21-May-2018 09:11 AM
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आम चुनाव में 50 फीसदी वोट लाने का कारनामा देश की राजनीति में अब तक कोई भी दल नहीं कर पाया है। साल 1984 के आम चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल करने वाली कांग्रेस भी 49.1 फीसदी के आंकड़े तक पहुंची थी और उसने 514 में से 404 सीटें जीती थीं। भाजपा इस रिकॉर्ड के आगे जाना चाहती है। 2014 के चुनाव में 282 सीटों के साथ अकेले बहुमत हासिल करने के बाद भी कई आलोचक याद दिलाते रहे हैं कि इस सरकार को केवल 31 फीसदी लोगों का ही समर्थन हासिल है।
इससे पहले अमित शाह अपनी कई रैलियों में कह चुके हैं कि पार्टी का मकसद पूरे देश पर अपनी एकछत्र सत्ता स्थापित करना है। अध्यक्ष के रूप में उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि वे इसे हासिल करने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार दिखते हैं। इनमें दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल करना और छोटे दलों का विलय करने जैसे कदम शामिल हैं। इसके अलावा इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए भाजपा नेतृत्व उन 150 सीटों पर भी अधिक ध्यान दे रही है, जिन पर 2014 के चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था या जिन सीटों पर इसका आधार कमजोर है। इनमें से अधिकतर सीटें पश्चिम बंगाल और ओडिशा के साथ दक्षिण भारत के राज्यों- कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की हैं।
आज से एक साल पहले की बात करें तो अमित शाह की कार्यशैली और उपलब्धियों को देखते हुए 50 फीसदी से ज्यादा वोट प्रतिशत का लक्ष्य भाजपा के लिए बिल्कुल असंभव भी नहीं दिख रहा था। उनके नेतृत्व में पार्टी ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, झारखंड, असम, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और त्रिपुरा में अपने दम पर सरकार बनाई। पार्टी को केवल दिल्ली, बिहार और पंजाब में हार का सामना करना पड़ा। बीते साल बिहार में नीतीश कुमार को एक बार फिर साथ लाकर भाजपा हार के बाद भी सत्ता का स्वाद चखने में सफल रही। इसके अलावा महाराष्ट्र में वह शिवसेना और जम्मू-कश्मीर में अपनी विचारधारा के उलट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ सरकार में है।
वहीं मेघालय, नागालैंड मणिपुर, गोवा और अरुणाचल प्रदेश में भाजपा ने जोड़-तोड़ और राजनीतिक दाव-पेंच के जरिए सरकार बनाने में सफलता हासिल की। अमित शाह अपनी उपलब्धियों में वैसे राज्यों को भी शामिल करते हैं, जहां पार्टी को भले ही हार का सामना करना पड़ा हो लेकिन, उसके वोट शेयर में बढ़ोतरी देखने को मिली है। ये राज्य हैं- केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी।
लेकिन, बीते एक साल के दौरान ही देश की राजनीतिक हवा बदलती हुई दिख रही है। भाजपा शासित बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। इसकी पुष्टि इन राज्यों में उपचुनाव के नतीजों के साथ अलग-अलग राज्यों में उभरे दलित और किसान आंदोलनों से भी होती है। इन राज्यों में पिछले लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को 134 में से 125 सीटें हासिल हुई थीं। इनमें भाजपा की हिस्सेदारी 123 सीटों की थी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच तय गठबंधन पार्टी नेतृत्व में बैचेनी पैदा करता हुआ दिख रहा है। दोनों पार्टियों के वोट शेयर को मिलाने पर भाजपा को करीब 50 सीटों का नुकसान होता दिखता है। 2014 के चुनाव में सूबे में एनडीए को 80 में से 73 सीटें हासिल हुई थीं। इनमें भाजपा ने 71 सीटों पर कब्जा किया था।
वहीं, दक्षिण की बात करें तो तमिलनाडु में पार्टी अन्नाद्रमुक के दोनों गुटों के बीच फंसी हुई दिखती है। भाजपा का कहना है कि दोनों गुटों के एक साथ आने पर ही वह अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन करेगी। दूसरी ओर, द्रमुक के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन कई मौकों पर भाजपानीत केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए दिखे हैं। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर अहम सहयोगी एन चंद्रबाबू नायडू का एनडीए से अलग होना भी दक्षिण भारत में भाजपा के लिए मुश्किलें बढऩे का सबब माना जा रहा है।
दूसरी ओर, महाराष्ट्र में शिवसेना के एनडीए से अलग होने और किसानों में भाजपा सरकार को लेकर नाराजगी पार्टी नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती बनती दिखाई दे रही है। इसके अलावा गुजरात की बात करें तो भाजपा ने भले ही सत्ता हासिल करने में सफलता हासिल कर ली लेकिन, कांग्रेस से उसे कड़ी टक्कर मिली थी। साथ ही, पार्टी को गांवों में काफी नुकसान उठाना पड़ा था। इसके पीछे किसानों की नाराजगी को ही माना गया था। राज्य में दलितों की भाजपा से नाराजगी भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र की 48 सीटों में से भाजपा को 23 और शिवसेना को 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। दूसरी ओर, गुजरात की सभी 26 सीटों पर भाजपा ने कब्जा किया था। लेकिन जानकारों का मानना है कि इस बार ऐसा होना बहुत मुश्किल है।
