04-Jun-2018 07:20 AM
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गल देखने या सुनने में भले ही डरावना लगे लेकिन हमारे जीवन में इसका काफी महत्वपूर्ण योगदान है। हमारी आवश्यकता की काफी चीजों की पूर्ति इन्हीं जंगल से होती हैं। चाहे जंगली पेड़-पौधे हो या जंगली जीव, सभी हमारे किसी न किसी काम आते हैं।
यूं तो सभी जगह बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (जैव विविधिता) घट रही है। ग्वालियर-चम्बल परिक्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। इस अंचल की जैव विविधिता की समृद्धि पर सीधे चोट अर्थ हीटिंग है। इसकी वजह स्थानीय लोगों और एजेंसियों की नादानियां हैं। जैसे पहाड़ों और जंगलों की तबाही। नदियों पर अट्टालिकाओं की कतारें। इन्हीं सभी वजहों के चलते तुलनात्मक रूप में ग्वालियर-चम्बल में अर्थ हीटिंग कहीं ज्यादा है। दुष्परिणाम सामने हैं, ग्वालियर-चम्बल में शेर, बाघ और सोन चिरैया जैसे जीव स्थानीय धरती से विलुप्त हो चुके हैं। दर्जनों वनस्पतियां विलुप्त हो चुकी हैं। घटती बायोडायवर्सिटी की सबसे बड़ी मार दाल रोटी पर भी पड़ी है। ये देखते हुए कि कालीमूंछ चावल, दाल और बाजरे के कई स्थानीय बीज खत्म हो गए। स्थानीय अध्ययन के मुताबिक ग्वालियर-चम्बल की धरती के तापमान में पिछले बीस साल में औसतन करीब तीन डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। वर्ष 1990 से लेकर 2015 तक समूचे देश में सामान्य तौर पर डेढ़ डिग्री सेल्सियस अर्थ हीटिंग दर्ज है। जंगलों की कटाई और बीहड़ों के वनस्पति विहीन हो जाने से अर्थ हीटिंग ने धरती की कोख उजाडऩी शुरू कर दी है। अर्थ हीटिंग की वजह से वाष्पीकरण की प्रक्रिया बेहद तेज हुई है। ग्वालियर अंचल की वार्षिक वाष्पीकरण दर 1500 से 1800 मिलीमीटर से बढक़र 2000 से 2200 मिलीमीटर तक पहुंच गई है। जबकि औसत बारिश 750 मिलीमीटर के आसपास ही बनी हुई है। इन सब वजहों से भू सतह पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया खत्म हो रहे हैं। चिंता की बात घटता जंगल भी है।
बीस साल से जंगल का रकबा कागजों में 20 फीसदी ही बना हुआ है। 33 फीसदी वन संतुलित हीट के लिए जरूरी है। बायो डायवर्सिटी के घटने से मिट्टी में पोषक तत्वों की जबर्दस्त कमी आई है। मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला का दावा है कि ग्वालियर चम्बल की मिट्टी में आयरन, सल्फर, दूसरे तत्वों की मात्रा तेजी से घटी है, जिसके चलते तमाम बीमारियां घर कर रही हैं। दरअसल मिट्टी का स्वभाव सीधे तौर पर अनाज की गुणवत्ता प्रभावित करता है। इसलिए उसकी कमी के लिए चिकित्सक तमाम सहयोगी दवाएं लिखते हैं। हरियाली खत्म होने से मानव जीवन सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है। जीव विज्ञानी डॉ. विनायक तोमर का कहना है कि मानव स्वास्थ्य को मिलने वाले 66-72 फीसदी विटामिन्स सीधे तौर पर हरियाली से मिलते हैं। सूर्य की तपिश से दूसरे रोग भी बढ़ते हैं।
