04-Jul-2013 09:34 AM
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केदारनाथ, रूद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, ऋषिकेश, गौरीकुंड, चामोली, गुप्तकाशी और अगस्त्यमुनि की घाटियों में श्रद्धालुओं की लाशें बिछी हुई हैं। अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं है। बच्चे, बूढ़े,

महिलाओं के शव वीभत्स दृश्य उत्पन्न कर रहे हैं। जिन शवों के निकट संबंधी अंतिम क्षण में उपस्थित थे उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर अपनों को कीचड़ में नम आंखों से दफना दिया है। किसी मां ने अपने बच्चे को गड्ढा खोदकर दफनाते हुए अंतिम विदाई दी तो किसी नौजवान ने अपने वृद्ध पिता को गंगा की लहरों में ही समर्पित कर दिया। लावारिश लाशों का कुछ समाजसेवी अंतिम संस्कार कर रहे हैं। लेकिन बहुत से शव शायद कभी दफनाए या जलाए नहीं जा सकेंगे। क्योंकि पहाड़ से बहते पानी ने उन्हें दुर्गमतम क्षेत्रों में बहा दिया है। इसी कारण सरकारी मौत का आंकड़ा राजनीति के चलते एक हजार पर ठहरा हुआ है लेकिन सच तो यह है कि 30 से 40 हजार लोगों को इस आपदा ने मृत्यु के मुंह में पहुंचा दिया है और जो बचे हैं उन्हें जीवन का ऐसा सदमा मिला है जो वे शायद ही भूल पाएं।
इन क्षेत्रों के बहुत से हिस्से अब दुनिया के नक्शे पर नहीं हैं। सरकारी आंकड़ा कहता है कि उत्तराखंड में आई बाढ़ और प्राकृतिक आपदा ने 60 गांवों को नष्ट कर दिया है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि कई मध्यम आकार के शहर जो गंगा किनारे बिना विचार किए बसाए गए थे, समाप्त प्राय: हो चुके हैं। उत्तराखंड में जब बादल फटने के बाद बड़े-बड़े पर्वताकार पत्थरों को बहाकर गंगा और अन्य नदियों की वेगवती लहरें ऊपर से नीचे की ओर ला रही थीं तो उनकी चपेट में आने वाले गांव, धर्मशालाएं, मंदिर, होटल, घर से लेकर छोटी बड़ी तमाम इमारतें ताश के पत्तों की तरह बिखर गईं थी। कई भूकम्प रोधी सरकारी इमारतों को भी इस प्रलयंकारी बाढ़ ने उनकी औकात दिखाते हुए बहा डाला था।
जैसा कि होता आया है उत्तराखंड की सरकार देर से हरकत में आई। पहले-पहल यह समझा गया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी एक मामूली बाढ़ आई है जिसमें 100-50 लोगों की मृत्यु हुई होगी बाकी बचे-खुचे लोगों को निकाल लिया जाएगा। इसीलिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बहुगुणा ने अपनी विदेश यात्रा भी स्थगित नहीं करवाई थी। उन्हें लगा कि ऐसा तो हर वर्ष होता है, लेकिन जब बाद में घटना की भयावहता का पता चला तो सारा देश दहल उठा। मौत के आंकड़े जो शुरूआती दिनों में सैंकड़ों में दिए जा रहे थे वे अचानक हजारों में पहुंच गए। देश के प्राय: हर प्रांत के असंख्य लोगां को मौत के घाट उतार चुकी है यह आपदा। कितने लोग मरे कहना मुश्किल है। क्योंकि दुर्गम क्षेत्रों में जिंदा लोगों को बचाना ही कठिन हो रहा है, लाशों की बात कौन करे। लेकिन यह तय है कि उत्तराखंड के इतिहास में सबसे विनाशक त्रासदी में से एक यह प्रलयंकारी घटना केवल प्राकृतिक प्रकोप का नतीजा नहीं है बल्कि यह एक ऐसी आपदा है जिसे स्वयं मानव ने और उसके लालच ने आमंत्रण