इन बातों के अलावा 50 फीसदी वोट हासिल करने कि लिए अमित शाह को कुछ पहाड़ सरीखी चुनौतियों से होकर गुजरना पड़ सकता है। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘अमित शाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में अनुशासन को बनाए रखना है। आदित्यनाथ और हिमंता बिस्वा सरमा, जो संघ से नहीं आते हैं, का असंतुष्ट होना उनके लिए एक बड़ी चुनौती पैदा कर सकता है।’ वे आगे बताते हैं कि फिलहाल भाजपा नेतृत्व को संघ से कोई चुनौती नहीं है। उधर, वरिष्ठ पत्रकार किंशुक नाग अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के लिए सबसे बड़ी बाधा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के रूप में मौजूद आंतरिक चुनौती को ही मानते हैं। उनका कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा नेतृत्व ने पहले मनोज सिन्हा का नाम तय किया था। लेकिन संघ के दखल के बाद आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया।’ वे आगे बताते हैं, ‘भाजपा को पूरे देश में एकसमान नीति अपनाने की जगह अलग-अलग राज्यों में वहां की स्थानीय परिस्थितियों को समझते हुए उनके आधार पर नीतियां बनाने की जरूरत है। इसके बिना पार्टी कामयाबी हासिल नहीं कर सकती।’
बीते कुछ समय के घटनाक्रम देखें तो कुछ हद तक भाजपा ऐसा करती भी दिख रही है। उत्तर प्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में बीफ पर रोक उसकी प्राथमिकताओं में शुमार दिखता है तो दूसरी तरफ उत्तर-पूर्व के राज्यों के बारे में उसने इस मसले पर दखल नहीं देने की बात कही है। इसके अलावा अमित शाह जहां महिला अधिकार और सुरक्षा की बातें करते हैं तो वहीं खाप पंचायतों के खिलाफ टिप्पणी करने से इनकार भी करते हैं। यानी भाजपा इन चुनौतियों को समझ रही है। दूसरी ओर, राजनीतिक समीकरणों से इतर 2014 के चुनाव से पहले जनता से किए गए वादे पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। बीते एक साल के दौरान विपक्ष ने रोजगार, कृषि संकट, महिला सुरक्षा, विकास और अर्थव्यवस्था में संकट जैसे मुद्दों को लेकर सरकार पर तीखे हमले शुरू कर दिए हैं। जानकारों के मुताबिक नोटबंदी और जीएसटी को लेकर कारोबारी तबके की नाराजगी अब तक पूरी तरह दूर नहीं हुई है। माना जा रहा है कि आम चुनाव के नजदीक आने के साथ ही इन मुद्दों को लेकर विपक्ष का हमला और तेज हो सकता है। साथ ही, इन मुद्दों को लेकर अगर विपक्ष मतदाताओं का ध्यान खींचने में सफल होती है तो भाजपा के लिए बहुमत हासिल करना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। ऐसी परिस्थितियों में अमित शाह के लिए 50 फीसदी वोट हासिल करने का दावा दूर की कौड़ी ही लगता है।
नहीं बनेगा तीसरा मोर्चा, एकजुट होकर लड़ेगा समूचा विपक्ष
वरिष्ठ समाजवादी नेता शरद यादव ने अगले साल लोकसभा चुनाव में बीजेपी की चुनौती से निपटने के लिए तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद को नकारते हुए सभी विपक्षी दलों के एकजुट होने का भरोसा जताया है। यादव ने कहा, तीसरा मोर्चा बनने के कोई आसार उन्हें नजर नहीं आते। यादव ने कहा है कि अगले साल लोकसभा चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद से विपक्ष की एकजुटता पर असर नहीं पड़ेगा। टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी और टीआरएस प्रमुख चंद्रशेखर राव द्वारा तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद से विपक्ष की एकता के प्रयासों को धक्का लगने के सवाल पर उन्होंने कहा ‘मुझे नहीं लगता कि तीसरा मोर्चा वजूद में आएगा। कुछ समय इंतजार करें, तीसरा मोर्चा बनाने वाले ही साझा विपक्ष की बात करेंगे।’ इस भरोसे का आधार बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इस बार संविधान को बचाने की चुनौती है, इसके लिए ‘साझा विरासत’ के मंच पर सभी दलों और संगठनों को एकजुट करने में मिली कामयाबी से मैं आश्वस्त हूं कि सभी विपक्षी दल, मोदी सरकार की वजह से उपजे संकट से देश को उबारने के लिए तत्पर हैं।’
यूपी से भाजपा करेगी लोकसभा चुनाव का आगाज
आगामी लोकसभा चुनाव की नींव एक बार फिर काशी से रखी जाएगी। इसके लिए जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह बनारस आएंगे। 30 मई को काशी मे होने जा रहे बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन के जरिए मिशन 2019 का आगाज होगा। इसके लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं। 30 मई को बीजेपी काशी क्षेत्र का बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन है। पार्टी के अनुसार, इसमें बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के आने की उम्मीद है। इसको लेकर बीजेपी प्रदेश के सह प्रभारी सुनील ओझा ने कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के साथ बैठकें शुरू कर दी हैं। कार्यकर्ताओं को अधिक से अधिक संख्या में पहुंचने के लिए कहा गया है। साथ ही मेहनती कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी देते हुए उन्हें आगे लाने का भी एजेंडा रखा गया है। कुल मिलाकर इस बार का बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन हूबहू वैसा ही हो रहा है, जैसा कि लोकसभा चुनाव के वक्त हुआ था। सुनील ओझा एक-एक कार्यकर्ता से सीधे रूबरू हो रहे हैं। माना जा रहा है कि बीजेपी 30 को अमित शाह की मौजूदगी में यूपी से लोकसभा चुनाव का आगाज करेगी।
-कुमार राजेंद्र