04-Jun-2018 07:25 AM
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मप्र में कुपोषण का कलंक मिटाने राज्य सरकार ने 10 साल के लिए अटल बाल आरोग्य पोषण मिशन शुरू किया था, लेकिन 8 साल में करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद कुपोषण की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाया। मिशन खत्म होने में दो साल बचे तो अब महिला एवं बाल विकास विभाग कुपोषण कम न होने के लिए कलेक्टरों को जिम्मेदार बताने लगा। हाल ही में विभाग के प्रमुख सचिव जेएन कंसोटिया ने कलेक्टरों को पत्र लिखकर नाराजगी भी जाहिर की है। उन्होंने कलेक्टरों से कहा है कि मिशन में वे व्यक्तिगत रुचि लेकर दो साल की कार्य योजना बनाएं और इस पर अमल भी करें। विभाग ने कहा कि अब तक इसमें कलेक्टरों ने व्यक्तिगत रुचि नहीं ली इसलिए इसका अमल भी ठीक से नहीं हुआ है, जिससे कुपोषण भी लक्ष्य के अनुसार कम नहीं हो पाया है। हालात यह है कि 2010 में मिशन की शुरूआत के समय अगले 10 साल में कुपोषण 60 से घटाकर 20 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया था।
2015-16 (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार) कुपोषण 42.8 प्रतिशत है। अब 2020 तक कुपोषण 20 प्रतिशत पर लाना है। आठ साल में अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी महज 18 प्रतिशत कुपोषण कम हो पाया है। वहीं 5 साल से कम उम्र के गंभीर कुपोषण वाले बच्चों की दर 126 प्रतिशत है, जिसे मिशन की अवधि में 5 प्रतिशत लाने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन इसकी भी चिंताजनक स्थिति बनीं हुई है।
मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में एक अध्ययन से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौतों का शिकार होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। यह रिपोर्ट कुपोषण की स्थिति पर रोशनी डालती है। इसमें उन स्थितियों का विश्लेषण किया गया है, जिन्हें रोका जा सकता है, जिनके कारण भारत में नवजात शिशुओं और बच्चों की मौत होती है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार भारत में प्रतिदिन 3000 बच्चे कुपोषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। भारत को विश्व की तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों में गिना जा रहा है, किन्तु दूसरी ओर यह विश्व में सबसे ज्यादा कुपोषण से ग्रस्त देश भी है।
कुपोषण के कारण जिन बच्चों की क्षमता पर्याप्त विकसित नहीं हो पाती, उनके कारण 2030 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 46 करोड़ डॉलर की हानि होगी। भारत को कुपोषण के कारण अपने सकल घरेलू उत्पाद के करीब चार फीसदी की क्षति होती है। उद्योग संगठन एसोचैम और कंसल्टेंसी फर्म ईवाई की ओर से संयुक्त रूप से प्रकाशित एक शोध पत्र में कहा गया है कि महिलाओं और बच्चों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है। दुनिया के करीब 50 फीसदी कुपोषित बच्चे भारत में हैं। शोध पत्र में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों का जिक्र किया गया है, जिसमें छह से 59 महीने के करीब 60 फीसदी बच्चों को रक्तहीनता से पीडि़त बताया गया है। रपट के मुताबिक भारत में सिर्फ 10 फीसदी बच्चों को पर्याप्त भोजन मिल पाता है। महिलाएं और लड़कियों की स्थिति भी रोजाना पोषण की खुराक के मामले में ठीक नहीं है, जबकि उनके लिए केन्द्र सरकार ने प्रमुख कार्यक्रम शुरू किए हैं। 15 से 49 साल उम्र वर्ग में 58 फीसदी गर्भवती और 55 फीसदी महिलाएं जो गर्भवती नहीं हैं, रक्तहीनता से पीडि़त हैं। भारत में कुपोषण को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। आयोडीन युक्त नमक, विटामिन ए एवं आयरन सप्लीमेंट, स्तनपान आदि कुछ ऐसे उपाय किए जा रहे हैं जो सकारात्मक दृष्टि देते हैं। स्वच्छ भारत मिशन की सफलता ने भी कुपोषण की राह में एक कदम आगे बढ़ाया है। उम्मीद है कि कुपोषण की शर्मनाक स्थिति से भारत जल्दी ही छुटकारा पा सकेगा। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साहजनक नहीं है।
अरबों खर्च, फिर भी जस का तस मर्ज
आदिवासी बाहुल्य विकासखंड कुपोषण से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। श्योपुर जिला कुपोषित आदिवासी बच्चों की मौत के कारण सुर्खियों में रहा है। प्रदेश में कुपोषण की दर 67 फीसदी मानी जाती है, लेकिन सरकार इसे नकारती है। कुपोषित बच्चों में 90 फीसदी आदिवासी अंचलों के हैं। बीते डेढ़ दशक में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग पर करीब 2215.07 अरब रुपए खर्च किए गए। इसके बावजूद इनकी बड़ी आबादी कुपोषण, गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी से जूझ रही है। इतना जरूर है कि जब-जब चुनाव आए, तब-तब सरकार कुछ ज्यादा ही मेहरबान रही। 2008, 2013 और अब 2018 में सरकार ने इनके लिए दिल खोलकर खर्च किया। इन खर्चों की व्यवस्था से जुड़े नेता और अफसरों का कॉकस जरूर मालामाल हो गया। इस साल राज्य बजट में इनके लिए 46209.28 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इसमें से 20 फीसदी राशि जारी हो चुकी है। बाकी राशि नवंबर तक खर्च करने का लक्ष्य है। इन दोनों वर्गों के लिए 2008 में 20 फीसदी बजट बढ़ाया गया था। फिर 2009 में 26 फीसदी बजट बढ़ा दिया। इसी तरह 2013 के लिए 2012 में 25 प्रतिशत बजट बढ़ाया गया। अब 2018 के चुनाव के लिए 2017-18 में 26 फीसदी और 2018-19 में 25 प्रतिशत बजट बढ़ोतरी की गई। यानी 2008 से अब तक बजट में करीब 75 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई। स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय निर्माण के मामले में आदिवासी अंचल ज्यादा बेहाल हैं। शौचालयों के 1394470 आवेदनों में से 11.22 लाख से ज्यादा आदिवासी क्षेत्रों के हैं। सरकार ने हाल ही में जिन 3.34 लाख शौचालयों को गड़बड़ी के कारण रद्द करना तय किया है, उनमें 56 फीसदी आदिवासी अंचलों के हैं।
-विशाल गर्ग