दिया है। विकास के नाम पर उत्तराखंड की पहाडिय़ों को जिस तरह खोखला किया जा रहा है उसके चलते एक न एक दिन तो यह होना ही था। बारिश होना कोई नई बात नहीं है, जितनी बारिश उस समय हुई और बादल जिस तरह फटे वह उत्तराखंड में लगभग प्रतिवर्ष किसी न किसी क्षेत्र में होता ही है। ढलान के कारण बाढ़ भी बहुत तेजी से आती है। मिट्टी का कटाव और भूस्खलन आम बात है, लेकिन फिर भी प्रकृति इतना रौद्र रूप नहीं दिखाती, जितना इस बार दिखाया। क्योंकि पहाड़ की ताकत को और आपदा को झेलने की उसकी क्षमता को विकास के नाम पर लालची सरकारों और आम आदमी ने नष्ट कर दिया है।
दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी गई हैं, खोखली जमीन पर धर्मशालाएं बनी हैं, होटलें बनी हैं, आलीशान मकान बने हुए हैं, सीमेंट कांक्रीट और लोहे के जंगल प्राकृतिक जंगलों को काटकर लालची मानव ने खड़े कर दिए हैं। बिना यह विचारे कि हिमालय दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखलाए हैं जहां जमीन के भीतर अभी भी खोखलापन है। मिट्टी के पहाड़ थोड़ी सी बारिश से ही बह जाते है और पहाड़ों से बहती बेतहाशा मिट्टी प्रलय का कारण बन सकती है। इस बार जो त्रासदी देखने में आयी है उसकी खासियत यह है कि पहली बार इतनी अधिक मिट्टी और चट्टानों के टुकड़े पानी के साथ बहकर गांवों को लील गए। जो भी इनकी चपेट में आया बच नहीं सका। किसी को उठकर खड़े होने का मौका नहीं दिया। लोग सोते रहे और उनकी होटलें, धर्मशालाएं रातों-रात बह गई। अकेले पानी का बहाव होता तो शायद बचने की गुंजाइश भी रहती, लेकिन पानी में घुली हुई मिट्टी और गाद लोगों की कब्रगाह बन गई। केदारनाथ घाटी में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।
जून के माह में सारे देश से तीर्थ यात्री केदारनाथ दर्शन के लिए आते हैं। क्योंकि इस समय वहां बर्फ नहीं होती, तापमान भी सहन करने योग्य रहता है, बर्फ पिघलने के कारण सारा क्षेत्र घूमने योग्य रहता है, लेकिन इन तीर्थ यात्रियों को यह पता नहीं था कि केदारघाटी में मानवीय गतिविधियों के कारण हालात कितने अनियंत्रित हो चुके हैं। जंगल कटने से जमीन की जलधारण क्षमता लगभग समाप्त हो चुकी है। एक बूंद भी पहाड़ पर गिरती है तो इस तेजी से नीचे भागती है कि उसके रास्ते में आने वाली हर बाधा धराशायी हो सकती है। पहाड़ों में मिट्टी के कटाव को रोकने वाले और बाढ़ को रोकने में सहायक जंगलों को हमारे देश की सरकारें विकास के नाम पर कटवाकर फेंक चुकी हैं। उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदान करने वाला राज्य बनाने का संकल्प पिछली भाजपा सरकार ने लिया था और वहां के पहाड़ों को इस राम नामी सरकार ने खोखला करवा दिया। गंगा की आस्था का झूठा ढोंग करने वालों ने नदी को नष्ट करने की पूरी कोशिश की, नतीजा सामने है। चेतावनी तो पहले ही दे दी गई थी, लेकिन चेतावनी को दरकिनार किया गया। आज लाशें गिनने वाला भी कोई नहीं है। जो लाशें बरामद हो रही हैं उनकी शिनाख्त किए बगैर अंतिम संस्कार कर दिया गया है। मानवता शर्मसार हो चुकी है क्योंकि आपदा से बेपरवाह लोग अब लूटपाट कर रहे हैं। एक-एक चपाती सौ-सौ रुपए में बिक रही है, पानी की बोतलें 400 रुपए में बेची जा रही हैं यह सब देखकर लगता है कि क्या हम वे ही लोग हैं जो द्वार पर आए भूखे को रोटी देना अपना कर्तव्य समझते थे। आज प्रलय के बाद उत्तराखंड में मुनाफाखोरी का जो गोरखधंधा चल रहा है उसे देखते हुए परमात्मा फिर कोई बड़ा दंड दे दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
