04-Jun-2018 07:05 AM
1234840
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राजग सरकार के पिछले नौ महीने की कार्यशैली एवं गतिविधियों का अवलोकन करें तो सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध युद्ध और सात निश्चय के जरिए किसानों, आधी आबादी, विद्यार्थियों एवं बेरोजगारों के मुद्दों पर सबसे ज्यादा फोकस किया गया है। जाहिर है, जातीय सम्मेलनों, आंदोलनों और वर्ग संघर्ष की पहचान वाले प्रदेश की सियासत में यह नई किस्म का बदलाव है। सत्ता पक्ष ने अगर इसे इसी तरह जारी रखा तो अगले कुछ वर्षों में वोट बैंक के मायने बदलना तय है। जदयू प्रवक्ता नीरज कुमार के शब्दों में मुद्दों पर राजनीति करने वाली सरकार में यह अचानक बदलाव नहीं है। 2005 में जब पहली बार राज्य में नीतीश कुमार की सरकार बनी थी तो पंचायतों और नगर निकायों में आधी आबादी के लिए 50 फीसदी आरक्षण देकर तय कर दिया गया था कि जातीय राजनीति के दिन अब लदने वाले हैं।
राज्य सरकार के इस कदम से दबे-कुचले एवं दलितों-वंचितों को जातीय चश्में से देखने का नजरिया बदल गया। नक्सल आंदोलनों की हवा निकल गई और नरसंहारों पर नियंत्रण हो सका। बाद में राज्य सरकार की सभी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करके आधी आबादी को जातीय मानसिकता से इतर मतदान केंद्रों तक पहुंचने का रास्ता तय कर दिया गया।
नीतीश सरकार ने सब्जी की जैविक खेती के लिए किसानों को छह-छह हजार रुपये का अग्रिम अनुदान देकर राज्य के दूसरे सबसे बड़े वर्ग को मुरीद बनाने की कोशिश की है। बिहार की 76 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। नीतीश को बेहतर पता है कि किसानों एवं खेतिहर मजदूरों की आमदनी बढ़ाकर राज्य की तीन चौथाई आबादी की दशा-दिशा में परिवर्तन लाने की कवायद कालांतर में वोट बैंक में तब्दील हो सकती है। केंद्र से इतर राज्य सरकार की अपनी फसल बीमा योजना की तैयारी को भी इसी मकसद से जोडक़र देखा जा रहा है। स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड के जरिए अगले तीन सालों में ढाई लाख युवाओं को सहारा देकर मानसिकता में परिवर्तन की पहल का संकेत साफ है कि नई पीढ़ी को पुराने राजनीतिक रोग से बचाना है। स्वस्थ मानसिकता के साथ उन्हें मतदान केंद्रों का रास्ता बताना है।
मानव विकास पर फोकस कर नीतीश कुमार की दो दशक की राजनीति और पिछले चुनाव के नतीजों ने सबको अहसास करा दिया है कि पब्लिक को महज बयानबाजी नहीं, बल्कि बिजली, पानी, शिक्षा, सडक़ और संचार के साधनों की दरकार है। यही कारण है कि राज्य सरकार की पहल का विपक्ष भी अनुसरण करने में पीछे नहीं रहे। यहां तक कि माय समीकरण के सहारे वर्षों तक सूबे की सियासत में शीर्ष पर रहे राजद के स्वर और राजनीति के तौर-तरीके भी बदलने लगे हैं। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के एजेंडे में महिलाएं एवं बेरोजगार प्रमुखता से शामिल हैं। उनके भी बयानों में काम-धंधे की कमी, बेरोजगारी, कारोबार की दुर्गति एवं किसानों की आय के मुकम्मल इंतजाम के मुद्दे शामिल होते हैं।
पहचान की राजनीति से निकल जदयू ने अब समावेशी राजनीति की रणनीति अपनाई है। पार्टी के कार्यक्रम इसे ही मद्देनजर रख तय हो रहे हैं। तेज ध्रुवीकरण के कारण बदले राजनीतिक हालात में अपने दर्शन और सिद्धांत पर कायम रहने का भी प्रयास है। लोगों के बीच खुद की पहचान बनाना भी जदयू की प्राथमिकता में अभी शामिल है। पार्टी सूत्रों ने बताया कि जदयू को इस बात का एहसास है कि गठबंधन की राजनीति में पीडीपी एवं अकाली दल जैसी पार्टियों को भी अपनी पहचान की चिंता है।
क्या गुल खिलाएगा समाज सुधार अभियान
समाज में कट्टरपन नहीं फैले, इसकी काट के लिए जदयू ने समाज सुधार अभियान चला रखे हैं। पार्टी इन मुद्दों के माध्यम से समाज के हर तबके को पहले से ही इंगेज रखना चाहती है। कट्टरपन से निपटना भी समावेशी राजनीति पर फोकस का बड़ा कारण है। समाज सुधार के कार्यक्रमों में दहेज प्रथा का उन्मूलन एवं बाल विवाह पर रोक के लिए अभियान प्रमुख हैं। जेपी आंदोलन के दौरान लोकनायक ने भी ऐसा प्रयोग किया था। तब उन्होंने जनेऊ तोड़ो आंदोलन चलाया था। जदयू को इस बात का भी एहसास है कि अनुसूचित जाति एवं अतिपिछड़ों की भावना उससे जुड़ी है, मगर इतिहास गवाह है कि बिहार में इन जातियों की पहचान की राजनीति बहुत सफल नहीं हुई है। चाहे वह 1934 में बनी त्रिवेणी सभा हो, या 1947 में गठित बिहार स्टेट बैकवर्ड क्लास फेडरेशन की बात हो। ऐसे में केवल कुछ चुनिंदा समुदायों की गोलबंदी की जगह समाज के हर तबके का दिल जीतना अधिक बेहतर है। पार्टी ने अपनी राजनीति के समावेशी स्वरूप के लिए अपने सक्रिय कार्यकर्ताओं के सघन प्रशिक्षण की मुहिम भी चलाई। उन्हें विभिन्न समुदायों के विकास से लेकर पार्टी के सिद्धांत जैसे 13 विषयों पर ट्रेनिंग दी गई है।
- विनोद बक्सरी