ गई है। इससे न सिर्फ कांग्रेस और जेडीएस उत्साहित हैं बल्कि कई अन्य पार्टियों में भी नए उत्साह का संचार हुआ है। कई राजनीतिक दल कांग्रेस के कर्नाटक गठबंधन के इस मॉडल को खूब सराह रहे हैं और अगले साल होने वाले आम चुनावों के लिए इसे मोदी लहर की काट बता रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इस गठबंधन का क्या महत्व होगा और राहुल गांधी के नेतृत्व में दोबारा उबरने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए इसके क्या मायने हैं? तेलंगाना के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद मधू गौड़ याक्षी मानते हैं कि तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की संभावना काफी अधिक है। वहीं जब उनसे राहुल गांधी को विपक्षी धड़े का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने को लेकर पूछा गया, तो उनका कहना है कि इस पर बात करना थोड़ी जल्दबाजी होगी। यह काफी हद तक राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा, जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला सत्ताधारी बीजेपी से होगा। जब पूछा गया कि जेडीएस से दोगुनी सीटें जीतने के बावजूद आपने मुख्यमंत्री की कुर्सी कुमारस्वामी को सौंप दी। क्या यह महज राज्य के लिए समझौता था, या फिर जेडीएस के साथ महागठबंधन की शुरुआत थी? इस पर गौड़ का जवाब था, भारत के संविधान और लोकतंत्र पर खतरा है। इसी वजह से राहुल गांधी ने लोकतंत्र बचाने की मुहिम छेड़ी है। हमारी पार्टी बीजेपी की तरह सत्ता की भूखी नहीं। गौड़ से जब पूछा गया कि क्या यह 2019 के चुनावों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की शुरुआत है, तो उन्होंने कहा, राहुल गांधी पहले ही यह कह चुके हैं। वो उन सभी दलों से हाथ मिलाने को तैयार हैं, जो हमारी विचारधारा पर यकीन करती हैं। वह साफ कह चुके हैं कि सभी को साथ लेकर चलने वाली विचारधारा में जो यकीन नहीं करता वह हमारे लिए अछूत है। लेकिन क्या बस हाथ मिलाने भर से हो जाएगा या फिर इस तरह के गठबंधन के लिए कांग्रेस जरूरी बलिदान देने को भी तैयार है? इस सवाल पर गौड़ कहते हैं कि इसका अंदाजा तो कर्नाटक से ही लग जाना चाहिए, यहां अपने पास ज्यादा विधायक होने के बावजूद हमने जेडीएस को सरकार का नेतृत्व सौंपा। ऐसा इसलिए कि हम लोकतंत्र और एकजुटता में विश्वास करते हैं। इसी कारण राहुल गांधी ने जेडीएस के साथ गठबंधन का फैसला किया। मुझे और गुलाब नबी आजाद को देवगौड़ा से बातचीत का जिम्मा सौंपा। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन को लेकर पूछे जाने पर वह कहते हैं कि फिलहाल उनका ध्यान अगले 6 महीने में होने वाले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर है। उसके प्रदर्शन पर ही आगे के कदम तय होंगे। बिहार में जिस तरह हमने गठबंधन किया था, किसी ने सोचा नहीं था कि लालू यादव और नीतीश कुमार एक साथ आएंगे, लेकिन ऐसा हुआ। यह सोनिया गांधी की सलाह पर राहुल गांधी के नेतृत्व के कारण हो सका था। हम आगे भी इसी तरह बढ़ेंगे। जैसे आप यूपी को ही ले लें, अगर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस एक साथ आते हैं, तो बीजेपी बाहर हो जाएगी। बीजेपी यहां 70 सीटों के नंबर से शून्य पर खिसक जाएगी। चुनाव अभियान में पिछड़ जाने के बाद कांग्रेस ने चुनाव-बाद गठबंधन बनाने में जबरदस्त फूर्ती और रफ्तार दिखाई- वह तेवर जो अभी तक गायब थे। इसने एक ऐसे क्षेत्रीय पार्टनर को मुख्यमंत्री पद देने का लचीलापन दिखाया, जिसकी सीटें