गौरीकुण्ड से पांच हजार लोगों के लापता होने की खबर है। प्रशासन ने गौरीकुण्ड में राहत एवं बचाव कार्य के लिए 100 जवानों की टीम भेजी है। आपदा में 500 सड़कें और करीब 200 पुल बह गये हैं।

हालांकि सरकार की ओर से राहत एवं बचाव कार्य के दावे जरूर किये जा रहे हैं लेकिन 28 जून तक चमोली जिले के गुप्तकाशी और अगस्त्य मुनि में राहत टीम पहुंच ही नहीं पाई थी। गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक केदारनाथ के आसपास 60 गांवों का कोई अता-पता नहीं है।
उत्तराखंड राज्य बने 13 साल हो चुके हैं। इस दौरान विकास के नाम पर राज्य के पहाड़ और नदियों का जमकर दोहन हुआ है, जिसका खमियाजा जनता को दैवीय आपदा के रूप में भुगतना पड़ रहा है। उत्तराखंड को केंद्र सरकार ने विकास के लिए अपार धनराशि दी। वहीं राज्य सरकारों ने भी विभिन्न निजी डेवलपर्स को उत्तराखंड में विकास के लिए न्योता दिया। इन सबने मिलकर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। भागीरथी और अलकनंदा के तटों पर अतिक्रमण कर बहुमंजिले होटल और अर्पाटमेंट्स खड़े कर दिए गए। विकास के नाम पर जंगल साफ कर उनकी जगह कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए।
जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश में था तो, यहां जंगल काटने पर पूरी तरह पाबंदी थी। उस समय भागीरथी और अलकनंदा के तटों पर होटल बनाना तो दूर एक कोठरी भी बनाने की इजाजत नहीं थी। लेकिन अलग राज्य बनने के बाद राज्य के रहनुमाओं ने विकास के नाम पर प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की खुली छूट दे दी। इसका खमियाजा पिछले कुछ साल से प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य में सड़कों का जाल बिछाने और गंगा और सहायक नदियों व अन्य नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं लगाकर प्रदेश को बिजली प्रदेश बनाने की योजना बनाई गई। इस समय राज्य में 70 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। इसके लिए पहाड़ों में सुरंगें बनाने और सड़कों के चौड़ा करने के लिए पहाड़ों को डायनामाइट से तोड़ा जा रहा है। इससे पहाड़ लगातार दरक रहे हैं। कमजोर हुए पहाड़ मानसून की पहली बारिश में ही भरभरा कर गिर पड़ते हैं और तबाही का कारण बनते हैं। पिछले तीन साल से भागरथी और अलकनंदा पहाडिय़ों से बुरी तरह रूठ गई हैं। वे अपना रौद्र रूप ऐसा दिखा रही हैं कि ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन से नीलकंठेश्वर शिव की प्रतिमा ही बहा ले गर्इं। मान्यताओं के मुताबिक जिस गंगा को भगवान शिव ने अपनी जटाओं में समा लिया था और केवल एक जटा खोलकर उसे पृथ्वी पर प्रवाहित किया था, आज वही गंगा ऐसा अहसास करा रही है जैसे वह शिव की सभी जटाओं से फूट पड़ी हो। राज्य में हर तरफ तबाही का मंजर है। ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद महाराज का कहना है कि जो गंगा का रौद्र रूप दिख रहा है, वह भावी विनाश की चेतावनी है। यदि राज्य में विकास के नाम पर गंगा का दोहन नहीं रुका तो वह राज्य को मटियामेट कर देगी। इसलिए विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोकना होगा। केंद्र सरकार को राज्य को मुफ्त बिजली देनी चाहिए, जिससे राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोका जा सके।
जो लोग 16 जून के पूर्व केदारनाथ धाम से लौट आए होंगे वे यदि कुछ दिनों बाद वहां जाएं तो उनके लिए यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि यह उनकी श्रद्धा का वही केन्द्र है जहां वे पहले आ चुके हैं। मुख्यमंदिर को छोड़कर शेष हिस्से लगभग ध्वस्त हो चुके हैं। मंदिर भी क्षतिग्रस्त हुआ है। यहां दो तिहाई भवन ढहने के साथ ही गौरीकुंड व केदारनाथ के बीच यात्रा के प्रमुख पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान मिट चुका है। ऐतिहासिक शंकराचार्य समाधि स्थल मलबे में दब चुका है। कहा जाता है कि इसको ठीक करने में कई साल लग सकते हैं। रास्ते की सड़कंे भी जगह जगह भयानक खाइयों में बदल चुकीं हैं। यह केवल एक स्थान की कहानी नहीं है। उत्तराखंड की तबाही का आयाम आम वहां के आम जन जीवन और हजारों पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए अनर्थकारी साबित होने के साथ हमारी अध्यात्म परंपराओं, सभ्यता-संस्कृति के विनाश तक विस्तारित होता है। समय पूर्व और औसत से ज्यादा बारिश को विनाशलीला का कारण बताया जा रहा है। उत्तराखंड में 16 जून को ही 24 घंटे के भीतर 220 मिलीलीटर से ज्यादा बारिश हुई, जो सामान्य से 300 प्रतिशत ज्यादा है।
किंतु यह एकपक्षीय सच है। उत्तराखंड को विकास के नाम पर जिस तरह तबाह-बरबाद किया गया है उसमें विनाश की संभावनाएं कई गुणा बढ़ गईं हैं। पूरे उत्तराखंड में पहाड़ों पर, नदियों के किनारे और पेटी के अंदर बनाए गए रिसोर्ट, होटलों, अपार्टमेंटों, आम मकानों को देखने से ही भय पैदा होता है। आखिर हिमालय जैसा कच्चा पहाड़ अपने ऊपर कितना वजन बरदाश्त कर सकता है? सीमेंट और कंक्रीट के कंकाल को सहने और झेलने की क्षमता पहाड़ों में नहीं होतीं। जाहिर है, जब अट्टालिकाएं बनेंगी तो फिर विनाश का परिमाण भी बढ़ेगा। यही हाल सड़कों और बांधों का है। सड़कों ने हमारे लिए उन इलाकों में जाना सुगम बना दिया जहां पहुंचने की कथाएं इतिहास की साहसी गाथाओं मे गिनी जातीं थीं। सड़कों के लिए पहाड़ों की कटाई ने उनको स्थायी रुप से घायल किया। समय-समय पर वहां से दरकते पत्थर और मिट्टियां इसका प्रमाण देतीं रहतीं हैं कि आने वाले समय में ये विनाश का कारण बनते हैं।
अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, फिर आगे गंगा ने अपना रौद्र रूप पहले भी दिखाया है। लेकिन उस समय न इतने निर्माण थे, और न इतनी संख्या में यात्री। इसलिए विनाश काफी कम होते थे। पहले इनके बीच 20 से 40 वर्ष का अंतर होता था। वर्ष 2008 के बाद हर वर्ष यानी 2009, 2010, 2011, 2012 और अब 2013 में भी छोटी-बड़े बाढ़ आ रहे हैं। क्या ये विनाश की चेतावनी नहीं दे रहे हैं? आप देख लीजिए अति संवेदनशील वासों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2010 में ऐसे वासों की संख्या 233 जो लगभग 450 हो गई और संभव है इस प्रकोप के बाद इनकी संख्या और बढ़े। कितने लोगों को विस्थापित कर कहां और कैसे बसाया जाएगा? विकास के नाम पर हुए विनाश की बलि आखिर कितने गांव, शहर, लोग, पशु-पक्षी, वनस्पतियां चढ़ेंगी? खुद हमें ही ठहरकर सोचना होगा कि आखिर हम विकास क्यों चाहते हैं और कैसा विकास चाहिए? अगर यातायात से लेकर संचार, ऊर्जा, सारी सुख सुविधाओं से लैश चमचमाते भवन...भोग विलास की सारी सामग्रियां चाहिंएं तो फिर ऐसे ही विनाशलीला के सतत दुष्चक्र में फंसने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। अगर नहीं तो फिर थोड़ा पीछे लौटकर प्रकृति के अनुसार जीने और रहने का अभ्यास डालना होगा। यही दो विकल्प हमारे पास हैं। इसके बीच का कोई रास्ता हो ही नहीं सकता।
कहां गया केदारनाथ
केदारनाथ का सदियों पुराना शिवमंदिर कभी बर्फ में ढका रहता था। भारत वर्ष में गिने-चुने लोगों को ही उस मंदिर के दर्शन हो पाते थे वर्ष में दो माह बमुश्किल वहां पहुंच सकते थे, न इमारतें थीं न बाजार थे, न ठहरने की व्यवस्था थी, लेकिन पिछले लगभग डेढ़ दशक से आस्था का जो बाजारीकरण हुआ उसके चलते केदारनाथ अच्छे खासे बाजार में तब्दील हो गया। आसपास धर्मशालाएं उग आई, होटलें बन गई, आस्था के नाम पर लूट होने लगी। धर्म की आड़ में अय्याशियां होने लगी। ऐसे में प्रकोप को कब तक रोका जा सकता था। प्रकृति ने अंतत: तांडव दिखा ही दिया। आज केदारनाथ के बाजार रामबाड़ा में दुकानें नेस्तनाबूत हो ही गईं, दुकानदारों का भी कोई अता पता नहीं है। अनुमान है कि रामबाड़ा में करीब एक हजार व्यापारी प्रलय के पानी में बह गये हैं। केदारनाथ में यात्रियों से ठसाठस भरीं 90 धर्मशालाएं पूरी तरह से तबाह हो गई हैं। इसके आलावा भारत सेवा आश्रम, काली कमली धर्मशाला, गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस का कोई अता-पता नहीं है। इनमें हजारों की संख्या में यात्री ठहरे हुए थे। अधिकारियों के मुताबिक इनमें किसी के बचे होने की संभावना बेहद कम है। इसी तरह गौरीकुण्ड में भी 40 होटलों के नेस्तनाबूत हो जाने की खबर आ रही है।
पश्चिमी हवाओं से तबाही बढ़ी
उत्तराखंड के पहाड़ों पर एक दिन में ही 300 प्रतिशत बारिश अचानक नहीं हुई है बल्कि इसमें पश्चिमी हवाओं का योगदान है जिन्हें वेस्टरलीस कहा जाता है। मानसूनी हवाओं के साथ वेस्टरलीस आसमान में ही टकरा गई और उस टकराहट ने प्राण घातक बारिश चंद घंटों में पहाड़ पर बरसा दी। स्थानीय लोग इसे बादल का फटना कहते हैं, लेकिन उस दिन आसमान ही फट गया था। बदलती जलवायु के कारण पूरे यूरोप और भारत में अब इस तरह की जानलेवा बारिश हो सकती है। इसका कारण यह है कि पश्चिमी देशों से चलने वाली हवाएं मुख्यत: उत्तरी हिमालय की तरफ बढ़ती हैं। जिन्हें हिमालच की चोटियां रोक लेती हैं। कई बार हिमालय की चोटियों को पार करने पर यदि जून के माह में मानसूनी हवाओं से उनकी भेंट हो जाए तो बादल फट सकते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में निम्न दबाव बना रहता है।