मध्यप्रदेश राज्य जैव विविधिता बोर्ड के अध्ययन के मुताबिक ग्वालियर शहर की 31 वनस्पतियां संकटग्रस्त हैं। ये पेड़/पौधे पूरी तरह विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें मुख्य संकट ग्रस्त वनस्पतियों में कैथा और हिग्नोट प्रमुख हैं। पेड़ों की दस प्रजातियां ऐसी हैं जिनके समूचे शहर में केवल एक-एक ही पेड़ मिले हैं। इनमें प्रमुख हैं, गोरख इमली, कालाबांस, सीता अशोक और हरी चम्पा आदि शामिल हैं।
चम्बल घाटी में कभी टेसू, पलाश, खस और रेमजा जैसे सुंदरतम फूल वाले वृक्ष/पौधे लहलहाते थे। अपार औषधीय महत्व की वनस्पति संपदा भी पसरी हुई थी। ये सब अब इतिहास के दरख्त बन चुके हैं। बीहड़ वीरान हो चुके हैं। बीहड़ में पाई जाने वाली औषधीय महत्व की करीब एक दर्जन वनस्पतियां विलुप्त हो चुकी हैं। करीब इतनी ही वनस्पतियां आसन्न संकट की जद में हैं। दरअसल औषधीय वनस्पतियों के लिए सबसे बड़ा दुश्मन बीहड़ विस्तार रोकने अपनाई गई अमेरिकन टेक्रीक रही। जिसके चलते बीहड़ का कटाव तो रुका नहीं, औषधीय वनस्पतियां जरूर तबाह हो गईं। बीहड़ के आधिकारिक विद्वान डॉ. शोभाराम बघेल कहते हैं कि चम्बल में कई प्रजातियां विलुप्त प्राय हैं। इनमें औषधीय महत्व की वनस्पति गुग्गुल, कांस, बिछौतिया, गोखरू, हिंगोट, थूहड़ सांट, सरपौंटा, औंगा, दुधी, मेढ़ा गोभी और चेटियावर प्रमुख हैं।
औषधीय पौधों का होना चाहिए रोपण
प्रदेश के जंगलों से वनस्पति प्रजातियां तेजी से खत्म हो रही हैं। कुछ लगभग विलुप्त होने की स्थिति में हैं तो कुछ खतरे के निशान पर पहुंच गई हैं। भारतीय राज्य वन अनुसंधान (आईएसएफआर) ने मप्र के विभाग को इस संबंध में चेताया भी है। प्रदेश के जंगलों को हरा-भरा बनाए रखने के लिए कुछ प्रजातियां आगामी वर्षों में लगाने के लिए सुझाव भी दिए हैं। वहीं विभाग का अनुसंधान व विस्तार केंद्र संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए प्रदेश की 162 नर्सरी में 50 लाख पौधे तैयार कर रहा है। इन पौधों को इसी वर्ष बारिश के दौरान जंगलों में लगाया जाएगा। आईएसएफआर का कहना है कि संकटग्रस्त प्रजातियों की पहचान कर ली गई है। इस साल 50 लाख पौधे तैयार होंगे तथा अगले वर्ष एक करोड़ के आसपास का लक्ष्य रखा है। पचमढ़ी में बरगद की एक प्रजाति फाइकस कुपुलाटा ऐसी है, जो वहीं पैदा हुई और देश-दुनिया के जंगलों में पहुंची। अब स्थिति यह है कि पचमढ़ी में ही इस प्रजाति के तीन पेड़ बचे हैं। अब इस प्रजाति को बचाने के लिए 50 हजार से ज्यादा पौधे तैयार किए जा रहे हैं। वहीं दहीमन, मैदा, शल्यकर्णी, कर्कट, सोनपाठा, गरुड़ वृक्ष, बीजा, लोध्र, कुंभी, गवदी, कंकड़, पाडर, निर्मली, कुल्लू, रोहिना, शीशम, धवा, सलाई, चिरौंजी, तमोली, गधा पलाश, धनकट, सलई, हलदू, अंजन, मोखा आदि प्रजातियों पर अब संकट मंडरा रहा है।
-विकास दुबे