इसके मुकाबले आधे से भी कम थीं। कांग्रेस को साफ तौर पर इसके पांच फायदे हैं। पहला, यह एक बड़े राज्य में (भले ही गठबंधन करके) सत्ता पर काबिज है, जो कि चुनाव में फंड जुटाने के लिए जरूरी है। दूसरा, इसने अपने कुनबे को एकजुट रखने में जुझारूपन का प्रदर्शन किया। यह अलग बात है कि इसे अपने विधायकों की ईमानदारी पर बहुत कम भरोसा था। खबरें हैं कि कांग्रेस विधायकों को शपथ ग्रहण से पहले घर नहीं जाने दिया गया। तीसरा, जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री (बशर्ते कि वो बहुमत साबित कर देते हैं) बनाने के बाद विपक्ष के पास अब एक ‘कर्नाटक मॉडल’ है, जिसकी अन्य राज्यों में भी नकल की जा सकती है। चौथा, कांग्रेस ने शायद मान लिया है कि इसका एकछत्र राज खत्म हो चुका है और इसको क्षेत्रीय शक्तियों का पिछलग्गू बनकर रहना होगा। पांचवां नाटकीय घटनाओं से पहले सामने आए घूस देने के आरोप कांग्रेस को अगले चुनाव में बीजेपी को घेरने के लिए पर्याप्त मसाला मुहैया कराएंगे। हालांकि अभी यह देखना बाकी है कि कहीं इन फायदों पर कांग्रेस और जेडी (एस) के बीच हुए मजबूरी के गठजोड़ की खींचतान में पानी ना फिर जाए। केंद्र में वापसी की उम्मीद कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक, भले ही यूपी, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेस बी टीम बनकर लडऩे को राजी है। लेकिन, उसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों से ज्यादा उम्मीद है जहां उसकी लड़ाई सीधे बीजेपी से है। कांग्रेस को लगता है कि इन सभी राज्यों से आने वाली उसकी सीटें मिलाकर उसकी अपनी ताकत में ज्यादा इजाफा हो जाएगा, जिससे विपक्षी कुनबे में वो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर पाएगी। कर्नाटक में जेडीएस को सरकार बनाने का मौका देकर कांग्रेस इसकी कीमत वसूलने की कोशिश लोकसभा चुनाव में कर सकती है। कांग्रेस कर्नाटक को टर्निंग प्वाइंट मानकर चल रही है। उसे लगता है कि कर्नाटक में सरकार बनाकर वह देश भर में एक ऐसा माहौल बना सकती है जिससे विपक्षी दलों को भी एक संदेश जाएगा कि कांग्रेस मोदी को हटाने के लिए भी सबकुछ त्याग कर सकती है। यूपीए-3 की तैयारी में लगी है कांग्रेस! कर्नाटक में बीजेपी का रास्ता रोककर कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ है। कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी कर्नाटक में जेडीएस के साथ मिलकर गठबंधन कर चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस की रणनीति भी यही है जिसमें यूपीए 1 और 2 की तरह एक बार फिर से यूपीए 3 का कुनबा बड़ा किया जाए। कांग्रेस अपने साथ अलग-अलग दलों को जोडऩे के लिए अभी से ही तैयारी कर रही है। हालांकि कांग्रेस को इसके लिए क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू बनकर ही रहना पड़ेगा। मसलन, बिहार में कांग्रेस को आरजेडी का पिछलग्गू बनकर रहना पड़ेगा, जबकि, यूपी में अखिलेश यादव और मायावती के साथ गठबंधन कर कांग्रेस को यहां भी कम सीटों पर समझौता करना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की हालत खस्ता हो गई है। वहां ममता बनर्जी का मुकाबला बीजेपी से ही है। ऐसे में कांग्रेस वहां भी ममता की बी टीम बनकर काम करने के लिए तैयार हो सकती है। इसी तरह झारखंड में जेएमएम के पीछे-पीछे और तमिलनाडु जैसे राज्य में कांग्रेस डीएमके के पीछे चलने को तैयार दिख रही है। - दिल्ली से रेणु आगाल
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